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भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास की धारा को सियासत के खांचों में बिठाकर राजनीति की नई परम्परा विकसित करने की चाहे जितनी भी कोशिश कर रहे हों, लेकिन इस देश के बुद्घिजीवी कहलाने वालों का एक बड़ा तबका आज भी उसी रुढि़वादी कसौटियों पर ही सियासत को कसने से बाज नही आ रहा। एक संघ-राज्य के रूप में भारत 29 राज्यों और 5 संघ शासित राज्यों वाला विशाल देश है। यहां लगभग हमेशा ही किसी न किसी राज्य में चुनाव आदि की प्रक्रिया चल रही होती है। ऐसे में यह देखना रुचिकर होता कि इस तथा कथित बुद्घिजीवी वर्ग का पूर्वानुमान एवं उनकी सोच का पैमाना क्या है? दिल्ली में चुनाव की संभावनाओं की स्थिति जैसे ही पैदा हुई है, बुद्घिजीवियों का एक बड़ा धड़ा इस बात को त्रिलोकपुरी एवं बवाना में हुई घटना से जोड़कर देखने लगा। इन कथित बुद्घिजीवियों की माने तो भाजपा के पास चुनाव जीतने का महज एक ही हथकंडा है, दंगा कराना। हालांकि दंगों की सियासत पर बहस जब भी होती है, खुद को सेकुलर कहने वाला या कथित बुद्घिजीवी वर्ग निष्पक्षता से दंगो एवं राजनीति पर अपनी बात नहीं रखते हैं।
इनके लिए दंगा मतलब केवल गुजरात होता है एवं साम्प्रदायिक मतलब केवल भाजपा होती है। जबकि सही मायनों में देखा जाये तो दंगो का इतिहास कुछ और बयान करता है। भारत में राजनीति एवं दंगों की सियासत को ठीक से समझने के लिए उस इतिहास से पर्दा उठाना जरुरी है इतिहास के बारे में सबसे अनोखी बात ये है कि इतिहास कभी वहां से शुरू नहीं होता जहां से हम पढ़ना शुरू करते हैं। हम जहां से पढ़ना शुरू करते हैं उससे पहले का भी कुछ ना कुछ इतिहास होता है जो उस इतिहास के लिए जिम्मेदार होता है जिसे हम पढ़ रहे होते हैं। ये निहायत निजी समझ और निजी चयन की बात है कि हम इतिहास को कहां से पढ़ना शुरू करें। कालखंडों के आधार पर हम स्वतंत्र अथवा लोकतांत्रिक भारत के लगभग सत्तर वर्षों का इतिहास पढ़ सकते हैं। इन सत्तर सालों के लोकतांत्रिक इतिहास का एक ठीक-ठाक हिस्सा दंगों के इतिहास का भी है। इन सत्तर वर्षो में इस देश में हजारों छोटे-बड़े दंगे हुए हैं और इतिहास इसका गवाह बना है। यहां भी आपका अपना ही चयन है कि आप दंगो का इतिहास कहां से पढ़ना चाहते हैं। आप स्वतंत्र है कि आप आजाद भारत के दंगो का इतिहास गुजरात 2002 से पढ़ना शुरू करें अथवा 1992 अयोध्या प्रकरण से या आप चाहें तो 1989,1984,1964 सहित 1947 से भी शुरू कर सकते हैं। पोषित बुद्घिजीवियों द्वारा आजाद भारत की राजनीतक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी तैयार की गयीं हैं कि हम दंगों का इतिहास गढ़ते भी अपनी सुविधानुसार हैं और उस इतिहास को पढ़ते भी अपनी सुविधानुसार ही हैं।
विकास, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी इन सबको एक पोटली में बंद करके किसी कोने में तबतक तो रख ही देना चाहिए जबतक चुनावों का मौसम है। हमारी राजनीति का पहिया भी धरती की तरह गोल है जो अपनी धुरी पर घूमते हुए धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता पर आकर रुक जाता है और बाकी मुद्दे गौण हो जाते हैं। इसे हल्के में कैसे लिया जा सकता है कि राहुल गांधी जैसे युवा नेता के पास भी इस बूढ़े होते मुद्दे को दरकिनार करने का कोई उपाय नहीं है और मजबूरन वह खुद इस मुद्दे को घसीट कर चुनाव के अखाड़े में लाना चाहते हैं। दंगो का सवाल इस लिहाज से भी अक्सर प्रासंगिक बन जाता है क्योंकि इस देश में दंगांे का इतिहास इस देश की राजनीति में खास दखल रखता है। दंगों का राजनीति से सम्बन्ध इतना मुखर है कि खुद पारम्परिक राजनीति से इतर बताने वाले आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल तक को उ.