|
पिछले कुछ समय से किसी भी महासत्ता की कसौटी इस बात पर निर्भर होती आ रही है कि विश्व के अन्य देशों पर उसका किस सीमा तक नियंत्रण है। व्यापार,औद्योगिक कारोबार, विज्ञान-तकनीक, खेती जैसे हर क्षेत्र में नियंत्रण का पैमाना मापा जाता है। उसी से उन महासत्ताओं की अन्य देशों पर थानेदारी की सीमा और क्षमता स्पष्ट हो जाती है। पिछले 100 वर्ष में ही जिन देशों के महासत्ता होने का आभास हो रहा था, वैसे तत्कालीन सोवियत संघ और आज चीन द्वारा उस ओर किए गए प्रयासों के बारे में सब जानते हैं। पश्चिमी महासत्ताओं द्वारा अन्य देशों पर आधिपत्य जमाने की परंपरा कुछ सदियों पुरानी है। वे केवल आधिपत्य जमाने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि गुलामी थोपने के चलते भी जाने जाते हैं। सन् 1950 से पहले के समय की चर्चा करें तो विश्व के 100 से अधिक देशों में पश्चिमी देशों की ही थानेदारी चलती थी। लेकिन सन् 1950 को मध्य में रखें तो उससे पहले पांच वर्ष और बाद के पांच वर्ष की अवधि में विश्व के 60-70 देशों ने स्वतंत्रता प्राप्त की। अनेक देशों में लोकतंत्र का आगमन हुआ। कई देश संयुक्त राष्ट्र संगठन के सदस्य बने। इसलिए गुलाम बनाने की वह पुरानी पद्घति दकियानुसी हो गई। लेकिन किसी न किसी तरह से अन्य देशों पर आधिपत्य जमाने का वह प्रयास आज भी जारी है।
पहले के जमाने में सेना की टुकडि़यों को भेजकर अपना सिक्का जमाया जाता था। हाल में महासत्ता बने देशों के सीनेटर और सांसद दोस्ती के गुलदस्ते थामे पूरी दुनिया में घूमते हैं और पुन: उन देशों पर आधिपत्य जमाने का रास्ता बनाते हैं। चीन जैसे देश आम जरूरत की चीजों जैसे, चश्मा, बर्तन तथा सायकिल बेहद कम कीमत पर बनाकर भेजते हंै एवं घनिष्ठ मित्रता का आसान मार्ग तैयार करते हैं। वहीं अमरीका जैसे देश उस देश के छात्रों को छात्रवृत्ति देते हैं। लेकिन हाल में यह देखने में आया है कि इस तरह के आसान मार्ग के पीछे निश्चित तौर पर अधिक नियंत्रण जमाने की ही मंशा होती है। पिछले कुछ महीनों में चीन से आने वाले मोबाइल फोन वैश्विक बाजार की तुलना में काफी सस्ती कीमत पर बेचे जा रहे हैं। पता चला है और भारत के सैन्य शोधकर्ताओं ने यह अंदेशा जताया है कि उन सस्ते मोबाइल फोन से की जाने वाली बातचीत चीन में रिकार्ड की जाती है। इसके जरिए चीन बडे़ पैमाने पर जासूसी करने की तैयारी कर रहा है।
चीन जैसे मत-पंथ की परवाह न करने वाले देश द्वारा अन्य देशों पर आधिपत्य जमाने की अपनी एक पद्घति है, लेकिन पश्चिमी देशों की पद्घतियां उससे अलग ही हैं। दूसरे देश पर सिक्का कैसे जमाना तथा उससे लूट के मार्ग कैसे बनाने हैं, इसके लिए उनकी कुछ अनुभवसिद्घ पद्घतियां हैं। उनका प्रयोग आज भी जारी है और उससे महासत्ता होने का दावा करने वाले वे देश आज भी अन्य देशों पर आधिपत्य जमाने की दूरी कम कर रहे हैं। पिछले 50-60 वर्र्ष में यूरोपीय देश और अमरीका ने आक्रमण की अनेक पद्घतियां तैयार की हैं, क्योंकि पुरानी पद्घतियां आज दकियानुसी हो गई हैं। इसमें सर्वमान्य पद्घति है मतांतरण।
