|
क्या यह निरा संयोग था कि जिस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बुद्ध-शिष्य जापान के साथ मैत्री का पुल तैयार कर रहे थे उसी समय नितीश के बिहार में प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा महाविहार के पुनरुज्जीवन की नाटकीय घोषणा की जा रही थी? नाटकीय इसलिए कि इस अजन्मे विश्वविद्यालय की कुलपति गोपा सबरवाल के अनुसार विश्वविद्यालय का विधिवत उद्घाटन 15 सितम्बर को विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के आगमन पर ही होना है। तब बिना किसी तैयारी के इतनी जल्दी क्यों की गयी? कई वर्षों से चर्चित इस विश्वविद्यालय के भवन निर्माण का काम अब तक शुरू नहीं हुआ है। यद्यपि 2010 में ही संसद में एक विशेष अधिनियम पारित करके विश्वविद्यालय के नाम पर राजगीर की पहाडि़यों में 455 एकड़ भूमि आवंटित कर दी गयी। चीन सरकार से नवम्बर, 2011 में दस लाख डॉलर और जनवरी, 2012 में थाईलैंड से एक लाख डॉलर का अनुदान प्राप्त हुआ। इसलिए मोदी की जापान यात्रा के साथ मेल बैठाने के लिए एक सरकारी भवन राजगीर कन्वेंशन सेंटर को एक वर्ष के लिए किराये पर लिया गया है और छात्रावास के रूप में तथागत होटल का इस्तेमाल किया जा रहा है।
विश्वविद्यालय के पुनरुज्जीवन की घोषणा करते समय उसके पास मात्र 15 छात्र हैं और 11 शिक्षक हैं। विश्वविद्यालय में सात विभागों की योजना में से मात्र दो विभाग अभी शुरू हो पाए हैं। इनमें से एक विभाग में पर्यावरण का विषय पढ़ाया जाएगा और दूसरे में इतिहास का विषय। कुलपति गोपा के कथनानुसार तीन विभाग शीघ्र ही शुरू होंगे। इन विभागों के विषय हैं-1-भाषा और साहित्य, 2-अर्थशास्त्र और प्रबंधन और 3-जन स्वास्थ्य। यह समझना कठिन है कि इन पांचों विषयों की शिक्षा के लिए एक नए विश्वविद्यालय की क्या आवश्यकता थी? क्या देशभर में बिखरे सैकड़ों विश्वविद्यालयों में ये सब विषय उपलब्ध नहीं हैं? और फिर जिस प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुज्जीवन की डींग हांकी जा रही है क्या उस विश्वविद्यालय का पूरा ध्यान इन्हीं विषयों पर केन्द्रित था? विश्वविद्यालय की योजना के अनुसार प्रत्येक विभाग में छात्रों की अधिकतम संख्या 20 रहेगी। इस प्रकार अभी प्रारंभ हुए दो विभागों में चालीस छात्र प्रवेश पा सकते हैं, पर एक सितम्बर को विश्वविद्यालय के पुनरुज्जीवन दिवस केवल 15 छात्रों ने प्रवेश लिया है, इनमें से पांच छात्राएं हैं। इन पन्द्रह में से केवल तीन बिहार के हैं। और केवल एक-अकिरो नाकम्व्वा जापान के टोकियो से है। बताया जा रहा है कि इन छात्रों का चयन 1400 आवेदकों की पूरी छानबीन करके किया गया है। इनमें से एक छात्र भूटान विश्वविद्यालय में डीन पद पर कार्य कर रहे हैं और 'स्टडी लीव' लेकर पढ़ने आए हैं। वे जापान से बौद्ध अध्ययन में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर चुके हैं। अधिकांश चयनित छात्र इतिहास विषय का अध्ययन करना चाहते हैं। किंतु इस विश्वविद्यालय में किस इतिहास दृष्टि को अपनाया जाएगा? क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त इतिहासकार डी. एन. झा की इतिहास-दृष्टि को, जिन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में अपनी पूरी बुद्धि यह सिद्ध करने में खर्च कर दी कि समकालीन स्रोतों का यह कथन असत्य है कि 'सन् 1193 में मुस्लिम आक्रांता बख्त्यिार बिन खिलजी ने नालंदा महाविहार के भवनों का, वहां के विशाल पुस्तकालय भवन का विध्वंस करके उन्हें आग लगाई, जो लम्बे समय तक धू-धू करके जलते रहे थे।' डी.एन.झा के अनुसार इस विध्वंस-लीला के लिए मुस्लिम आक्रांता नहीं बाह्मण ही जिम्मेदार थे।
