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'मैंने विभाजन को आखरी उपाय के रूप में उस समय स्वीकार किया, जब हम सब कुछ खो बैठते। देश विभाजन का एकमात्र उद्देश्य सामने रखकर मुस्लिम लीग के पांच सदस्यों ने स्वयं को अंतरिम सरकार के मंत्रियों के रूप में स्थापित कर लिया था…हमने तय किया कि यदि विभाजन होना ही है तो पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर ही होना चाहिए। …मि. जिन्ना ऐसा कुतरा हुआ पाकिस्तान नहीं चाहते थे, किंतु उन्हें वही स्वीकार करना पड़ा। मेरी अगली शर्त यह थी कि दो महीने के भीतर सत्ता का हस्तांतरण हो जाना चाहिए और इसी अवधि में संसद का एक ऐसा एक्ट पास कर देना चाहिए जिसमें गारंटी हो कि ब्रिटेन भारतीय रियासतों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस समस्या से हम खुद निबट लेंगे…ब्रिटिश प्रभुसत्ता का अंत हो ही जाना चाहिए।'
इन शब्दों में सरदार पटेल ने नवम्बर 1949 में संविधान सभा में देश विभाजन के निर्णय की पृष्ठभूमि बताई थी। इस निर्णय पर पहुंचने तक सरदार को कितने गहरे अन्तर्संघर्ष से गुजरना पड़ा, कितने सपनों को टूटते हुए, कितनी श्रद्धाओं और स्नेह संबंधों में दरार पड़ते हुए देखना पड़ा। यह कहानी अभी तक पूरी तरह प्रकाश में नहीं आयी है। विभाजन के रूप में सरदार ने भारत के अपने तब तक के राजनीतिक जीवन की पराजय स्वीकार की थी किंतु उस पराजय के कगार पर भारत को ले जाकर पटकने का दोष उन्हें बहुत ही दु:खी अंत:करण से गांधी जी के मथे मढ़ने के लिए विवश होना पड़ा। यह पटेल के जीवन का सबसे कष्टकर निष्कर्ष रहा।
गांधी जी का एकनिष्ठ अनुयायी
1917 में अपनी चमकती हुई बैरिस्टरी को ठोकर मारकर जब से वे गांधी जी के पीछे लगे, तब से ही उन्होंने एकनिष्ठ सेवक एवं शिष्य के रूप में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा एवं कार्यशक्ति को उनके चरणों में उड़ेल दिया। जिस मोर्चे पर गांधी जी ने उन्हें लगाया उस पर ही उन्होंने विजय प्राप्त करके दिखाया चाहे वह खेड़ा हो या बारदोली। अपनी प्रत्येक विजय का श्रेय उन्होंने गांधी जी को दिया और स्वयं को उनका एक अति तुच्छ और विनम्र सैनिक ही बताया। गांधी जी के नेतृत्व पर होने वाले प्रत्येक आक्रमण को उन्होंने अपने ऊपर झेला। चाहे वह उनके सगे भाई श्री विट्ठल भाई पटेल की ओर से आया हो, चाहे 1936 में नेहरू की ओर से अथवा 1938-39 में सुभाष बोस की ओर से। गांधी जी की महत्ता को बनाये रखने के लिए सरदार ने विरोध एवं अलोकप्रियता का गरलपान स्वयं किया। गांधी जी का संकेत मात्र होते ही उन्होंने बड़े से बड़े गौरव को ठोकर मार दी। 1929, 1936 और 1946 तीन बार कांग्रेस संगठन ने अपना अध्यक्ष पद उन्हें सौंपना चाहा किंतु तीनों बार गांधी जी की इच्छा का पालन करने मात्र के लिए सरदार ने उसे नेहरू जी को सौंप दिया। सरदार को पद से मोह नहीं था। उनका जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था। किंतु वे जानते थे कि नेहरू को पद का गौरव दिये बिना गांधी जी का अनुयायी बनाये रखना कठिन है। अत: उन्होंने सहर्ष त्याग का पथ अपनाया। किंतु जब नेहरू ने 1936 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दुरुपयोग गांधी जी के नेतृत्व को चुनौती देने के लिए करना चाहा तो सरदार ने तुरंत आगे बढ़कर नेहरू को यह अनुभव करा दिया कि कांग्रेस की अध्यक्षता उन्होंने (नेहरू ने) अर्जित नहीं की है अपितु वह उन्हें गांधी जी की कृपा से प्राप्त हुई है। 1950 के अध्यक्षीय चुनाव में प्रधानमंत्री पद से प्राप्त नेहरू की पूरी शक्ति के विरुद्ध राजर्षि टंडन को विजयी बनाकर सरदार ने यह प्रमाणित कर दिया कि उनके जीते जी कांग्रेस संगठन पर उनके नियंत्रण को चुनौती देना संभव नहीं है।
