|
सुन्नी-शिया का संघर्ष बहुत पुराना है। सच्चाई तो यह है कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद के तुरंत बाद जब खिलाफत का युग आया तो यह लड़ाई शुरू हो गई थी। सुन्नी आस्था के अनुसार एक के बाद एक चार खलीफा हुए। इनमें हजरत अली, जो पैगम्बर के दामाद भी थे, उनका नम्बर चौथा है। लेकिन मुस्लिमों के एक धड़े का यह कहना है कि पैगम्बर ने हजरत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इसलिए वे प्रथम इमाम हैं और उसके बाद उत्तराधिकारियों का सिलसिला शुरू हो गया। इन दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीरिया और सऊदी अरब एक दूसरे के आमने-सामने हैं। सीरिया का पक्षधर ईरान है, जो इस्लामी दुनिया की एक बड़ी ताकत है। वह शिया विश्व का नेता है। चूंकि अब ईरान परमाणु शक्ति से सम्पन्न है, इसलिए विश्व राजनीति में उसके हौसले बुलंद हैं। इस्लाम का इतिहास बतलाता है कि पिछले 1400 साल में यह संघर्ष किसी न किसी रूप में बना रहा है। भारत में भी शिया-सुन्नी संघर्ष उसी समय से चला आ रहा है, जब पाकिस्तान बना तो यह विरासत उसको भी मिली। लेकिन फिर भी एक बात तो स्पष्ट है कि दुनिया में सुन्नी मुसलमानों की जनसंख्या बहुत बड़ी है।
मुस्लिम आबादी में 60 से 65 प्रतिशत सुन्नी हैं, जबकि 35 से 40 प्रतिशत शिया हैं। इतिहासकारों का मत है कि सदियों से चली आने वाली अरब और अजम की लड़ाई ही बाद में शिया-सुन्नी में रूपांतरित हो गई। भारत में उत्तर प्रदेश का अवध शियाओं का गढ़ रहा। भारत में भी इसका प्रतिशत लगभग वही है जो विश्व में है। चूंकि सुन्नी साम्राज्य तेजी से बढ़ा इसलिए उनका वर्चस्व भी बढ़ता चला गया। लेकिन शियाओं का दबदबा भी अपने चमत्कार बतलाने में पीछे नहीं रहा। शिया-सुन्नी संघर्ष विरासत में भारत को भी मिला। आज कभी छिटपुट रूप से तो कभी इसका संगीन रूप समय-समय पर देखने को मिलता है। पिछले दिनों मोहर्रम पर कश्मीर की घाटी से शिया-सुन्नी टकराव के समाचार मिले हैं। इनमें दिल दहलाने वाली बात यह है कि सुन्नी सम्प्रदाय कश्मीरी पंडितों की तरह शिया समुदाय को भी वहां से निकाल देने को कटिबद्ध है। यह संघर्ष पहली बार नहीं हुआ है इसलिए भूतकाल में कश्मीरी पंडितों को जिस प्रकार घाटी से निकाल दिया गया कहीं ऐसा ही उनके साथ तो नहीं होगा, यह खतरा मंडराने लगा है?
घाटी का शिया समुदाय चिंतित है। वह देख रहा है कि भारत की केन्द्र सरकार और जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार ने ऐसा आज तक कुछ भी नहीं किया है जिससे कश्मीरी पंडितों के मन का भय दूर हो सके। उनको अपने घर लौटने की आस बांधे लम्बा समय हो गया है। उनके व्यवसाय और सम्पत्ति सभी नष्ट हो गए हैं। भारत के अन्य भागों में अपना कठोर जीवन व्यतीत करने वाला यह समुदाय अपने देश में ही पराया हो गया है। पंडितों को घाटी से निकालने का खेल एक विशेष षड्यंत्र के तहत खेला गया। अब तो कश्मीर में घुसपैठ कर रहे आतंकवादी इसे सुन्नी बहुल बना कर ही अपना दाव खेलना चाहते हैं।
भारतीय कश्मीर में बैठे उग्रवादी कल तक यह सोचते थे कि हमने एक बार यहां से हिन्दू पंडितों को बाहर निकाल दिया तो फिर उनके मार्ग में कोई बड़ा रोड़ा नहीं रह जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वे उन मुस्लिमों को भी वहां नहीं रहने देना चाहते हैं जिनमें राष्ट्रवाद की तनिक भी भावना है। इस रास्ते में उनका सबसे बड़ा रोड़ा वहां का शिया समुदाय है। शिया राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ पढ़े-लिखे हैं। सरकारी कार्यालयों में उनकी बड़ी संख्या काम करती है। इतना ही नहीं, कश्मीर में जो परिधान तैयार किये जाते हैं, उनका कारोबार भी शियाओं के हाथ में हैं। कश्मीर का सुन्नी मुसलमान अधिकतर मजदूरी का काम करता है। टट्टू पालन और हाउस बोट का काम करने के साथ-साथ वे छोटे गृह उद्योगों से जुड़े हैं। इतना ही नहीं, उनकी अच्छी खासी संख्या भारतीय सेना में भी है। पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर में शिया-सुन्नी भेदभाव तेजी से बढ़ रहा है। सुन्नी मुसलमान किसी न किसी बहाने उनको यहां से भगा देना चाहते हैं ताकि आर्थिक स्रोत उनके हाथों में आ जाए। इस संघर्ष की वारदातें तेज होती जा रही है।
