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21 फरवरी,1952 का वह दिन, जब मजहब के नाम पर बने पाकिस्तान के दो-फाड़ होने की नींव रखी गई थी। इसी दिन अपनी मातृभाषा को उसका उचित हक दिलवाने के लिए ढाका विश्वविद्यालय के दर्जनों छात्रों को गोलियों से भून दिया गया था। दरअसल,बंगला बनाम उर्दू के बीच के संघर्ष का चरम था 21 फरवरी 1952 का मनहूस दिन। उस दिन पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को थोपने के विरोध में ढाका विश्वविद्यालय के बड़ी संख्या में छात्र शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे थे। उस दौरान न जाने क्यों,हथियारों से लैस पुलिसकर्मियों ने उन निहत्थे छात्रों पर गोलियां बरसानी चालू कर दी थीं।
यह खौफनाक हादसा ढाका विश्वविद्यालय परिसर के बिल्कुल बाहर हुआ। अपनी मातृभाषा को लेकर इस तरह के प्रेम और जज्बे की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। बंगला भाषा के चाहने वालों ने मारे गए छात्रों की स्मृति में स्मारक बनाने की कोशिश की तो उसे भी ध्वस्त कर दिया गया। इस घटना से समूचा पूर्वी पाकिस्तान सन्न रह गया। उसके बाद पाकिस्तान के शासक पूर्वी पाकिस्तान से प्रत्येक स्तर पर भेदभाव करने लगे। उसकी जब प्रतिक्रिया हुई तो जिन्ना और मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी धूल में मिल गई।
हालांकि पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) और देश के शेष भागों की आबादी लगभग समान थी, पर पूर्वी पाकिस्तान के साथ आर्थिक स्तर पर खुलकर भेदभाव होने लगा। नतीजा यह हुआ कि यह सारा हिस्सा विकास की दौड़ में कहीं दूर पीछे छूट गया। देश की सत्ता पर पश्चिम पाकिस्तान के नेता पहले से ही अपना अधिकार जमाए बैठे थे। दरअसल 21 फरवरी,1952 और 21 मार्च, 1948 के बीच गहरा संबंध है। भावी बंगलादेश के लिए 21 मार्च, 1948 का दिन मील का पत्थर साबित हुआ। उसी दिन मजहब के नाम पर बने देश के विभाजित होने की भूमिका लिख दी गई थी। यकीन मानिए इसे लिखा था खुद मोहम्मद अली जिन्ना ने। हो सकता है कि आप कहें कि जिन्ना ने तो भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र के निर्माण के लिए चले आंदोलन का नेतृत्व किया,इसलिए वे अपने हाथों से बनाए देश को क्यों विभाजित करेंगे। पर सच यही है।
जिन्ना 19 मार्च,1948 को ढाका पहुंचे। उनका वहां पर गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ। पूर्वी पाकिस्तान की जनता को उम्मीद थी कि वे उनके और उनके क्षेत्र के हक में कुछ अहम घोषणाएं करेंगे। जिन्ना ने 21 मार्च को ढाका के खचा-खच भरे रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। वहां पर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। उन्होंने अपने चिर-परिचित आदेशात्मक स्वर में कहा कि ह्यसिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इसे अलग तरीके से सोचते हैं वे मुसलमानों के लिए बने देश के शत्रु हैं।ह्ण पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से (जो अब बंगलादेश है) में उर्दू को थोपे जाने का विरोध हो ही रहा था,इस घोषणा के कारण निराशा की लहर दौड़ गई। वे जिनकी मातृभाषा बंगला थी, वे ठगा सा महसूस करने लगे। पर असहाय थे। जाहिर है कि उन्होंने पृथक मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का तो फैसला किया था, पर वे अपनी बंगला संस्कृति और भाषा से दूर जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। जिन्ना ने देश की राष्ट्रभाषा को लेकर जिस प्रकार की राय जाहिर की थी, उन्होंने ठीक वही राय अगले दिन यानी 24 मार्च,1948 को ढाका विश्वविद्यालय में हुए एक समारोह में जाहिर की। महत्वपूर्ण यह है कि जिन्ना की घोषणाओं का तीखा विरोध उनकी मौजदगी में ही हुआ। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी इस तरह की कल्पना भी नहीं की होगी।
