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सत्ता इनका लक्ष्य है, सत्ताहित गठजोड़,
सत्ता खिसके हाथ से, नाता लेते तोड़।
सेवा कर पाते नहीं, सेवा कितनी दूर।
खड़ी लोमड़ी देखती, बहुत दूर अंगूर।
झूठ सांच कुछ भी नहीं, जब सत्ता है पास,
सत्ता ही बस सत्य है, और न है कुछ खास।
कभी किसी के साथ हैं, कभी किसी के हाथ,
कभी किसी के नाथ भी, कभी झुकाते माथ।
इनके कितने रंग हैं, गिरगिट खाता माता,
पहले कुछ, अब और कुछ, फिर बदलेंगे बात।
ना ना करते हां भरें, हां हां ना हो जाए,
स्वार्थ सिद्ध होता रहे, वैसा करें उपाय।
इनका अपना कुछ नहीं, अपने नहीं विचार,
ऊपर के आदेश से, चलता सब व्यवहार।
दल तो दल-दल तक रहे, देश हो गया दूर,
इसीलिए इस देश के, सपने चकनाचूर।
घोटालों का देश है, भारत यों बदनाम,
परहित में रत कौन है, सदा स्वार्थहित काम।
अपना काम न कर रहे, मांग रहे अधिकार,
ह्यमोहनह्ण ऐसे मनुज को, बार-बार धिक्कार
-मोहन उपाध्याय
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