विश्वविद्यालय में जिन छात्रों का चयन किया गया है उन सबने इतिहास के अध्ययन में रुचि दिखाई है। भूटान विश्वविद्यालय के डीन न्गवांग अपनी रुचि का कारण बताते हैं कि 2011 में भूटान सरकार ने भूटान और हिमालय क्षेत्र के इतिहास का अध्ययन आवश्यक किया, तभी से मुझे इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता महसूस हुई। टोकियो विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त अकिरो नाकम्व्वा भी इतिहास पढ़ने के लिए भारत आया है, किंतु उसे कौन सा इतिहास पढ़ाया जाएगा? 15 छात्रों को पढ़ाने के लिए 11 शिक्षकों की नियुक्ति अब तक हो चुकी है, उनमें से अधिकांश विदेशी विश्वविद्यालयों से जुड़े रहे हैं। कुलपति गोपा को गर्व है कि उनके द्वारा चुने हुए शिक्षकों ने विदेशों में ख्याति अर्जित की है, किंतु यह नहीं बताया कि भगवान बुद्ध की ज्ञान-धारा में उन्होंने कितना गहरा अवगाहन किया है।
स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए तीन लाख रुपये की फीस रखी गयी है। इसके अतिरिक्त प्रशासकीय खर्च के लिए 75,000 रु. अलग से देने होंगे। सचमुच क्या प्राचीन नालंदा महाविहार के पुनरुज्जीवन की घोषणाएं करते समय बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नितीश कुमार और उनके मुख्य परामर्शदाता नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने पांचवीं शताब्दी के चीनी यात्री फाहियान, सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध यात्री हुएन सांग, जो स्वयं इस विश्वविद्यालय में एक वर्ष छात्र और एक वर्ष शिक्षक के रूप में रहा, आठवीं शताब्दी के चीनी यात्री इत्सिंग के लेखन को नहीं पढ़ा? यदि उनके पास मूल को पढ़ने का समय और धैर्य नहीं था तो वे महान इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी द्वारा 1939-40 में लिखित और लंदन से 1947 में प्रकाशित 'प्राचीन भारतीय शिक्षा' शीर्षक वृहद ग्रंथ के 557 से 585 तक के पृष्ठों को पढ़ लेते, जिनमें प्राचीन नालंदा महाविहार के बारे में पूरी जानकारी सप्रमाण दी गई है।
डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने प्राचीन स्रोतों से जो जानकारी एकत्र की है उससे ज्ञात होता है कि नालंदा महाविहार को आधुनिक विश्वविद्यालयों के चश्मे से देखना भारी भूल होगी। वह आज के विश्वविद्यालयों की तरह केवल पुस्तकीय ज्ञान पर केन्द्रित, कक्षा, पीरियड, लेक्चर, परीक्षा की धुरी पर घूमने वाला बौद्धिक विलासिता का घर नहीं था, अपितु बौद्ध साधना और दर्शन का गुरुकुल था। वहां अनेक अनुभवी बौद्ध आचार्य साधनारत थे। उनकी तपस्या का तेज अध्यापक पथ के यात्रियों को आकर्षित करता था। उनका चयन किसी बौद्धिक परीक्षा के आधार पर नहीं , बल्कि उनकी अन्तर्रचना के आधार पर होता था। हुएन सांग ने इस प्रवेश विधि का सविस्तार वर्णन किया है। नालंदा महाविहार में प्रवेश पाने वाले ब्रह्मचारियों को किसी प्रकार का शुल्क नहीं देना पड़ता