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चमन, बटन, खरीदना, पैसा, पीपा, बाजार, चादर, तकिया, शाल, दुशाला, पाजामा, कालीन, कोट, पैंट, सब्जी जैसे अनगिनत शब्द हैं जिनका हम भारतीय भाषाओं में धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। कई विद्वानों का मानना है कि इनका प्रयोग नहीं होना चाहिए और इन जैसे शब्दों के लिए हमें संस्कृत के स्रोत से शब्द लेने चाहिए। कुछ विद्वानों का कहना है कि हिंदी तो संस्कृत से निसृत ही नहीं है वह तो प्रकृति और अपभ्रंश से आई है, उसे किस लिए संस्कृत का देशी संस्करण बनाया जाये? बहरहाल ये विद्वानों का समस्याओं को अपने-अपने ढंग से देखने, नई समस्याएं खड़ी करने का तरीका है। जीवन इन्हीं कार्यकलापों से रंग-बिरंगा रहता है। इसी से उसमें रस आता है। मगर ये विषय बहुत गंभीर है। इसकी तह में बैठा बीज-विचार है कि हमें शुद्घ रूप से भारतीय होना चाहिए और इसमें मिलने वाली प्रत्येक धारा को भारत के मूल संस्कार के अनुरूप ही स्वीकार करना चाहिए। यदि वह भारतीयता के विपरीत हो हो तो उसका भारतीयकरण करना चाहिए।
ज्ञात इतिहास में ये कोई नई बात नहीं है। वेदों का आदेश 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' अर्थात 'विश्व को आर्य' बनाओ सामने ही है। महात्मा हारीत के सामाजिक न्याय शास्त्र हारीत-संहिता में म्लेच्छों के आर्ष संस्कार का विधान आया है। महात्मा हारीत से लेकर ऋषि दयानंद इत्यादि ने अपनी-अपनी संज्ञाओं, अपने-अपने विशेषणों से युक्त भारतीयकरण का सन्देश दिया है। अत: भारतीयता अथवा हिंदुत्व क्या है ? इसके सूत्र क्या हैं? किस मायने में वह अन्यों से भिन्न है यह विचार करना आवश्यक है। अपनी चिंतन-धारा, जीवन-शैली के अनुरूप दूसरे सोचें, जियें ये सामान्य इच्छा है। इसके मूल में अपने को सही मानने और दूसरों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने-परखने और उनमें बदलाव का भाव रहता है। कुछ अथोंर् में ये आवश्यक भी है। ऐसा न हो तो समाज कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता।
हर व्यक्ति और समाज के नियंताओं की अपने-अपने परिवेश के अनुकूल समझ होती है और उसी के अनुरूप वे समाज को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। अब ये कैसे तय किया जाये कौन सी समझ उपयुक्त है? किससे समाज का भला होगा? आदिम कबीलों से शक्ति को नमन की व्यवस्था चली आई है। यही राजतन्त्रों में बदली। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी भी व्यवस्था में सबके लिए समान न्याय-व्यवस्था और त्रुटिपूर्ण होने पर व्यवस्था चलाने वाले व्यक्ति को बदल पाने की व्यवस्था आवश्यक है अन्यथा व्यक्ति के कारण संस्थान भ्रष्ट हो सकते हैं। जैसा भारत के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों के कारण हुआ। राजनैतिक सत्ता में बदलाव की पुष्ट व्यवस्था होने के बावजूद देश की खंडित स्वतंत्रता का हस्तांतरण स्वाभाविक रूप से कांग्रेस को होने, गांधी जी का वरदहस्त नेहरू जी पर होने, नेहरू जी का वरदहस्त इंदिरा जी पर होने, छल-कपट और कुटिल नीति में निपुणता, संस्थानों पर उनके नियंत्रण के कारण व्यक्तियों, समूहों को उपकृत कर पाने की उनकी अबाध क्षमता, प्रेस की अपेक्षा कम महत्ता होने, इत्यादि कारणों ने इन लोगों की सत्ता पक्की की। जिसका परिणाम भारत की परंपरागत प्रणाली के भ्रष्ट होने, ध्वस्त होने में हुआ।
