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1857 के हुतात्माओं की अस्थियां होंगी हरिद्वार में विसर्जित
282 निहत्थे सैनिकों को कुएं में दबाया गया था
अमृतसर के अजनाला से 157 वर्षों बाद 282 भारतीय सैनिकों की अस्थियां 24 अगस्त को हरिद्वार में ले जाकर धार्मिक विधि और पूरे सम्मान सहित विसर्जित की जाएंगी। 1857 में इन निहत्थे सैनिकों को ईस्ट इंडिया कंपनी का विरोध करने पर कुएं में दबवा दिया गया था। इससे पूर्व 23 अगस्त को अजनाला में एक बड़ा जुलूस गुरुद्वारा शहीदगंज कमेटी निकालेगी।
शहीदों का मामला उठाने वाले इतिहासकार सुरेन्द्र कोछड़ के अनुसार इसके लिए पतंजलि योग पीठ, श्री गंगा सभा पंजीकृत, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शांति कुंज आश्रम, शिवायत्न आश्रम, लोकेशधाम आश्रम, त्रिपुरा आश्रम, त्रिपुरा योग आश्रम आदि के विद्वानों-संतों की बैठक में यह निर्णय किया गया। इन अस्थियों को हरिद्वार में विसर्जन के लिए लेकर जाने से पूर्व शहीदों के सम्मान में 23 अगस्त को सुबह छ: बजे अजनाला में जुलूस निकाला जाएगा।
24 अगस्त को देव संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति व अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. प्रणव पंड्या के तत्वावधान में शहीद सैनिकों का तर्पण कराया जाएगा और फिर संतों की उपस्थिति में अस्थियों को कनखल ले जाया जाएगा। श्री गंगा सभा के अधिकारी व हरिद्वार के आम नागरिक हर की पैड़ी पर शहीदों को श्रद्धाञ्जलि भी देंगे। गौरतलब है कि पिछले काफी समय सिख पंथ के लोग इसकी मांग करते आ रहे थे। मार्च माह में अस्थियों को चुनने का कार्य भी किया गया था। – प्रतिनिधि
नाबालिगों का बढ़ता अपराध बना चिंता का विषय
देश जब 68वां स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहा था उसी दौरान छ: अगस्त को दिल्ली के मदनगीर में तीन नाबालिगों सहित 5 लोगों ने जिस प्रकार आपसी रंजिश के चलते दिनदहाड़े बाजार में 19 वर्षीय एक युवक की चाकुओं से गोद कर नृशंस हत्या कर दी। इस घटना ने सभी को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है। मदनगीर में कई आपराधिक गिरोह सक्रिय हैं और यह अपराधियों की 'नर्सरी' बन चुका है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि इन आपराधिक गिरोहों में मारपीट होना यहां सामान्य बात है। दिल्ली में नाबालिगों के हत्या जैसे संगीन अपराध में शामिल होने की यह पहली घटना नहीं है। नाबालिगों के हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन अपराधों में शामिल होने की सूची काफी लंबी है।
दिल्ली में नाबालिग बच्चों के को उजागर करने वाली यह घटना वर्तमान व्यवस्था पर कई प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। दिल्ली देश की राजधानी है जिस नाते, यहां होने वाली किसी भी घटना का पूरे देश पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है। दिल्ली विकास के सभी मानदंड़ों पर देश का, सबसे विकसित प्रदेश है। यहां शिक्षा का अधिकार कानून देश में सबसे पहले लागू किया गया। शिक्षा की सबसे अच्छी व्यवस्था दिल्ली में है। ये बच्चे खूंखार अपराधी कैसे बन गये? दिल्ली का मदनगीर इलाका नाबालिग अपराधियों की नर्सरी क्यों बन गया? इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है- बच्चों के माता-पिता, शिक्षक, समाज, पुलिस या हम सब? चिंता की बात यह है कि जिन हाथों में पुस्तक और कलम होनी चाहिये थी उन हाथों में चाकू और पिस्तौल किसने थमाये और क्यों? जिन बच्चों को देश का भविष्य बताया जाता है अगर ये बच्चे अपराधी होंगे तो देश का भविष्य कैसा होगा, इसकी परिकल्पना करते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इससे भी अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि जब सवार्ेच्च न्यायालय के न्यायाधीश अनिल दवे समाज में पनप रही इन हिंसक गतिविधियों के उपचार के रूप में बच्चों को पहली कक्षा से ही महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाने की आवश्यकता बताते हैं, जिससे वे जीवन जीने का तरीका सीख सकें, तो तथाकथित प्रगतिशील और पंथनिरपेक्ष खेमा, न्यायाधीश दवे की बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बजाय, इसे सिरे से ही नकारते हुए साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर देता है। क्या देश में पनप रही इन हिंसक गतिविधियों से केवल हिन्दू ही प्रभावित होते हैं? क्या मुसलमानों को इससे क्षति नहीं होती? प्रश्न यह है कि यह खेमा अपने बच्चों को क्या बनाना चाहता है? इसी संदर्भ में एक बात विशेषतौर पर ध्यान देने की है कि जब नक्सलियों द्वारा स्कूलों से बच्चों का अपहरण कर उनके हाथों में बम और बंदूक थमाने की खबरें छपती हैं तो यह खेमा चुप्पी साध लेता है और बच्चों के अधिकारों के नाम पर आये दिन धरने-प्रदर्शन कर सुर्खियां बटोरने वाले कथित समाजसेवियों के मुंह से तब एक भी शब्द नहीं फूटता, क्यों?
क्या प्रगतिशील और पंथनिरपेक्ष होने का मतलब इसी तरह बच्चों के हाथों में बम व बंदूक थामना है? क्या यह खेमा बच्चों को जीवन जीने की कला सिखाने के बजाय उन्हें मरने-मारने के तरीके सिखाना चाहता है और उन्हें जीवन की कौन सी राह पर चलाना चाहता है? कोई देश और समाज चाकू की नोक और पिस्तौल की गोली के बल पर विकास के रास्ते पर चलेगा या विनाश के गड्ढ़े में गिरेगा?
मदनगीर की घटना एक गम्भीर चेतावनी है। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के साथ ही कानून के रखवालों को भी इन सब प्रश्नों पर चिंतन-मनन करने की जरूरत है। अगर हम अभी भी नहीं चेते तो फिर बहुत देर हो जायेगी देश के हर गली-मुहल्ले में ऐसे गिरोह खड़े दिखाई देंगे। -डॉ़ रवीन्द्र अग्रवाल
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