था। भोजन, आवास, वस्त्र आदि का पूरा व्यय समाज वहन करता था। बताया जाता है कि एक समय वहां नि:शुल्क शिक्षा पाने वाले शिक्षार्थियों की संख्या 10,000 से भी अधिक थी। नालंदा महाविहार सम्पूर्ण बौद्ध जगत से छात्रों को आकर्षित करता था। वहां से शिक्षा प्राप्त भिक्षु पूरे बौद्ध जगत पर छाए हुए थे। नालंदा महाविहार सम्पूर्ण बौद्ध विश्व के लिए तीर्थस्थल था। वह भारत और बौद्ध विश्व के बीच पुल का कार्य करता था। नालंदा की बौद्धिक श्रेष्ठता का अनुमान इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रख्यात मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट ने इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी और गुरुद्रोह के पाप का प्रायश्चित करने के लिए स्वयं को तुषानल की आग में जीवित जला दिया था।
अपनी ज्ञान-निधि एवं आचार्य परंपरा के कारण नालंदा महाविहार स्वयं विश्वगुरु के आसन पर प्रतिष्ठित हुआ और उसके माध्यम से भारत की विश्वगुरु की ख्याति अक्षुण्ण रही। पर वर्तमान नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म घृणा और विद्वेष की राजनीति में से हुआ। इस राजनीति के शिखर पुरुष नितीश कुमार का एक सूत्री कार्यक्रम स्वयं को नरेन्द्र मोदी से श्रेष्ठ नहीं, तो समकक्ष प्रदर्शित करना है। वे अपने सपनों में भी नरेन्द्र मोदी को शत्रु रूप में देखते हैं। घृणा, विद्वेष और कटुता की ऐसी राजनीति में भगवान बुद्ध की प्रेम, करुणा और शांति की झलक तक नहीं है। मोदी की जापान यात्रा को फीका करने की ईर्ष्या-जनित भावना से एक अधकचरी योजना को असमय पेड़ से तोड़ने का नाटक रचा गया। विदेशी विश्वविद्यालयों से उधार लिए शिक्षक और पहले से डीन पद पर अधिष्ठित छात्रों को छात्र रूप में प्रस्तुत करके सरकारी भवनों में विश्वविद्यालय प्रारंभ करने का स्वांग रचा गया। कुलपति ने गर्वपूर्वक घोषणा की कि येल सहित कई विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ अनुबंध हो चुका है, अन्य विश्वविद्यालयों से भिन्न वहां क्या है, यह अभी देखना बाकी है।
अभी तो नितीश को यह सफाई देना है कि यदि नालंदा विश्वविद्यालय को शुरू करने की तैयारियां पूरी नहीं थीं और यदि उसके लिए 14 सितम्बर के सप्ताह में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के आने की कोई संभावना थी और उनके आगमन को ही विश्वविद्यालय के औपचारिक उद्घाटन का बहाना बनाना था तो उस कार्यक्रम को एक पखवाड़ा पहले खिसकाने की मजबूरी क्या थी? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा के साथ उसका मेल बैठाना क्यों आवश्यक समझा गया? इससे नालंदा विश्वविद्यालय और स्वयं नितीश कुमार की प्रतिष्ठा बढ़ी है या घटी है?
हिंदी है हम : नालंदा विश्वविद्यालय – फिर जला ज्ञान दीप
क्या सत्य, प्रेम और अहिंसा के अवतार भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने का इससे बेहतर उपाय नितीश को नहीं सूझ पाया? क्या वे अब तक के विपरीत अनुभवों से कुछ नहीं सीख पाए? क्या नरेन्द्र मोदी के प्रति ईर्ष्या ने उन्हें इस कदर अंधा कर दिया है कि वे जिन भ्रष्ट और जातिवादी लालू यादव को राजनीतिक दृष्टि से दफनाने की सार्वजनिक घोषणाएं करते थे अब उन्हीं लालू यादव की गोद में जा बैठे हैं?
(3 सितम्बर, 2014) – देवेन्द्र स्वरूप
टिप्पणियाँ