प्र. के तौकीर रजा खान एवं हैदराबाद के ओवैसी से मिलना पड़ता है। चाहे जो हो जाये लेकिन राजनीति और दंगों को अलग-अलग करके नहीं रखा जा सकता। लोकसभा चुनाव से पहले कुछ चैनलों को दिए साक्षात्कार में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बार-बार गुजरात दंगांे को सन्दर्भ में लिया तो बात 84 के सिख दंगो तक पहंुच गयी। हालांकि दंगो के मामले में राहुल गांधी का इतिहास दर्शन भी बेहद चयनात्मक है। अगर देखा जाये तो राहुल गांधी दंगो का इतिहास गुजरात 2002 से ही पढ़ना पसंद करेंगे।अगर वे 92 का बाबरी ध्वंस याद भी करते हैं तो अपने पिता राजीव गांधी के शाहबानो बनाम हिंदू तुष्टीकरण को बिलकुल भी याद नहीं रखना चाहेंगे।अगर देखा जाय तो बाबरी ध्वंस की बुनियाद ही इस प्रकरण में रखी गयी थी जहां एक तरफ शाहबानो मामले में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा एक समुदाय के तुष्टीकरण के लिए सवार्ेच्च न्यायालय का फैसला बदल दिया गया था। इस फैसले को बदलने के बाद जब ऐसा लगा कि दूसरा समुदाय नाराज हो जाएगा तो स्वयं राजीव गांधी द्वारा राम मंदिर ताला खुलवाकर उसमे पूजा अर्चना कराई गयी। यहां तक कि साम्प्रदायिक तुष्टीकरण का भूत राजीव गांधी के सर पर इस तरह सवार था कि वो फैजाबाद की रैली में यहां तक बोल आये कि उन्हें हिंदू होने का गर्व है। गौरतलब है कि अगर आप 92 का बाबरी ध्वंस पढ़ना चाहते हैं तो आपको 87-89 का शाहबानो का इतिहास खंड भी पढ़ना होगा।
दंगांे के इतिहास पर अगर एक संक्षित नजर डालें तो 1964 में राउरकेला का दंगा हुआ जबकि 1967 में रांची दंगा और 1969 में अहमदाबाद दंगा हुआ था । दंगो की कड़ी यहीं रुकती नहीं है बल्कि और बढ़ती ही जाती है। परिणाम 1970 में भिवंडी दंगा, 1979 में जमशेदपुर दंगा, 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1983 में असम के नेल्ली का दंगा, 1985 में गुजरात के दंगे का दंश देश को झेलना पड़ता है। साम्प्रदायिक नरसंहार का एक सबसे कुरूप चेहरा दिल्ली में 84 का सिख विरोधी नरसंहार है जो दिल्ली के इतिहास का सबसे काला पन्ना है। ये वही काला पन्ना है जिसमे इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद संगठित ताकतों द्वारा दिल्ली में सिखों को बेरहमी से मारा गया था और तब राजीव गांधी की धर्म निरपेक्षता का तकाजा ऐसा था कि उन्होंने ये कह दिया कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।
इस मुल्क में दंगो का बहुत पेचीदा इतिहास रहा है। अगर पढ़ा जाये तो गुजरात में 2002 से पहले भी दो या तीन बड़े दंगे हो चुके थे और वह भी तब जब भाजपा का राजनीति में वजूद भी नहीं था और कांग्रेस देश में सबसे बड़ा शासक दल हुआ करती थी। लेकिन दंगो के इतने बड़े इतिहास पर जिस ढंग से पर्दा डालकर इसमें देश धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता की राजनीति करने का प्रयास किया जा रहा है वो इस बात की तस्दीक करता है कि मोदी को विकासवादी राजनीति का कोई अन्य विकल्प किसी के पास नही है। भारत में दंगो का इतिहास जितना अंदर जायेंगे उतना ही गहरा मिलेगा और सन 1526 के बाद और औरंगजेब शासन तक से बात शुरू करनी पड़ेगी जब भारत आज जैसा भाारत नहीं हुआ करता था। -शिवानन्द द्विवेदी
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