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प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुये सवाल खड़ा किया कि आखिर हमारे किसान आत्महत्या करने को मजबूर क्यों होते हैं? वे खेती अथवा बेटी के विवाह करने के दौरान जो ऋण लेते हैं उसे अदा क्यों नहीं कर पाते हैं? पिछले साठ वषार्ें में प्रत्येक सरकार ने कृषि में सुधार का संकल्प लिया है, किन्तु जमीनी स्तर पर सुधार नहीं दिखाई देता है, बल्कि किसानों की स्थिति बिगड़ती दिखाई देती है। जैसा कि आत्महत्या की बढ़ती संख्या से अनुमान लगाया जा सकता है। मूल कारण यह है कि सरकार का ध्यान कृषि उत्पादन में वृद्घि की ओर ज्यादा रहा है और मूल्यों में वृद्घि की ओर कम।
मान्यता है कि किसान 10 कुन्तल के स्थान पर 20 कुन्तल का उत्पादन करेगा तो उसकी स्थिति में सुधार आयेगा। किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है। विश्व जनसंख्या में विशेष वृद्घि नहीं हो रही है, जिसके कारण खाद्य पदाथार्ें की मांग ढीली है। अमीर देशों में जनसंख्या लगभग स्थिर है। अमरीका में कृषि उत्पादों जैसे चावल, चाय और कॉफी की खपत नहीं बढ़ रही है। इन्हीं देशों के पास क्रय शक्ति है। ऐसी स्थिति में उत्पादन में वृद्घि निष्फल हो जाती है।
विश्व बाजार में गेहूं, चीनी, चाय और कॉफी की आपूर्ति निरन्तर बढ़ रही है परन्तु मांग पूर्ववत् बनी हुई है, फलस्वरूप मूल्यों में गिरावट आ रही है। हमारा किसान उत्पादन अधिक करता है फिर भी उसकी आय घटती जाती है। पहले वह 100 किलो गेहूं 8 रुपए की दर से बेच रहा था। अब उसे 200 किलो गेहूं 6 रुपए किलो. की दर से बेचना पड़ता है। अधिक उत्पादन में खाद पानी की लागत बढ़ जाती है और अन्तत: अधिक उत्पादन किसान के गले की घंटी बन जाता है। किसानों के लिये सरकार की एक सफल नीति समर्थन मूल्य की है। कृषि में गेहंू, धान एवं गन्ने की प्रमुखता है। इन फसलों के लिये सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर देती है। किसान आश्वस्त रहता है। वह अरबी, लोबिया, भिण्डी, जीरा, सौंफ, हल्दी, अदरक, पोपुलर, गुलाब, ग्लाईडोली आदि कम उगाना चाहता है चूंकि इन फसलों के मूल्यों में अनिश्चितता रहती है। लेकिन अधिक आय की संभावना इन्हीं फसलों में है। गुलाब के फूल की मांग गेहूूं की तरह सीमित नहीं है। मंदिर में जितने गुलाब के फूल चढ़ाये जाएं उतने ही कम हैं। अत: सरकार को चाहिये कि उन तमाम फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दे, जिनमें मांग के उत्तरोत्तर बढ़ने की संभावना है।
ऐसा करने से किसान को विभिन्न फसलों के उत्पादन में रुचि बनेगी। वह न्यूनतम मूल्य से आश्वस्त रहेगा और बाजार मूल्य के बढ़ने पर लाभान्वित हो सकेगा। सरकार की दूसरी नीति कृषि क्षेत्र में वैश्विक मुक्त बाजार को अपनाने की है। मान्यता है कि अमीर देशों के बाजार खुलने से हमारे उत्पादों की मांग बढ़ेगी। यह बात सही है, किन्तु इससे कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्घि होना जरूरी नहीं है। कारण यह कि विश्व बाजार केवल हमारे लिये नहीं बल्कि दूसरे आपूर्तिकर्ता देशों