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उमेन्द्र दत्त
अन्न, वैभव प्रदान करने वाली कृषि किसान को स्वाभिमानी बनाने वाली कृषि, स्वावलंबन और संप्रभुता की पर्याय मानी जाने वाली कृषि आज स्वयं संकट में है। एक तरफ लाखों किसान खेती छोड़ने पर विवश हो रहे हैं तो दूसरी तरफ लाखों किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों पर एक तरफ ऋण का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है,तो दूसरी तरफ उनकी बाजार पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। किसान की भोजन की थालियों से भोजन की विविधता और पौष्टिकता कम से कमतर होती जा रही है,तो दूसरी तरफ आम नागरिक के लिए मिलने वाले भोजन में धीरे-धीरे कीटनाशक की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह बहुत ही विचित्र स्थिति है कि विश्व को कृषि का सबसे पहला ग्रन्थ देने वाला देश और अपनी कृषि की सामर्थ्य के बलबूते सोने की चिडि़या बनने वाला देश विदेशी कृषि तंत्र के सामने नतमस्तक होता जा रहा है। जिस समाज के पास कम से कम दस हजार वर्षों की कृषि धरोहर हो वह देश दो सौ साल पहले तक खेती के तौर-तरीके न जानने वालों के सामने पराभूत सा होता दिखाई देता है। यह परिस्थिति उन सभी के लिए गहरे प्रश्नचिन्ह उत्पन्न करती है जो इस देश का स्वाभिमान ऊंचा रखते हैं और जिन्हें इस देश की मिट्टी और धरोहर से प्रेम है। प्रकृति का अधिकाधिक शोषण करके अन्न उपजाने का तंत्र हरित क्रान्ति के नाम से महिमामण्डित किया गया है। हरित क्रान्ति वस्तुत: भूमि पुत्र किसान के अपनी धरती माता से टूटते हुए संबंधों का अर्थाचार है। इसके केन्द्र में विवेकहीन दृष्टिकोण एवं प्राकृतिक संसाधनों के घोर शोषण तथा किसी भी प्रकार से ज्यादा उत्पादन करने का लालच और धन प्राप्ति है। यहीं से समूचा संकट उत्पन्न हुआ है। कृषि का अधिकाधिक भाग भोजन उत्पादन प्रणाली है और भोजन हमारे स्वास्थ्य का आधार है। इसलिए कृषि का सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से है।
जिस प्रकार से गत 50-100 वर्षों में हमने अपना भोजन उत्पन्न करना शुरू किया उसने हमारे स्वास्थ्य को तो ध्वस्त किया ही, पशु-पक्षियों एवं हमारे निकट रहने वाले जीव-जंतुओं का भी सर्वनाश किया है। खेत का जहर अन्न में और अन्न से वह जहर हमारे शरीर तक पहुंचा ही है। साथ ही वह मां के दूध में भी अपनी पैठ बना चुका है। इतना ही नहीं, वह तो मां के गर्भ में शिशु तक भी पहुंचा है। आज हम अन्न भण्डार कहे जाने वाले पंजाब में इसके दुष्परिणाम साफ देख सकते हैं। कैंसर से लेकर प्रजनन,स्वास्थ्य तक के संकट एवं तमाम रोग पंजाब की बड़ी जनसंख्या को घेरे हुए हैं। यह स्थिति सिर्फ पंजाब की ही नहीं है, कमोबेेश पूरे देश की है। जहां-जहां हरित क्रान्ति की तकनीकों पर हमने खेती करनी शुरू की,ऐसी विषम परिस्थिति में जो किसान जैविक खेती करने को आगे आए वे जीवन देने वाले ऋषि ही कहे जाएंगे। ये किसान न केवल धरती के सच्चे पुत्र हैं बल्कि साधक, विज्ञानी और सच्चे राष्ट्रभक्त भी हैं। बहुत से किसान समूचे सरकार तंत्र, जिसका बजट लाखों-करोड़ों रुपए का हो,लाखों वैज्ञानिक जिस तंत्र को चला रहे हों और तमाम सरकारें जिस तंत्र को लगातार आगे बढ़ाती जा रही हों, उलट जाकर अपने बलबूते अपने संकल्प से अपने ही पैसे और अपने ही परिश्रम से विष मुक्त खेती को आगे बढ़ा रहे हैं। अब समय है कि हम उनका अभिनंदन करें। प्राकृतिक खेती करने वाले ये किसान धरती को विष मुक्त कर रहे हैं,पानी को विष मुक्त कर रहे हैं, साथ ही असंख्य जीव-जंतुओं का पोषण भी कर रहे हैं और हमारी भावी पीढि़यों को स्वास्थ्य एवं पर्यावरण सुरक्षा प्रदान करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। वर्तमान सरकार से अपेक्षा है कि वे इनको यथायोग्य सम्मान देने के साथ-साथ उनके अनुभव,ज्ञान का राष्ट्रहित में कृषि की मुख्यधारा को जोड़ने का कार्य करेगी। इसी में भारत के किसानों का,समूचे भारतीयों का हित निहित है। विष मुक्त भोजन के तान्डव को देखकर अनेक किसान जहर वाली खेती छोड़कर जैविक कृषि की ओर अग्रसर हुए हैं।
देश में अनेक धार्मिक-सामाजिक एवं पर्यावरणीय आन्दोलन आज जैविक कृषि को आगे बढ़ा रहे हैं। इस संदर्भ में यह चर्चा करना भी महत्वपूर्ण होगा कि देश के अनेक नवयुवक, जिन्होंने देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की, विदेशों में बड़ी-कंपनियों से अच्छे वेतनों को ठुकराकर जैविक खेती करने वाले किसान बने हैं। इनमें इंजीनियर,पर्यावरण वैज्ञानिक से लेकर प्रबंधन की शिक्षा प्राप्त ऐसे युवा शामिल हैं, जो आज शहरों की चमक-दमक छोड़कर ठेठ गांवों में जैविक कृषि साधना कर रहे हैं।
लेखक पंजाब में जैविक खेती आन्दोलन की अग्रणी संस्था, खेती विरासत मिशन के कार्यकारी निदेशक हैं।
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