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पाकिस्तान की जेल में एक और भारतीय कैदी किशोर भगवान की मौत से साफ है कि वहां पर भारतीय कैदियों के साथ अत्याचार हो रहे हैं। उन्हें मारा जा रहा है। बीते साल सरबजीत सिंह की मौत के बाद स्पष्ट था कि पाकिस्तान की जेलें हमारे नागरिकों की कब्रगाह बन गई हैं। सरबजीत सिंह लाहौर की जेल में तिल-तिल करके तब से मर रहा था जब से उसे अदालत ने बम धमाकों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए सजा-ए-मौत की सजा सुनाई थी। किशोर भगवान की मौत के बाद यह सवाल फिर अहम हो गया है कि वहां की जेलों में ना जाने कितने भारतीय मौत का इंतजार कर रहे हैं। उधर भारतीय कैदियों को दी जाने वाली बर्बर यातनाओं को सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इसके बावजूद हम पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं,और उधर से मिलती है वादाखिलाफी।
दरअसल, पुंछ में एलओसी पर भारतीय सैनिकों के सिर काटने के बाद भी पाकिस्तान अपनी हरकतों को जारी रखे हुए है। उसकी एक और नापाक हरकत तब सामने सामने आई जब कोट लखपत जेल में मारे गए भारतीय कैदी चमेल सिंह के शरीर से सारे अहम अंग गायब मिले थे। चमेल सिंह के शव का भारत में किए गए पोस्टमर्टम से इसका खुलासा हुआ था। उनके शरीर से दिल, किडनी और लिवर गायब मिले थे।
भारतीय कैदियों को लेकर पाकिस्तान का यह रवैया तब है, जब भारत ने पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा युद्धबंदियों को 1971 की जंग के बाद हुए शिमला समझौते के तहत अपने वतन जाने के लिए छोड़ दिया था, उसी पाकिस्तान ने भारत के 54 युद्धबंदियों को कभी नहीं रिहा किया। ये सभी भारतीय सेना के आला अफसर थे। मेजर अशोक सूरी ने 1971 की जंग में हिस्सा लिया था । 26 दिसंबर,1972 को फरीदाबाद निवासी अशोकर सूरी के पिता आऱए़सूरी को अपने पुत्र के हाथ से लिखा एक पत्र मिला। उसमें कहा गया था कि उनके साथ जेल में 20 भारतीय सेना के जवान और भी हैं। पत्र कराची से भेजा गया था। आरएस सूरी को बाद के सालों में यह भी मालूम चला कि उनके पुत्र को कराची से पूर्वोत्तर पाकिस्तान की किसी जेल में भेज दिया गया है। 5 जुलाई,1988 को एक भारतीय कैदी मुख्तार सिंह को पाकिस्तान ने रिहा किया। वह उसी जेल में था जिधर सरबजीत सिंह को मार डाला गया। उसने बताया था कि मेजर अशोक लखपत जेल में ही है।
बीते अनेक दशकों से उन भारतीय सेना के 54 अधिकारियों के माता-पिता,पत्नी,बच्चे और दूसरे करीबी संबंधियों की आंखें पथरा गई हैं अपने दिल के टुकड़ों का चेहरा देखने के लिए। पर उन्हें वापस भारत लाने की कहीं किसी ने ठोस कोशिश नहीं की। हां, भारत और पाकिस्तान की सरकारें सांकेतिक रूप से तो भरोसा देते रहीं कि 1971 के युद्धबंदियों को खोजा जाएगा पर हुआ कुछ भी नहीं।
4 सितंबर,1996 को राज्यसभा के दो सदस्यों ओ़पी़ कोहली और सतीश प्रधान ने तत्कालीन विदेश मंत्री आईके गुजराल से पूछा कि क्या सरकार को इस बाबत कोई जानकारी है कि पाकिस्तान की जेलों में भारतीय युद्घ बंदी हैं? गुजराल ने जवाब दिया कि पाकिस्तान के कब्जे में 54 भारतीय सैन्य अधिकारी हैं। उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि पाकिस्तान ने भारतीयों को रिहा करने के भारत के तमाम आग्रहों पर कभी गौर नहीं किया। गुजराल की छवि पाकिस्तान के मित्र की थी । वे बाद के दौर में देश के प्रधानमंत्री भी बने, पर उन 54 में से कोई भारतीय कैदी जेल से बाहर नहीं आ पाया। जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे तब उन्होंने भी एक बार वादा किया था कि चूंकि वे खुद सेना अधिकारी हैं, इसलिए वे कभी नहीं चाहेंगे कि कोई युद्घबंदी इस तरह से सड़े। पर वे 54 सैन्य अधिकारी लापता ही हो गए।
अब कैदियों के मसले पर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी चिंता जताई है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा कि भारतीय जेलों में सजा पूरी करने के बाद भी पाक के कैदी क्यों रह रहे हैं? न्यायालय ने कहा कि इन्हें जेलों में रखे रहना 'हमें पीड़ा देता है।' न्यायालय ने कहा कि जब दोनों देशों के नेता मिलंे तो इस तरह के मामलों पर शीर्ष स्तर पर प्राथमिकता के आधार पर विचार किया जाना चाहिए। बेशक, न्यायालय की पहल महत्वपूर्ण है। मानवीय आधार पर पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि भारत को भी उन एक-दूसरे के कैदियों को रिहा करके स्वदेश भेजने की व्यवस्था करनी होगी जिनकी सजा पूरी हो गई है। एक बात और। दोनों देशों के नागरिकों के साथ जेल में मानवीय व्यवहार भी होना चाहिए। प्रतिनिधि
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