वास्तव में विश्व के विचारकों की यह मान्यता है कि मतांतरण की पद्घति केवल चर्च संगठनों तक सीमित है। यह कई देशों की सोच थी कि इसमें लगे लोग ईसा मसीह के आध्यात्मिक खिंचाव से गृहस्थी छोड़कर लोकसेवा में जुटे हैं। लेकिन वास्तव में पिछले 500 वर्र्ष यानी सन् 1492 से आज तक का इतिहास यदि देखा जाए तो लोकसेवा और रोगीसेवा के नाम पर इन लोगों ने कई नरसंहार रचे हैं एवं विश्व को लूटा है। 16 वर्ष पूर्व अमरीका द्वारा अपने देश में पारित इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम एक्ट उन्हीं पद्धतियों में से एक है। 10-15 वर्ष पूर्व अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन दुनियाभर में अपनी मंद मुस्कान के लिए जाने जाते थे। लेकिन उन्होंने ही 1998 में ऐसा कानून पारित कराया जिसके अनुसार उनका मानना था कि 'पूरी दुनिया में उनको ईसाईकरण का मौलिक अधिकार प्राप्त है'। वह कानून है, इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम एक्ट ऑफ 1998। उसका उद्देश्य यही था कि पूरी दुनिया में ईसाइयों पर जो 'अत्याचार' हो रहे हैं, उन पर कार्रवाई करने का अमरीका को सीधा अधिकार मिले। चूंकि अमरीका एक महासत्ता है इसलिए अनेक देशों से उसके आर्थिक अनुबंध हैं। उसके आधार पर प्राप्त होने वाले अधिकार से उसनेे रियायत प्राप्त की। ऐसा करते समय उनकी नजर सिर्फ भारत पर ही नहीं थी। उनका मानना था कि 'विश्व में ईसाई आबादी बडे़ पैमाने पर विखंडित हो रही है। उन पर अन्याय हो रहे हैं। ईसाई मत के सेवक ईमानदारी से अपने मत का प्रचार करते हैं, लेकिन स्थानीय लोग उनका विरोध करते हैं। उन पर अत्याचार होते हैं।' उन्हें ही 'नियंत्रित' करने के लिए यह कानून बनाया गया था। इस नजर से पूरी दुनिया के संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति एवं प्रशासन की क्या भूमिका हो, यह तय करने के लिए अमरीकी सरकार को सलाह देते रहने के लिए एक स्वतंत्र और व्यापक दृष्टि वाला राजदूतावास बनाया गया। उसी तरह विभिन्न दलों के सांसदों और मंत्रियों के स्तर पर इस विषय का महत्व बताने वाला एक स्वतंत्र आयोग बनाया गया। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को आवश्यक मुद्दे बताने के लिए एक स्वतंत्र विभाग तैयार किया गया। इसे यू.एस.एड. कार्यक्रम नाम दिया गया।
भारत के लिहाज से इसका काफी महत्व है, क्योंकि चर्च संगठनों नेअगले 30-40 वर्र्ष में यहां बडे़ पैमाने पर मतांतरण करने का उद्देश्य अपनेे सामने रखा है। भारत में जिनका अधिक प्रभाव है उनमें प्रोटेस्टेंट चर्च प्रमुखहैं, क्योंकि अमरीका में मुख्य रूप से ब्रिटिश संस्कृति की ही ज्यादा छापहै। अमरीका में पिछले कई वर्षो से प्रोटेस्टेंट लोगों की संख्या ही अधिक थी। हाल में उसमें 50 प्रतिशत कमी हुई है। फिर भी बड़ा गुट वही है। विश्व में किस देश में इस नजरिए से क्या स्थिति है इस बारे में अमरीकी सरकार में स्वयं राष्ट्रपति, अमरीकी सरकार और जनप्रतिनिधियों को इसकी जानकारी दी जाती है। मुख्य रूप से प्रगतिशील देशों में इसकी स्थिति पर बारीक नजर रखी जाती है, क्योंकि वहीं बडे़ पैमाने पर मतांतरण संभव है और आज जारी भी है।15 वर्ष पूर्व यह विषय पहले रिपब्लिकन सीनेटर फ्रेंक वुल्फ ने उठाया था। उन्होंने वहां दिए बयान में कहा था कि दक्षिण अमरीका, संपूर्ण अफ्रीका एवं एशिया में यह समस्या देखने में आई है।