किंतु सरदार गांधी जी के अंधानुयायी नहीं थे। उन्होंने किसी भावुक आवेश में आकर गांधी जी को अपना नेता स्वीकार नहीं कर लिया था। वे एक प्रखर देशभक्त थे। उनकी प्रखर देशभक्ति में से ही वह कठोर अनुशासन भाव जन्मा था जिसे लोगों ने अंधभक्ति कहा। वे कर्मयोगी थे, जो शब्दों में कम से कम में अधिक आस्था रखते थे। गांधी जी को नेता मानने के पीछे भी उनका यही भाव था। क्योंकि गांधी जी ने जो कुछ कहा उसे आचरण में उतारने का प्रयत्न भी किया, उन्होंने प्रस्तावों और भाषणों से आगे बढ़कर देश के समक्ष सामूहिक कर्म का, त्याग का मार्ग खोला। राष्ट्रीय स्वातंत्र्य की आकांक्षा की पूर्ति के लिए सरदार उनके पीछे एकनिष्ठ अनुयायी के रूप में चल पड़े। किंतु वे घोर यथार्थवादी थे। गांधी जी की अहिंसा को उन्होंने महाशक्तिवान ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक निशस्त्र राष्ट्र की रणनीति से अधिक महत्व कदापि नहीं दिया। इसलिए जिस दिन उन्हें यह दिखायी दिया कि अहिंसा पर अत्यधिक आग्रह भारत की स्वाधीनता प्राप्ति के मार्ग में बाधक बन रहा है, हिंसा के बल पर संगठित मुस्लिम समाज भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं पर कुठाराघात कर सकता है, उन्होंने निर्भय होकर गांधी जी से अपनी मतभिन्नता को प्रगट कर दिया।
अहिंसा बनाम राष्ट्रवाद
गांधी जी से सरदार की मतभिन्नता सर्वप्रथम प्रकाश में आयी 1940 में। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्नों में भारत के सम्मिलित होने के प्रश्न पर कांग्रेस मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे चुके थे। किंतु अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्नों में उनमें कोई बाधा नहीं पड़ी। मुस्लिम समाज, जो विगत 2-3 वर्षों में मुस्लिम लीग और मि. जिन्ना के पीछे पूरी तरह संगठित हो चुका था, ने ब्रिटिश साम्राज्य के साथ गठबंधन स्थापित कर लिया था। राजगोपालाचार्य एवं सरदार जैसे यथार्थवादी नेताओं को स्पष्ट दिखायी देने लगा कि अंग्रेजों एवं मुस्लिम लीग का यह गठबंधन भारतीय राष्ट्रवाद के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। और कांग्रेस का असहयोग अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्नों में कोई रुकावट नहीं डाल पा रहा है। अत: उन्होंने यथार्थवादी रणनीति के रूप में इस गठबंधन को तोड़ने एवं अंग्रेजों से भारत की सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्नों में सहयोग करने का प्रस्ताव पारित करने का सुझाव रखा। गांधी जी ने अहिंसा के सिद्धांत को सामने रखकर उसका विरोध किया। अंत में सरदार ने कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा सर्वसम्मत से राजा जी का वह प्रस्ताव पारित करा दिया, जिसमें मित्र राष्ट्रों के युद्ध प्रयत्नों में सहयोग का सशर्त आश्वासन देते हुए गांधी जी को इस निर्णय के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया था।
इस प्रस्ताव से अपनी अप्रसन्नता को गांधी जी ने सार्वजनिक रूप में व्यक्त किया। 14 जुलाई 1940 के ह्यहरिजन सेवकह्ण में उन्होंने लिखा, 'भले ही इस समय सरदार और मैं अलग अलग मार्गों पर जाते दिखाई देते हों, परंतु इससे हमारे हृदय थोड़े ही अलग हो जाते हैं?'