के लिये भी साथ-साथ खुल जाता है- जैसे वियतनाम ने कॉफी और काली मिर्च के बाजार में प्रवेश कर लिया है। इससे माल की आपूर्ति बढ़ती है। मुक्त बाजार को अपनाने से मांग में जितनी वृद्घि होती है, उससे ज्यादा नुकसान दूसरे आपूर्तिकर्ताओं के बाजार में प्रवेश से होता है। इस परिस्थिति में सरकार को कार्टेल बनाने का रास्ता अपनाना चाहिये। अनेक कृषि उत्पादों में भारत प्रमुख खिलाड़ी है। दूसरे चुनिन्दा देशों के साथ मिलकर हम उत्पादों के मूल्य को विश्व बाजार में कृत्रिम रूप से बढ़ा सकते हैं, जैसे तेल उत्पादक देशों ने ओपेक बनाकर किया है। भारत और मलेशिया मिलकर विश्व में रबड़ का मूल्य बढ़ा सकते हैं। दोनों देशों की सरकार यदि एक ही दर से रबड़ पर निर्यात टैक्स लगा दे तो विश्व बाजार में मूल्य स्वत: बढ़ जायेंगे।
इसी प्रकार बंगलादेश के साथ जूट, श्रीलंका के साथ चाय एवं वियतनाम व ब्राजील के साथ मिलकर कॉफी के मूल्य बढ़ाये जा सकते हैं। ऐसा करने के लिये खुले बाजार के सिद्घान्त को त्यागना पड़ेगा और विश्व व्यापार संगठन के बाहर भी आना पड़ सकता है।
सरकार की कृषि नीति का तीसरा स्तम्भ ऋण का है। मान्यता है कि किसानो को सस्ता ऋण उपलब्ध होने से उनकी लागत कम आयेगी। परन्तु गांवों में प्रचुर मात्रा में पैसा पहले ही उपलब्ध है। हर ग्रामीण बैंक में जमा की तुलना में अग्रिम मात्र 15 फीसद के लगभग रहती है। खेती घाटे का सौदा होने के बावजूद किसान बचत करता है। उसके पास पैसा पड़ा है, परन्तु पैसा लगाने के लिये अवसर नहीं है। अत: 7-8 फीसद की दर पर वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करा देता है। किसानों के पढ़े लिखे लड़के बेरोजगार घूम रहे हैं क्योंकि पूंजी के लाभप्रद उपयोग के रास्ते उपलब्ध नहीं हैं। बैंकिंग व्यवस्था का प्रमुख कार्य गांव की पूंजी को चूसकर शहर पहुंचाना हो गया है।
ऋण में विस्तार कुएं में पानी डालने जैसा है। किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराने के कारण उद्योगों को दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज दर में वृद्घि की जाती है। इससे देश की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती है। कृषि ऋण के विस्तार के लिये आईआरडीपी जैसी योजनाओं में सब्सिडी दी जाती है,जिससे भ्रष्टाचार पनपता है। मुफ्त मिल रही सब्सीडी के लालच में किसान ऋण से दब जाता है और नुकसान खाता है। सरकार को केवल उन चुनिन्दा क्षेत्रों में ऋण में विस्तार करना चाहिये जिनमें आय की संभावना अधिक है, जैसे कोल्ड स्टोरेज अथवा ग्रीन हाउस के लिये। ऋण के विस्तार को ग्रामीण युवकों के कौशल विकास से भी जोड़ा जा सकता है। डेनमार्क द्वारा भारी मात्रा में ट्यूलिप पूरे विश्व को निर्यात् किए जाते हैं। सरकार को चाहिये कि इन हाइ-टेक कृषि उत्पादों को चिन्हित करे और देश के 10,000 युवा किसानों को इनके उत्पादन के प्रशिक्षण के साथ-साथ ऋण दे। तब कृषि लाभप्रद हो जायेगी और युवाओं की इस तरफ रुचि बढ़ेगी।