भारतीयता अथवा हिंदुत्व एक विशिष्ट चिंतन-प्रणाली और उससे उपजी जीवन-शैली है। स्थूल रूप से कहा जाये तो शांतिपूर्ण सहजीवन, हर व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन का अधिकार, जब तक वह समाज को भयानक रूप से आहत नहीं करता जीवन का अधिकार, स्त्रियों का सम्मान जैसी बातें उसका सामान्य विश्वास हैं और इसी के अनुरूप हम संसार में जाने भी जाते हैं। उसका लक्ष्य समाज की अजस्र धारा के प्रवाह को सुचारु रखना ही होता है। हिंदुत्व अथवा भारतीयता सेमेटिक मजहबों की तरह सर्वभक्षी नहीं है। हमारा आग्रह कभी भी अन्यों को अपने अनुरूप बदलने का नहीं रहा है। तो फिर इस बात पर इतना कोलाहल और हाहाकार क्यों? रोज ही अखबारों में इस सामान्य बात पर मरकट-नृत्य हो रहा है या उसका दिखावा किया जा रहा है।
बेतुकी बात यह है कि ऐसा सेमेटिक मजहबों के व्यक्ति या समूह नहीं कर रहे जो हमारी चिंतन-प्रणाली के विपरीत सोचते और जीते हैं। जो संसार भर में मूर्तिपूजक, प्रकृति-पूजक लोगों को पेगन और काफिर ठहराकर उन्हें कत्ल किये जाने योग्य मानते हैं। जो स्त्री-अधिकार की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं। एक बूढ़ी औरत शाहबानो को कोर्ट द्वारा उसके पति को गुजारा-भत्ता दिए जाने के आदेश को लेकर हंगामा खड़ा कर देते हैं। ये ताता-थैया वे कर रहे हैं जो हिन्दू हैं। ये एक राष्ट्र के मूल अधिकार को विवाद बनाकर उसे हवा दे रहे हैं। सेमेटिक मजहबी विश्वास के लोगों से अपने हित साधने-सधवाने के अलावा इस बहस का कोई मतलब नहीं है। इनका लक्ष्य केवल मात्र सेमेटिक मजहब के लोगों तक यह जाहिर करना है कि हम आपकी बेतुकी बातों के पक्ष में खड़े हैं और आगामी चुनाव में आप हमें वोट देना।
मुझे इस गैंग के लीडरों में से एक कुलदीप नैयर से एक भेंट का स्मरण आता है। वे अपनी धुन में इसी तरह अनर्गल बोल रहे थे। प्रश्न उठा कि 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो आपकी आयु क्या थी। उन्होंने बताया 17 वर्ष। भारत के तत्कालीन भाग और बाद में पाकिस्तान बने उस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा, आर्यसमाज की स्थिति क्या थी। उनका उत्तर था ये सब बहुत सशक्त थे। बड़ी संख्या में शाखाएं लगती थीं। आर्य समाज के धर्मप्रचारक मुसलमानों से शास्त्रार्थ करते थे। हिन्दू महासभा के नेताओं की बड़ी-बड़ी सभाएं होती थीं। अगला प्रश्न था कि आप क्या तब भी सर्वधर्म सम्भाव में विश्वास करते थे। उन्होंने उत्तर दिया 'ये तब भी मेरे लिए जीवन-मरण का प्रश्न था'। अब उन्हें अवाक और स्तब्ध कर देने वाला प्रश्न आया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा, आर्यसमाज के लोगों का अन्य हिन्दुओं के साथ कटे-फटे भारत की शरण में आना स्वाभाविक था मगर आप अपने सर्वधर्म समभाव के साथ वहां क्यों नहीं रुके?
हमें चमन, बटन, खरीदना, पैसा, पीपा, बाजार, चादर, तकिया, शाल, दुशाला, पाजामा, कालीन, कोट, पैंट, सब्जी जैसे अनगिनत शब्दों से कोई विरोध नहीं है। विरोध राष्ट्र के प्रवाह को अवरुद्घ कर देने वाले चिंतन, उसका प्रयास करने वाले हिंसक समूहों से रहा था, है और रहेगा। ये स्पेन, चीन, इस्रायल का ही नहीं हमारा भी अधिकार है, इसके सतत् प्रयास बहस की शक्ल में, इसे कार्य रूप में परिणत करने से हमें कोई नहीं रोक सकता। ये हमारे राष्ट्र का जन्मसिद्घ अधिकार है। इसको प्राप्त करने के लिए हम हर तरह की बातचीत, संघर्ष के लिए सन्नद्घ थे, हैं और रहेंगे। -तुफैल चतुर्वेदी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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