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तुम्हारी आंखों में
अभी खिलखिला रहा है
आस्था का अहर्निश अनुनाद
बाबा सुनो!
तुम अभी भी उतने ही प्रासंगिक हो
जितने कल थे
या शायद उससे भी अधिक।
गुजरे बरसों का हिसाब मत लगाओ
अंगुलियों के टपोरों पर
क्योंकि गणनाओं की
मोहताज नहीं होती है जिन्दगी।
हो सके तो जाओ
घर के पिछवाड़े लगाये बगीचे में
और देखो, कि कैक्टस में
खिला फूल देखकर
अब भी आता है तुम्हें प्रफुल्लित होना।
बाबा सुनो!
तुम्हारा उर्वर सौंदर्यबोध
बंजर नहीं हुआ है अभी
इसलिए छोड़ो-
यों कटी पतंग को देखकर
पत्थर हो जाने की आदत।
इस तरह दियासलाई की तीली से न शुरू होती है दुनिया
न खत्म होती है बीड़ी के अंतिम कश तक पहुंचते-पहुंचते।
चपचपाहट भरी चप्पलों के शोर से
कहीं बहुत आगे तक है लय का ललित संबोधन
और आसमान पर छाये धुएं के परे भी है ब्रह्माण्ड का विस्तार।
यों सिमटने की आदत छोड़ो बाबा!
क्योंकि अक्सर
सत्य नहीं होता है
सत्य का कोई सीमांकन
प्रासंगिक तो भूतहा पीपल भी नहीं होता गांव के बाहर का
फिर तुम तो झालर की गूंज के कवि हो।
नहीं बाबा, नहीं
दधीचि नहीं होते कभी
यों अप्रासंगिक हो जाने के लिए।
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