सरकार की नीति का चौथा बिन्दु कृषि में निजी एवं सरकारी निवेश बढ़ाने की है। यद्यपि मूल सोच सही है फिर भी संभल कर चलना पड़ेगा। कारण यह कि गलत निवेश साधारण किसान के लिये हानिकारक हो जाता हैै, जैसे हार्वेस्टर में निवेश करना खेत मजदूरों के लिये अभिशाप बन गया है। खेत मजदूर को सर्वाधिक आय कटाई के समय मिलती थी। हार्वेस्टर ने उससे यह रोजगार छीन लिया है। हार्वेस्टर का चरित्र ट्रैक्टर और ट्यूबवेल से भिन्न है। ट्यूबवेल से खेत मजदूर का सीधे रोजगार कम होता है परन्तु सिंचित खेती होने से जुताई, रोपाई, निराई आदि में रोजगार में वृद्घि होती है। ट्रैक्टर से अधिक क्षेत्रफल में जुताई, बुआई सम्भव हो जाती है, जिससे श्रम की मांग का विस्तार होता है। हार्वेस्टर से ऐसे रोजगार की वृद्घि नहीं होती। अत: हार्वेस्टर जैसे निवेश से किसान को लाभ नहीं होगा। निवेश के चरित्र पर पैनी नजर रखनी होगी। उन्हीं क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना चाहिये जिनसे कृषि में श्रम की मांग बढ़े।
कृषि में सरकारी निवेश की दिशा को ठीक से देखना चाहिये। नहर बनाकर गेहूं के उत्पादन में वृद्घि करने से लाभ नहीं होगा चूंकि गेहूं के दाम गिर रहे हैं। निवेश उन स्थानों पर सटीक बैठता है, जहां उच्च मूल्य के कृषि उत्पादों की मांग हो। उदाहरण के लिये जैविक कृषि उत्पादों जैसे अमरूद, काफी, गेहूं एवं चीनी की विश्व में मांग बढ़ रही है। सरकार हर जिले में जैविक कृषि उत्पादों को प्रमाण पत्र जारी करने के लिये प्रयोगशालाएं बना सकती है। टिशू कल्चर से उत्तम किस्म के केले का उत्पादन हो सकता है। निवेश इस प्रकार करना चाहिये जिससे उत्पादन मात्रा में वृद्घि कम और मूल्यों में वृद्घि अधिक हो।
सरकार की नीति का एक बिन्दु कृषि सब्सिडी में कटौती है। आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करना जरूरी है जिसके लिये सरकार के खर्चे को कम किया जा रहा है। राजनीतिक दबाव के कारण सरकार ने इस दिशा में विशेष सफलता नहीं हासिल की है परन्तु मंशा स्पष्ट है। यहां प्रश्न सब्सिडी की दिशा का है। तालाब, चैक डैम, कोल्ड स्टोरेज और छोटी फसलों को मूल्य समर्थन में सब्सिडी सार्थक है चूंकि इनकी मदद से किसान ऊंचे मूल्य वाली फसलों की ओर उन्मुख होता है। इसके विपरीत बिजली पर सब्सिडी देने से भूजल का अति दोहन होता है। हार्वेस्टर पर सब्सिडी देने से गरीब खेत मजदूर का रोजगार छिन जाता है। अत: प्रश्न सब्सिडी बढ़ाने का नहीं बल्कि सब्सिडी की सही दिशा निर्धरित करने का है।
सरकार की नीतियों में उपरोक्त सुधार करने से किसान को राहत अवश्य मिलेगी। फिर भी यात्रा कठिन रहेगी क्योंकि मूल समस्या कृषि उत्पादों की मांग में शिथिलता एवं आपूर्ति में वृद्घि से उत्पन्न हो रही है। इस समस्या का एक ही हल है कि उन फसलों के उत्पादन में वृद्घि की जाये जिनमें आने वाले समय में मांग बढ़ने की सम्भावना है जैसे गुलाब अथवा अन्य फूल, फल एवं जैविक खाद्यान्न। तब हमारा किसान देश का पेट भी भरेगा और युवा की कृषि के प्रति रुचि भी बढ़ेगी। -डॉ. भरत झुनझुनवाला
लेखक शीर्ष पर्यावरणविद् और वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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