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श्रीकृष्ण के अवतार कहे जाने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु का 1515 में वंृदावन की भूमि पर आगमन हुआ। यहंा की दशा देखकर उनका मन बहुत आहत हुआ। वापस बंगाल लौट कर उन्होंने अपने दो अत्यंत प्रिय शिष्यों श्री रूप गोस्वामी तथा श्री सनातन गोस्वामी को वृंदावन भेजा, ताकि वे राधा माधव से जुड़े तीर्थों का जीर्णोद्धार कर सकें और लुप्त वंृदावन फिर से अपने पौराणिक स्वरूप को प्राप्त कर पाए। चैतन्य के आदेश पर दोनों भाई वृंदावन धाम आ गए। इनके साथ श्री रघुनाथ गोस्वामी, श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी तथा श्री जीव गोस्वामी भी ब्रज आ पहुंचे। ये षड्गोस्वामी ही वंृदावन को फिर से प्रकट करने में सर्मथ हो पाए। उस काल में वंृदावन में जो सबसे पहला मंदिर स्थापित हुआ वह श्री राधा मदनमोहन जी का मंदिर था। इस मंदिर को श्री सनातन गोस्वामी ने स्थापित किया था। भगवान श्रीकृष्ण का जो स्वरूप यहंा स्थापित किया गया उसे चैतन्य महाप्रभु के ही भक्त श्री अद्वैताचार्य ने प्रकट किया था।
श्री सनातन गोस्वामी के इस विग्रह तक पहुंचने के पीछे एक प्रसंग का उल्लेख आता है वह इस प्रकार है कि श्री अद्वैताचार्य ने भगवान के इस विग्रह को मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को देखभाल के लिए सौंप दिया। बाद के वर्षों में जब श्री रूप गोस्वामी व श्री सनातन गोस्वामी मथुरा आए तो वे भिक्षा मंागते हुए उस चतुर्वेदी ब्राह्मण के घर पहुंचे। वहंा पहंुच कर उन्होंने देखा कि ब्राह्मण का पुत्र मदनमोहन जी की मूर्ति के साथ खेल रहा है। तब यह देख कर श्री सनातन गोस्वामी ने ब्राह्मण को बुलाकर डंाट लगाई और विधि-विधान से प्रभु की सेवा करने को कहा।
उसी रात्रि को जब श्री सनातन गोस्वामी निद्रा मग्न थे तो प्रभु उनके स्वप्न में आए। उन्होंने कहा कि चतुर्वेदी तो मेरा पुत्र की तरह लालन-पालन कर रहा था परन्तु अब वह तुम्हारे कहने के कारण मेरी औपचारिक पूजा करने लगा है, जो मुझे अच्छी नहीं लगी। इसी प्रकार मदनमोहन जी ब्राह्मण के भी स्वप्न में आए और उसे कहा कि तुम्हारे तो कई पुत्र हैं परन्तु सनातन गोस्वामी का एक भी नहीं। अत: मुझे तुम उन्हीं को सौंप दो। अगले दिन जब श्री सनातन गोस्वामी ब्राह्मण से माफी मांगने उसके घर आए तो ब्राह्मण ने उन्हें स्वप्न की बात बता कर भगवान के विग्रह को ले जाने को कहा। वे प्रभु को अपने साथ वंृदावन ले आए। भिक्षा मंागकर वे जो भी लाते उसी का भोग मुरलीधर को अर्पित कर देते। भगवान के विग्रह को उन्होंने यमुना जी के किनारे द्वादशदित्य नामक ऊंचे टीले पर एक पेड़ के नीचे स्थापित किया हुआ था। यह वही टीला था जहंा गोपाल कालिया नाग को पकड़ने के उपरंात आ कर लेट गए थे। इस टीले पर रहकर ही श्री सनातन गोस्वामी भगवान का कीर्तन, भजन व मनन किया करते थे।
