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हमारे उपनिषद् कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हों, अन्यान्य जातियों के साथ तुलना में हम अपने पूर्वपुरुष ऋषिगणों पर कितना ही गर्व क्यों न करें,मैं तुम लोगों से स्पष्ट भाषा में कहे देता हूं कि हम दुर्बल हैं,अत्यन्त दुर्बल हैं। प्रथम तो है हमारी शारीरिक दुर्बलता। यह शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारे एक तिहाई दुखों का कारण है। हम आलसी हैं, हम कार्य नहीं कर सकते; हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते , हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं, हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं,ईर्ष्या करते हैं। हमारी इस समय ऐसी अवस्था है कि हम पूर्णरूप से असंगठित हैं,घोर स्वार्थी हो गए हैं। सैकड़ों शताब्दियों से इसलिए झगड़ते हैं कि तिलक इस तरह धारण करना चाहिए या उस तरह। अमुक व्यक्ति की नजर पड़ने से हमारा भोजन दूषित होगा या नहीं,ऐसी गुरुतर समस्याओं के ऊपर हम बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखते हैं। पिछली कई शताब्दियों से हमारा यही कारनामा रहा है। जिस जाति के मस्तिष्क की समस्त शक्ति ऐसी अपूर्व सुन्दर समस्याओं और गवेषणाओं में लगी है, उससे किसी उच्च कोटि की सफलता की क्या आशा की जाए! और क्या हमको अपने पर शर्म भी नहीं आती? हां कभी-कभी शर्मिन्दा होते भी हैं। यद्यपि हम उनकी निस्सारता को समझते हैं, पर उनका परित्याग नहीं कर पाते। हम अनेक बातें सोचते हैं, किन्तु उनके अनुसार कार्य नहीं कर सकते। इस प्रकार तोते के समान बातें करना हमारा अभ्यास हो गया है-आचरण में हम बहुत पिछडे़ हुए हैं। इसका कारण क्या है? शारीरिक दौर्बल्य। दुर्बल मस्तिष्क कुछ नहीं कर सकता, हमको अपने मस्तिष्क को बलवान बनाना होगा। प्रथम तो हमारे युवकों को बलवान बनना होगा। धर्म पीछे आयेगा। हे मेरे युवक बन्धु, तुम बलवान बनो-यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम्हें फुटबाल खेलने से स्वर्ग-सुख अधिक सुलभ होगा। मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर से अथवा मजबूत पुट्ठों से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे। शरीर में ताजा रक्त होने से तुम कृष्ण की महती प्रतिभा और महान् तेजस्विता को अच्छी तरह समझ सकोगे। जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ़ भाव से खड़ा होगा,तब तुम अपने को मनुष्य समझोगे। तब तुम उपनिषद् और आत्मा की महिमा भली भांति समझोगे। इस तरह वेदान्त को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार काम में लगाना होगा।
अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे। सभी लोग पूछते हैं, आपने समग्र संसार में भ्रमण करके क्या अनुभव प्राप्त किया? अंग्रेज लोग पापियों की बातें करते हैं, पर वास्तव में यदि सभी अंग्रेज अपने को पापी समझते, तो वे अफ्रीका के मध्य भाग के रहने वाले हब्शी जैसे हो जाते। ईश्वर की कृपा से इस बात पर वे विश्वास नहीं करते। इसके विपरीत अंग्रेज तो यह विश्वास करता है कि संसार के अधीश्वर होकर उसने जन्म धारण किया है। वह सब कुछ कर सकता है। यही बात मैं प्रत्येक जाति के भीतर देखता हूं। उनके पुरोहित लोग चाहे जो कुछ कहें, और वे कितने ही कुसंस्कारपूर्ण क्यों न हों, किन्तु उनके अभ्यन्तर का ब्रहाभाव लुप्त नहीं होता, उसका विकास अवश्य होता है। हम श्रद्घा खो बैठे हैं।