ढाका से जाते-जाते उन्होंने अपने एक रेडियो साक्षात्कार में 28 मार्च को फिर कहा कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा तो उर्दू ही होगी और रहेगी। इस मामले पर किसी भी तरह की बहस या संवाद की कोई जगह नहीं है। पाकिस्तान के नेताओं द्वारा गैर-बंगलाभाषियों पर उर्दू को थोपने का विरोध हो ही रहा था, उस पर आग में घी डालने का काम जिन्ना ने कर दिया। जिन्ना के ढाका से कराची के लिए रवाना होने के फौरन बाद से पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को थोपने की कथित कोशिशों के विरोध में प्रदर्शन होने लगे।
आहत बंगलाभाषियों को राहत देने के इरादे से एक प्रस्ताव यह आया कि वे चाहें तो बंगला को अरबी लिपी में लिख सकते हैं। जैसे की उम्मीद थी, इस प्रस्ताव को स्वाभिमानी बंगलाभाषियों ने एक सिरे से खारिज कर दिया।
पाकिस्तान और उसके लिए संघर्ष करने वाली मुस्लिम लीग के इतिहास को खंगालने पर साफ हो जाएगा कि पार्टी के भीतर प्रस्तावित इस्लामिक राष्ट्र में भाषा के मसले पर खींचतान शुरू हो गई थी। मुस्लिम लीग के लखनऊ में 1937 में हुए एक सम्मेलन में तब पार्टी के बंगलाभाषी सदस्यों ने पृथक मुस्लिम राष्ट्र में गैर-उर्दू भाषियों पर उर्दू थोपने जाने की किसी भी चेष्टा का विरोध किया था। भारत का विभाजन होने के फलस्वरूप बंगाल भी दो हिस्सों में बंट गया। इसका हिन्दू बहुल इलाका भारत के साथ रहा जो पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना और पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया। वर्ष1955 में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया। पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की घोर उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई।
पाकिस्तानी सैन्यशासक याहया खां द्वारा वर्ष 1970 के संसदीय चुनावों में बहुमत प्राप्त करने के बाद भी आवामी लीग को सत्ता नहीं सौंपी , जिसके चलते बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की अगुआई में बंगलादेश का स्वाधीनता आंदोलन शरू हुआ था। बंगलादेश में लाखों बंगाली मारे गये तथा 1971 के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बंगलादेशी शरणार्थियों को भारत में शरण लेनी पड़ी। भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था,पर भारत को बंगलादेशियों के अनुरोध पर हस्तक्षेप करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप वर्ष 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्घ शुरू हुआ। बंगलादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ,जिसके ज्यादातर सदस्य बंगलादेश का बौद्घिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्घ पद्घति से की। पाकिस्तानी सेना ने अंतत: 16 दिसम्बर,1971 को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, लगभग 93 हजार पाकिस्तानी युद्घ बंदी बनाये गये,जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों में रखा गया ताकि वे बंगलादेशी क्रोध के शिकार न बनें। इस तरह बंगलादेश एक आजाद देश बना पर यहां पर यह याद रखना जरूरी है कि बंगला भाषा के हक में शुरू हुए आंदोलन ने आगे चलकर बेहद व्यापक रूप ले लिया। उससे तमाम दूसरे मुद्दे जुड़ते रहे जो अंतत: पाकिस्तान के दो फाड़ के कारण साबित हुए।
बहरहाल, अपनी भाषा को लेकर भावनात्मक रूप से जुड़े होने का आपको दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा। जिस तरह ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने जो बलिदान अपनी मातृभाषा को लेकर दिया वह उन सबको प्रेरणा देता रहेगा, जो अपनी भाषा से प्रेम करते हैं। उन्हीं मातृभाषा केशहीदों की याद में संयुक्त राष्ट्र ने 1986 में 21 फरवरी को प्रत्येक वर्ष मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया था।
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