इस पर अमरीका में काफी आलोचना भी हुई, क्योंकि कुछ सीनेटरों का कहना था कि अमरीका दुनिया का राजा नहीं है। दूसरे देशों की घटनाओं को लेकर हम कानून बनाएं, यह घमंड का सूचक है। खुद पहले उच्चायुक्त नियुक्त किए गए रॉबर्ट सिपल ने ही इस चीज की आलोचना की थी। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनका वह मकसद कम सफल रहा। विश्व के अलग अलग बैप्टिस्ट संगठनों में काम करने वाले अधिकारियों की उसमें नियुक्ती की गई। इसलिए एक तरफ उसकी आलोचना होते हुए भी उसे सफलता भी मिलती गई। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इस तरह पश्चिमी महासत्ताओं का एक बार फिर आधिपत्य जमना शुरू हुआ है। अमरीका जैसी महासत्ता की यह करतूत मिशनरी साम्राज्य के सैकड़ों कृत्यों में से एक कही जा सकती है।
पश्चिमी जगत की ओर से हर वर्ष 'पर्सीक्यूटिड कंट्रीज' नाम से एक सूची जारी की जाती है। उसमें उन देशों के नाम होते हैं जिनमें ईसाइयों को 'प्रताडि़त' किया जाता है। सूची में एशियाई देशों की काफी संख्या है। उसमें भारत और चीन भी हैं। पश्चिमी देशों में मुख्यत: अमरीका व यूरोप हैं। उसमें और एक खास चीज यह है कि पश्चिमी देशों के चार संगठन इसमें सम्मिलित होते हैं। अमरीका जैसी महाशक्ति तो उनमें होती ही है, लेकिन विश्व पर लंबे समय तक आधिपत्य करने वाला ब्रिटेन भी उनमें शामिल है। उसी तरह वेटिकन काउंसिल और यूरोपीय देश स्वतंत्र रूप से विश्व की 'पर्सीक्यूटिड कंट्रीज' की सूची प्रकाशित करने में आगे रहते हैं। यह सूची केवल दुनिया की जानकारी के लिए छापी जाती हो, ऐसा नहीं है। खुद संयुक्त राष्ट्र संगठन एवं कई अंतरराष्ट्रीय संगठन उस पर गौर करते हैं। ऊपरी तौर पर यह लग सकता है कि किसी देश के लोगों को दूसरे किसी देश में कोई तकलीफ हो तो उस मूल देश का उस पर आपत्ति करना स्वाभाविक है। लेकिन इसमें मुद्दा यह है कि ये देश मानकर चलते हैं कि उन्हें उन देशों में मतांतरण का अधिकार प्रकृति द्वारा दिया गया है। इस विषय में उन देशों में स्थित औद्योगिक संगठन यानी कारपोरेट कंपनियां भी जुटी होती हैं। यही वजह है कि पश्चिमी देशों की तीसरी दुनिया में आक्रामक प्रवृत्ति पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहा।
वास्तव में पिछले 60-65 वर्षो में विश्व के जिन देशों को स्वतंत्रता मिली उन देशों में इन आक्रमणों के बारे में जागरूकता तो है, पर ऐसे मुद्दों पर एकजुटता नहीं है, जबकि असल में तीसरी दुनिया के देशों में ऐसे सभी देशों की समस्याओं का एक समान सूत्र है यानी इन सभी देशों पर पश्चिमी देशों ने 150 से 450 वर्षो तक राज किया था। संबंधित देशों में कितनी लूट हुई है, इसकी गणना भी अभी तक नहीं हुई है। वक्त आ गया है कि पश्चिमी देशों द्वारा विश्व में आज तक किए गए शोषण का भी हिसाब देखना चाहिए।
– मोरेश्वर जोशी
टिप्पणियाँ