एक दिन एक नमक का व्यापारी जो मुलतान का निवासी था, अपनी नौका में व्यापार के उद्देश्य से नदी के रास्ते आगरा जा रहा था। वंृदावन के निकट ही उसकी नाव रेत में फंस गई। तीन दिन के प्रयास पर भी नाव टस से मस नहीं हुई। रामदास कपूर नाम का यह व्यापारी बहुत निराश हुआ। अपनी परेशानी में वह किनारे पर आ कर बैठ गया। तभी एक सुंदर बालक उसके पास आया और उसे श्री सनातन गोस्वामी से सहायता मंागने को कहा। द्वादशदित्य टीले पर जाकर व्यापारी ने गोस्वामी को अपनी व्यथा बताई। तब गोस्वामी जी ने उसे भगवान मदनमोहन की प्रार्थना करने को कहा। व्यापारी ने पूरे मनोभाव से भगवान का अर्चन वंदन किया। ऐसा करते ही आश्चर्यजनक रूप से नौका रेत से मुक्त हो गई। व्यापारी प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ गया। कुछ दिनों के उपरंात वह अपने व्यवसाय में अच्छा मुनाफा कमा कर वंृदावन वापस आया। उसने श्री सनातन गोस्वामी से धन्यवाद स्वरूप धन लेने की प्रार्थना की। तब श्री सनातन गोस्वामी ने उसे वहंा एक मंदिर निर्माण करवाने के लिए कहा। अत: व्यापारी रामदास कपूर ने गोस्वामी जी की प्रेरणा से उसी द्वादशदित्य टीले पर भगवान मदनमोहन के लिए अति संुदर मंदिर का निर्माण करवाया। वहीं यमुना जी के किनारे पक्के घाट का भी निर्माण किया गया। लाल पत्थर से बना यह मंदिर दूर से ही दिखाई देता था। इसका वास्तुशिल्प भी आकर्षित करने वाला था। यह वंृदावन धाम का प्रथम मंदिर कहलाया। श्री सनातन गोस्वामी जीवनपंर्यत यहां भगवान श्री राधा मदनमोहन जी की सेवा करते रहे। 1558 में गोस्वामी जी समाधिस्थ हो गए। उन्हें मंदिर परिसर के साथ ही समाधि दी गई।
भाग्य की कैसी विडंबना 1670 में जब औरंगजेब ने मुगल सेना को वंृदावन विध्वंस के लिए भेजा तो मुगल सेना ने इस मंदिर को भी तोड़ा। परन्तु सेना के हमले से पहले ही श्री मदनमोहन जी के विग्रह को वंृदावन के अन्य प्रमुख विग्रहों के साथ राजस्थान में जयपुर भेज दिया गया। जहंा से जयपुर की राजकुमारी अपने विवाह के पश्चात् श्री मदनमोहन जी को करौली ले आई। आज भी प्रभु का यह रूप करौली नगर की शोभा बढ़ा रहा है। वंृदावन का मदनमोहन मंदिर आज भी खंडित अवस्था में है। परन्तु इसकी वास्तुकला आज भी दर्शनीय है। भारतीय पुरातत्व विभाग इसका संरक्षण कर रहा है। यहंा भगवान मदनमोहन का एक अन्य विग्रह सुशोभित है। पास ही श्री सनातन गोस्वामी की भजन कुटीर व समाधि भी विद्यमान है। औरंगजेब के आक्रमण के पश्चात् वंृदावन के गोस्वामियों ने नष्ट किये गए मंदिरों को फिर से नए भवनों में स्थापित किया। इसी प्रकार श्री राधा मदनमोहन जी मंदिर को पुरातन मंदिर के समीप ही दोबारा बनाया गया। यहंा प्रतिष्ठित मूर्ति भगवान की प्राचीन मूर्ति से बिल्कुल मिलती जुलती है। प्राचीन मंदिर के नीचे बना यमुना जी का वह घाट आज भी सुरक्षित है। हालंाकि यमुना जी मंदिर से लगभग 800 मीटर दूर चली गई हैं। वंृदावन आगमन पर इस भूमि के सबसे पहले व प्रमुख मंदिर का दर्शन अवश्य किया जाना चाहिए।
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