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भारत देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। देश को स्वतंत्रता दिलाने में हिन्दी भाषा की भी प्रमुख भूमिका थी। देश को स्वतंत्र हुए 60 दशक से अधिक हो गए हैं परन्तु् देश और इस देश की जनता का यह दुर्भाग्य है कि उसकी अभी तक कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है जिस पर वह गर्व कर सके जबकि आज हम स्वतंत्रता दिवस की 68वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। कहा जाता है कि देश के न्यायालयों से न्याय मिलता है लेकिन यह भी सच है कि देश के न्यायालय द्वारा निर्णय अभी भी देश की जनता की भाषा (अर्थात् हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाएं) में नहीं दिए जा रहे हैं, जो देश की जनता के साथ छलावा है। देश के न्यायालय अंग्रेज काल से लेकर आज तक धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं जबकि संविधान में कहा गया है कि हिन्दी भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग करते हुए धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को कम किया जाए लेकिन स्वतंत्रता के इतने वषोंर् बाद भी आज हम भाषायी दृष्टि से गुलाम ही हैं। रूस, जर्मनी, चीन, फ्रांस इत्यादि देश आज अपना सरकारी कामकाज अपनी-अपनी भाषा में करते हैं और पूरी तरह से विकसित हैं। ये देश अपनी भाषा के प्रति बहुत संवेदनशील हैं जबकि भारत देश में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिलता। विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी भाषा को तीसरा स्थान प्राप्त है और विश्व में हिन्दी भाषा बोलने वाले 500 से 600 मिलियन लोग हैं। किसी भी देश को एकता के सूत्र में बांधे रखने में एक भाषा की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
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संविधान के अनुच्छेद 120, 210 और 343 से अनुच्छेद 351 तक के अंतर्गत हिन्दी भाषा को लेकर सांविधिक प्रावधान किए गए तत्पश्चात राष्ट्रपति आदेश, राजभाषा अधिनियम, राजभाषा नियम आदि जारी किए गए एवं राजभाषा हिन्दी के कार्यान्वयन की मॉनिटरिंग करने हेतु कई समितियां जैसे केंद्रीय हिन्दी समिति, हिन्दी सलाहकार समिति, संसदीय राजभाषा समिति, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजभाषा कार्यान्वयन समिति इत्यादि बनाई गईं ताकि हिन्दी भाषा का उत्थान हो सके और पूरा देश भाषा रूपी एकता के सूत्र में बंध सके। वर्तमान में राजभाषा हिन्दी के कार्यान्वयन से संबंधित सभी कार्य गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग देखता है। सरकार संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज में राजभाषा हिन्दी का कार्यान्वयन कराने के लिए जनता से टैक्स के रूप में करोड़ों-अरबों रुपए पानी की तरह बहा रही है और परिणाम वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति है। इससे सिद्घ होता है कि देश की सरकारें, उच्च पदस्थ अधिकारीगण, जनता का कुछ भाग यह नहीं चाहते हैं कि देश का शासन जनता की भाषा (अर्थात हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाएं) में हो क्योंाकि यदि शासन न्यायालय का सारा कामकाज जनता की भाषा (अर्थात हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाएं) में होने लगेगा तो सरकार एवं उच्च पदस्थ अधिकारीगण की योजनाओं-नीतियों को जनता आसानी से समझ लेगी और उस पर जनता आसानी से प्रतिक्रिया दे देगी, साथ ही तर्क-वितर्क भी करने में सक्षम होगी। इससे बचने के लिए आज तक सरकारें व न्यायालय अपना सारा कामकाज बेधड़क अंग्रेजी भाषा में करते हैं जिससे जनता आसानी से न समझ सके। सर्वे के दौरान अब यह भी बात मालूम हो चुकी है कि देश में अच्छी अंग्रेजी बोलने, लिखने एवं पढ़ने वालों की संख्या बहुत ही कम है या कहा जा सकता है कि देश में हिन्दी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वाली जनसंख्या का प्रतिशत काफी है। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि हिन्दी अपने ही घर में पराई हो गई और सरकार सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को हिन्दी में सरकारी कार्य करने के लिए केवल प्रोत्साहन प्रशिक्षण देकर अपनी जिम्मेदारी से बच रही है, साथ ही सरकारी कार्यालय संविधान, राष्ट्रपति आदेश, राजभाषा अधिनियम, राजभाषा नियम इत्यादि का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं उन पर कोई दंड नहीं लगाया जाता है। जब तक सरकार हिन्दी भाषा को लेकर ठोस योजना बनाने के साथ-साथ दंड का प्रावधान नहीं करती तब तक हिन्दी को उचित स्थान प्राप्त नहीं होगा और करोड़ों-अरबों रुपए की ऐसे ही बर्बादी होती रहेगी जो देश की जनता के कल्याण हेतु खर्च की जा सकती थी।
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हिन्दी को अपने ही घर में संघर्ष करना पड़ रहा है कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने इसको राजनीतिक मुद्दा बना दिया है और वे बिलकुल नहीं चाहते हैं कि पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश की जनता भाषायी दृष्टि से एकता के सूत्र में बंधे तथा भारत देश की हिन्दी भाषा को राजकीयभाषा, राजभाषा से बढ़कर राष्ट्रभाषा बनाया जा सके जो देश और देश की जनता का गौरव बन सके। यह भी एक दिलचस्प बात है कि जनता से वोट तो मांगे जाते हैं हिन्दी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं में लेकिन सरकार बनाने के बाद सत्तापक्ष शासन देश की भाषा में न करके अंग्रेजी भाषा की तरफदारी करते हैं जो अन्याय है। इसी प्रकार हिन्दी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं के कारण फिल्मी अभिनेताओं को सफलता व प्रसिद्घि मिलती है लेकिन वे इंटरव्यू अंग्रेजी भाषा में देते हैं, इससे वे क्या सिद्घ करना चाहते हैं? यदि इनको अंग्रेजी भाषा से इतना लगाव है तो उसी भाषा में फिल्म बनाएं फिर देखिए उनकी सफलता व प्रसिद्घि का ग्राफ क्या होता है यह तो वही कहावत चरितार्थ होती है कि खाएं हिन्दी की और गावें अंग्रेजी की। ठीक ऐसे ही देश के कुछ खिलाड़ी भी करते हैं। इन सभी को तो अपना साक्षात्कार हिन्दी भाषा में देने में गौरव महसूस करना चाहिए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए तीन प्रमुख बातें कही थीं-
1. किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता है।
2. कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती है।
3. भारत के हित में, भारत को शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो आत्मां को पहचाने, जिसे आत्म विश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी अपनानी चाहिए।
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तत्पश्चात संविधान ने 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी भाषा को संघ की राजभाषा (लिपि-देवनागरी एवं अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय) के रूप में स्वीकार किया था, इसलिए भारत देश में प्रतिवर्ष सितंबर महीने की 14 तारीख को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है और विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयांे, शिक्षा संस्थाओं इत्यादि में विविध संगोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। परंतु दु:ख इस बात का है कि ये सभी आयोजन केवल औपचारिकता मात्र बनते जा रहे हैं और जनता की गाढ़ी कमाई इस पर खर्च की जा रही है जो जनता के कल्यांण पर खर्च की जा सकती थी। हिन्दी भाषा अपने आप में एक समर्थ भाषा है। प्रकृति से यह उदार, ग्रहणशील, सहिष्णु और भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका है। ध्वन्यात्मकता, वैज्ञानिकता एवं अक्षरात्मकता का गुण हिन्दी भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। ध्वन्यात्मकता गुण के कारण हिन्दी भाषा को जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता और जैसा लिखा जाता है वैसा ही पढ़ा जाता है। जबकि अंग्रेजी में इस प्रकार की कोई विशेषता नहीं है। इसलिए हिन्दी भाषा को आसानी से सीखा जा सकता है। यदि अंग्रेजी का इतिहास देखें तो हम पाते हैं कि श्री जोन्स द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक 'टर्म्स आफ दि इंगलिश लैंग्वेज' के अनुसार सन् 1650 तक अंग्रेजी इंग्लैंड की राजभाषा नहीं थी। अंग्रेजों की मातृभाषा अंग्रेजी होने के बावजूद वहां फ्रेंच एवं लैटिन का बोलबाला था। वस्तुत: 1066 में नार्मन्स के आधिपत्य के बाद इंग्लैंड में शासन का सारा कार्य फ्रेंच एवं लैटिन में होता था क्योंकि नार्मन्स की अपनी भाषा फ्रेंच थी। शासन एवं न्यायालयों की भाषा फ्रेंच थी। कानून फ्रेंच में बनते थे। उच्च शिक्षा का माध्यम लैटिन थी। अंग्रेजी को 1 जनवरी 1363 से प्रशासन की आधिकारिक भाषा बनाया गया था इसके बावजूद इंग्लैंड के वकील, डॉक्टर, नेता आदि लोग फ्रेंच और लैटिन का प्रयोग करते थे और उनका तर्क था कि अंग्रेजी इस लायक नहीं कि चिकित्सा एवं अभियांत्रिकी की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से की जाए। अंग्रेजी को बैरक-लैंग्वेज कहा जाने लगा था। अंग्रेज लोग अंग्रेजी में बात करना पसंद नहीं करते थे। अंग्रेजी की वकालत करने वाले को गंवार समझा जाता था। बाद में अंग्रेजों ने अपने भीतर राष्ट्र प्रेम तथा स्वाभिमान को उद्वेलित किया और उच्च वर्ग का दृष्टिकोण भी अंग्रेजी के प्रति अनुकूल हो गया। इंग्लैंड की संसद में सन् 1650 को एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया जिसमें फ्रेंच एवं लैटिन को गुलामी का सबूत कहा गया। ब्रिटेन की संसद ने 22 नवंबर 1650 को निर्णय लिया कि 1 जनवरी 1651 से इंग्लैंड में फ्रेंच एवं लैटिन भाषा में शासकीय या गैर शासकीय कामकाज नहीं होगा और उनकी जगह अंग्रेजी प्रयोग की जाएगी। सरकार ने 38 दिनों के भीतर सारी व्यावस्था कर ली और इस प्रकार अंग्रेजी इंग्लैंड की राष्ट्रभाषा बन गई। कहने का तात्पर्य है कि राष्ट्र प्रेमी अंग्रेजों ने अपने दृढ़ संकल्प से दो विदेशी भाषाओं को देश से बाहर निकाल फेंका तो भारत देश में राष्ट्रप्रेमी भारतीय हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बना पा रहे हैं?
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हिन्दी भाषा के पक्ष में कई विद्वानों जैसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने अपने-अपने मत दिए हैं। फिर ऐसे कौन-से कारण हैं कि जिनकी वजह से आज राजभाषा हिन्दी की यह स्थिति हुई, इस पर चर्चा करने से पहले हम इस बात पर प्रकाश डालना चाहते हैं कि आज किस प्रकार एक सोची-समझी रणनीति के तहत भारत देश में हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति षड्यंत्र रचा जा रहा है। यदि हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि भारत देश में हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में कमी आई है जबकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में इजाफा हुआ है ऐसा क्यों? ध्यान होगा कि जब अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा का भारत में सबसे पहले समर्थन किया था तो अंग्रेजी पढ़ने वालों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी। आज भी प्रत्येक सरकारी नौकरी में अंग्रेजी विषय का अनिवार्य प्रश्नपत्र होता है जिसमें उत्तीर्ण होना आवश्यक है लेकिन हिन्दी विषय का अनिवार्य प्रश्नपत्र क्यों नहीं होता? सरकार की नीतियों के कारण एवं उच्चपदस्थ अधिकारियों पर सरकारी कामकाज में हिन्दी भाषा के कार्यान्वयन को लेकर सरकार का अंकुश न होने के कारण ऐसा घटित हो रहा है। सरकार की नीतियों के कारण ही दिन-प्रतिदिन अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में इजाफा हो रहा है। मेरा मानना है कि यदि किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक है तो उस पर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने का बोझ क्यों डाला जाता है जबकि उसे हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई कराते हुए अंग्रेजी भाषा या अन्य किसी अंतरराष्ट्रीय भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा सकता था। विद्यार्थियों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए जबकि ऐसा बिलकुल नहीं हो रहा है और षड्यंत्र के तहत उन पर अंग्रेजी माध्यम जबरदस्ती थोपा जा रहा है जिससे विद्यार्थियों का आधा समय अंग्रेजी समझने में चला जाता है और उन्हें विषय को समझने में बहुत कम समय मिल पाता है। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा अब केवल रटने वाली शिक्षा हो गई है। आज भी भारत देश के कई विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से प्रदान की जाती है और स्वतंत्रता के इतने वषोंर् के बाद भी सरकार देश की जनता के लिए उच्च शिक्षा हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं में मुहैया नहीं करा पाई है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।