क्या तुम मेरे इस कथन पर विश्वास करोगे कि हम अंग्रेजों की अपेक्षा कम आत्मश्रद्घा रखते हैं-सहस्त्रगुण कम आत्मश्रद्घा रखते हैं? मैं साफ-साफ कह रहा हूं। बिना कहे दूसरा उपाय भी मैं नहींे देखता। तुम देखते नहीं?-अंग्रेज जब हमारे धर्मतत्व को कुछ-कुछ समझने लगते हैं तब वे मानो उसी को लेकर उन्मत्त हो जाते हैं। यद्यपि वे शासक हैं, तथापि अपने देशवासियों की हंसी और उपहास की उपेक्षा करके भारत में हमारे ही धर्म का प्रचार करने के लिए वे यहां आते हैं। तुम लोगों में से कितने ऐसे हैं, जो ऐसा काम कर सकते हैं? तुम क्यों ऐसा नहीं कर सकते? क्या तुम जानते नहीं, इसलिए नहीं कर सकते? उनकी अपेक्षा तुम अधिक ही जानते हो। इसी से तो ज्ञान के अनुसार तुम काम नहीं कर सकते। जितना जानने से कल्याण होगा उससे ज्यादा जानते हो,यही आफत है। तुम्हारा रक्त पानी जैसा हो गया है,मस्तिष्क मुर्दार और शरीर दुर्बल! इस शरीर को बदलना होगा। शारीरिक दुर्बलता ही सब अनिष्टों की जड़ है और कुछ नहीं। गत कई सदियों से तुम नाना प्रकार के सुधार,आदर्श आदि की बातें कर रहे हो और जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता नहीं मिलता। अत: तुम्हारे आचरणों से सारा संसार क्रमश: हताश हो रहा है और समाज सुधार का नाम तक समस्त संसार के उपहास की वस्तु हो गई है! इसका कारण क्या है? क्या तुम जानते नहीं हो? तुम अच्छी तरह जानते हो। ज्ञान की कमी तो तुम में है ही नहीं! सब अनथोंर् का मूल कारण यही है कि तुम दुर्बल हो,अत्यन्त दुर्बल हो; तुम्हारा शरीर दुर्बल है,मन दुर्बल है और अपने पर आत्मश्रद्घा भी बिल्कुल नहीं है। सैकड़ों सदियों से ऊंची जातियों,राजाओं और विदेशियों ने तुम्हारे ऊपर अत्याचार करके,तुमको चकनाचूर कर डाला है। भाइयो! तुम्हारे ही स्वजनों ने तुम्हारा सब बल हर लिया है। तुम इस समय मेरुदण्डहीन और पददलित कीड़ों के समान हो। इस समय तुमको शक्ति कौन देगा? मैं तुमसे कहता हूं, इसी समय हमको बल और वीर्य की आवश्यकता है। इस शक्ति को प्राप्त करने का पहला उपाय है-उपनिषदों पर विश्वास करना और यह विश्वास करना कि मैंं आत्मा हूं। मुझे न तो तलवार काट सकती है, और न बरक्षी छेद सकती है, न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, मैं सर्वशक्तिमान हूं,सर्वज्ञ हूं। इन आशाप्रद और परित्राणपद वाक्यों का सर्वदा उच्चारण करो। मत कहो- हम दुर्बल हैं। हम सब कुछ कर सकते हैं। हम क्या नहीं कर सकते? हमसे सब कुछ हो सकता है। हम सबके भीतर एक ही महिमामय आत्मा है। हमें इस पर विश्वास करना होगा। नचिकेता के समान श्रद्घाशील बनो। नचिकेता के पिता ने जब यज्ञ किया था,उसी समय नचिकेता के भीतर श्रद्घा का प्रवेश हुआ था। मेरी इच्छा है- तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्घा का आर्विभाव हो, तुममें से हर आदमी खड़ा होकर इशारे से संसार को हिला देने वाला प्रतिभा संपन्न महापुरुष हो, हर प्रकार से अनन्त ईश्वरतुल्य हो । मैं तुम लोगों को ऐसा ही देखना चाहता हूं।
मैंने तुम लोगों से उस दिन कहा था जो स्वयं वेदों के प्रकाशक हैं, उन्हीं श्रीकृष्ण के द्वारा वेदों की एकमात्र प्रामाणिक टीका,गीता, एक ही बार चिरकाल के लिए बनी है,यह सबके लिए और जीवन की सभी अवस्थाओं के लिए उपयोगी है। तुम कोई भी काम करो, तुम्हारे लिए वेदान्त की आवश्यकता है। वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार आवश्यक है। हर एक व्यक्ति, हर एक सन्तान चाहे जो काम करे, चाहे जिस अवस्था में हो-उनकी पुकार सबके लिए है। भय का अब कोई कारण नहीं है। उपनिषदों के सिद्घान्तों को मछुआरे आदि साधारण जन किस प्रकार काम में लायंेगे? इसका उपाय शास्त्रों में बताया गया है। मार्ग अनन्त है,धर्म अनन्त है, कोई इसकी सीमा के बाहर नहीं जा सकता। तुम निष्कपट भाव से जो कुछ करते हो तुम्हारे लिए वही अच्छा है। अत्यन्त छोटा कर्म भी यदि अच्छे भाव से किया जाए,तो उससे अद्भुत फल की प्राप्ति होती है।
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