कायरों को अहिंसा सिखाना व्यर्थ
पांच दिन बाद 19 जुलाई को गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सामने भाषण करते हुए सरदार ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा,ह्यबाहर के लोग अब तक मुझे बापू का अंधा अनुयायी कहते थे, मैं कहता था कि वैसा हो सकूं तो मुझे गर्व होगा। परंतु देखता हूं मैं वैसा नहीं हूं। मैं तो आज भी बापू से कहता हूं कि आप हमारा नेतृत्व करें तो हम आपके पीछे-पीछे चलेंगे। परंतु वे कहते हैं कि आंखें खोलकर अपनी बुद्धि के अनुसार चलो।'
सरदार ने बड़े वेदनापूर्ण स्वरों में कहा 'हम घरबार बरबाद करके उनके साथ लगे हैं। जब यहां तक तैरते-तैरते आ गये हैं तो अब अंत में क्यों अलग हों? मगर यह तो अकल्पित स्थिति आ खड़ी हुई है। यह असंभव है कि उसका असर देश पर न पड़े।'
इस अकल्पित स्थिति को एवं अहिंसा के प्रश्न पर अपने मतभेद को स्पष्ट करते हुए उसी भाषण में सरदार ने बताया था कि, ह्यआज हमें यह निर्णय करना है कि हमें स्वतंत्रता मिल जाय, पूरी सत्ता मिल जाए, तो क्या हम सेना के बिना काम चला सकेंगे? अगर हम यह कहें कि हमारे पास हुकूमत आ जाएगी तो हम सेना को बिखेर देंगे, तब तो अंग्रेज कभी हमें सत्ता नहीं देंगे। ज्यादातर मुसलमान इसके खिलाफ हैं। कांग्रेस के बाहर के मुसलतान तो हिंसा पर कायम हैं।'
अहिंसा की अव्यावहारिकता को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, 'अब तक हमने अहिंसा के प्रयोग किये, यह ठीक किया। मगर लोगों में जो कायरता है वे जहां खड़े हैं, उससे आगे नहीं बढ़ सकते। उनका क्या किया जाए? जहां के तहां खड़े रहने का यह समय नहीं है। हमारे सामने चुनाव करने का समय आ गया है।'
'जो कायर है उसे अहिंसा क्या सिखाऊं? उनके पास मैं जो हलकी चीज रखता हूं उसे वह समझ सकता है। उसके सामने भारी वस्तु रखूं तो वह घबरा जाएगा इसलिए उसे साधारण आदमी के रास्ते पर लगाए तो वह लग सकता है। बाद में आगे बढ़ जाएगा।
भावनगर और अमदाबाद के दंगे
सरदार का यह निष्कर्ष प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित था। मई 1939में भावनगर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। उस समय मुस्लिम हिंसा के समक्ष हिन्दू कायरता को देखकर सरदार को बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने 16 मई 1939 को भावनगर में एक जनसभा में कहा, मैं कायरता का कट्टर विरोधी हूं। कायर मनुष्यों का साथ करने के लिए मैं कभी तैयार नहीं हो सकता। युग को पहचान कर आत्मरक्षा करना हमारा फर्ज है। यह समय ऐसा है कि चारों तरफ गुंडे घूमते हैं। अगर यह मानने का कारण देंगे कि हम कायर हैं, तो गुंडे निर्भय होकर घूमेंगे। यह अराजकता का वातावरण भावनगर में ही हो सो बात नहीं है। परंतु ऐसा वायुमंडल तमाम हिन्दुस्तान में है।…ह्ण
उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी ह्यपरिषद् के पहले दिन जो घटना हुई, वह देर गुजर कर दी जाय और भविष्य में वैसा ही होने का डर बना रहे तो साम्प्रदायिक एकता बहुत दूर चली जाएगी।' देवेन्द्र स्वरूप
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