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अंग्रेजी भाषा को चालाकी से रोजगार से जोड़ दिया गया है इसलिए अंग्रेजी का कद घटने के बजाए बढ़ता जा रहा है हमलोग कितने हिन्दी दिवस, हिन्दी पखवाड़े मनाकर भी हिन्दी भाषा को उचित स्थान नहीं दिलवा सकते हैं। यदि हिन्दी भाषा को रोजगार से जोड़ दिया जाए तो शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इसे पढ़ना नहीं चाहेगा। अंग्रेजी का कद बढ़ने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि सरकार सारी योजनाएं-नीतियों को उच्च पदस्थ अधिकारियों से अंग्रेजी में तैयार करवाती है ताकि देश की जनता उनकी योजनाओं-नीतियों को आसानी से न समझ सके। बाद में बहुत कम समय में उनका हिन्दी अनुवाद कराया जाता है जिसे समझना कठिन होता है। एक धारणा है कि पहले किसी भाषा को कठिन बताओ और उस पर छींटाकशी करो साथ ही उसका प्रयोग कम करवा दो तो वह भाषा अपने आप मृत हो जाएगी। ठीक ऐसा ही हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हो रहा है।
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हमारा मानना है कि जब देश की जनता ने चुनकर संसद में भेजा है तो देश के लिए बनाई जाने वाली नीतियां-योजनाएं में हिन्दी भाषा में बनाई जाएं और बाद में अंग्रेजी में अनुवाद करवाया जाए अथवा अंग्रेजी में अनुवाद कराने की कोई जरूरत नहीं है। शुरुआत में थोड़ी दिक्कत होगी बाद में सब ठीक हो जाएगा। मेरा मानना है कि यदि रक्षा मंत्रालय का सारा कामकाज हिन्दी भाषा में किया जाए तो सोने पर सुहागा होगा क्योंकि हमारे देश के अधिकारी एवं सैनिक हिन्दी भाषा को आसानी से समझ सकेंगे और गोपनीयता बनी रहेगी जबकि दूसरे देशों के अधिकारियों एवं सैनिकों के लिए हिन्दी भाषा एक कूट भाषा होगी। आजकल मीडिया द्वारा हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों के भरपूर प्रयोग का प्रचलन जोरों पर है जिससे हिन्दी का काफी नुकसान हो रहा है और जो व्यक्ति हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करता है उसे योग्य माना जाता है जबकि दूसरी तरफ यदि कोई अंग्रेजी भाषा में हिन्दी के शब्दों को प्रयोग करता है तो उसे गंवार समझा जाता है ऐसा दोहरा मापदंड क्यों? यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि अंग्रेजी ही विद्वता का मापदंड होता तो अमरीका, ब्रिटेन आदि के सभी नागरिक विद्वान होते और वहां अन्यान्य देशों के प्रतिभाशाली व्यक्तियों की मांग बिलकुल नहीं होती। यह सत्य है कि सारी सृजनात्मकता व्यक्ति की मातृभाषा में ही हो सकती है तो फिर हम सभी अंग्रेजी के पीछे क्यों पड़े हैं? जिस प्रकार परिवार में किसी एक को मुखिया बनाना आवश्यक होता है ठीक उसी प्रकार भारतीय भाषाओं में हिन्दी भाषा को मुखिया बनाकर राष्ट्रभाषा बनाने का मार्ग प्रशस्त कर हम राष्ट्र प्रेमी बनें, जिससे भारत देश को राष्ट्रभाषा मिलेगी जो देश का गौरव होगा और जिस पर देश की जनता को गर्व होगा। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा की सेवा में अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिन्दी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था-
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान कै मिटै न हिय को शूल॥
और अंत में, भाषा अपनी और अपना देश, यही है गौरव का संदेश। – आनंद कुमार सोनी
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव (राजभाषा) हैं)
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