कश्मीर की आबादी में शिया अल्पसंख्यक हैं। वे कहीं अलग-अलग क्षेत्रों में 20 से 40 प्रतिशत देखने को मिलते हैं। सुन्नी और शिया के बीच आर्थिक स्रोतों पर कब्जा करने और सम्पत्ति पर अपना वर्चस्व जमाने की स्पर्धा चलती है। अपनी आर्थिक और राजनीतिक पकड़ को मजबूत करने के लिए सुन्नी समुदाय हमेशा प्रयत्नशील रहता है। अपने इस काम को अंजाम देने के लिए वे मोहर्रम के अवसर पर शिया-सुन्नी भावना को भड़का कर अपना स्वार्थ पूरा करने का प्रयास करते हैं। इसलिए अब यह देखा जा रहा है कि मोहर्रम के दिनों में कश्मीर में शिया-सुन्नी विवाद गति पकड़ने लगा है। पिछले वर्षों की तरह इस बार फिर शिया समाज को इमाम हुसैन की याद में ताजिया निकालने की अनुमति नहीं दी गई। मोहर्रम आते ही शिया इमाम हुसैन की याद में पानी की सबीलें लगाते हैं और अपने बंद कमरों से लगा कर सार्वजनिक सभागृहों में मरसिये और मातम का आयोजन करते हैं। ताजिये के जुलूस में आम सड़कों पर मातम होता है। पिछले 20 वर्षों से घाटी में कट्टरवाद अपनी ऊंचाई पर बढ़ता और चढ़ता नजर आ रहा है। घाटी का एक विशेष वर्ग यह प्रयास कर रहा है कि शियाओं को उनकी आस्था के अनुसार मोहर्रम नहीं मनाने दिया जाए। उनका लक्ष्य यह है कि जिस प्रकार घाटी से हिन्दू पंडितों को बाहर निकाल देने में वे सफल हो गए उसी प्रकार शियाओं को भी निकाल कर वे अपना एकाधिकार कायम कर लेंगे। इमाम हुसैन की याद में निकाले जाने वाले ताजिये को वे ह्यमूर्ति पूजाह्ण कहते हैं। इसलिए अब ताजिये का विरोध करने के लिए वे अपनी सामरिक शक्ति का भी उपयोग करने लगे हैं।
पिछले दिनों बड़गाम में शिया समाज सुन्नियों की हिंसा का शिकार हुआ था। इस बार यह खूनी खेल श्रीनगर में दोहराया गया। दसवीं मोहर्रम को जब शियाओं ने ताजियों का जुलूस निकाला तो सुन्नी मुसलमानों ने अपनी ताकत से उसे रोकने का प्रयास किया। अपनी आस्था के अनुसार शिया समुदाय भी जगह पर डट गया इसलिए संघर्ष होना स्वाभाविक बात थी।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि कश्मीर की घाटी सुन्नी बहुल है। वे इन गतिविधियों को इस्लाम विरोधी मानकर शियाओं को रोकते हैं। शिया इसे अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं। उनका कहना है कि इमाम हुसैन को जिन्होंने भूखा प्यासा करबला के जंगल में मार दिया वे उन्हें अपने इमाम के लिए शोक दर्शाने का अवसर तो नहीं देते बल्कि हुसैन के दुश्मन यजीद का चरित्र दर्शाकर उनकी मजहबी भावना से खिलवाड़ करते हैं। घाटी में आतंकवादी तत्व हर मोहर्रम में इमाम हुसैन विरोधी आन्दोलन को हवा देकर उनकी भावनाओं को आहत करते हैं। शिया होने के नाते उनका यह दायित्व हो जाता है कि अपनी बुनियादी आस्था पर कायम रहकर वे इसका विरोध करें। घाटी के शियाओं की शिकायत है कि पिछले दो दशकों से प्रशासन न तो उन्हें ताजिया निकालने की अनुमति देता है और न ही उनकी मजहबी भावनाओं के विरुद्ध की जाने वाली हिंसा को रोकने का प्रयास करता है। शिया समाज को अपमानित और प्रताडि़त करने का यह सिलसिला पिछले 20 वर्षों से चल रहा है। कट्टर सुन्नी, जिनके पीछे आतंकवादी हैं, वे डरा-धमका कर उनकी मजहबी भावना में हस्तक्षेप करते हैं। 1400 वर्ष पूर्व सत्ता के लोभी मुसलमानों ने इमाम हुसैन और उनके 72 परिजनों को शहीद कर दिया था। इसलिए दुनिया में जहां कहीं शिया रहते हैं वे मोहर्रम के इस दिन को याद कर उनके दुश्मनों पर लानत बोलते हैं। सुन्नियों को यह अच्छा नहीं लगता इसलिए मजहब का ढोंग करके वे इस ऐतिहासिक घटना को भुला देना चाहते हैं। लेकिन शिया मुसलमान एक स्वर में कहते हैं कि ह्यइमाम हुसैन का खून रंग लाएगा और जहां यजीद जैसी सत्ता होगी जनता उसे जड़-मूल से नष्ट कर देगी।
घाटी में सुन्नियों का बहुमत होने के कारण यहां की सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से इनके साथ मिल जाती है। इसलिए शिया समाज को उनकी आस्था के अनुसार मोहर्रम मनाने नहीं देती। पड़ोसी देश पाकिस्तान में शियाओं पर जिस तरह से अत्याचार किये जाते हैं उसका प्रभाव यहां भी देखने को मिलता है। यहां रह रहे पाकिस्तानी तत्व शियाओं के साथ संघर्ष की नीति अपनाए हुए हैं। वे किसी न किसी प्रकार से शिया-सुन्नी भेद को हवा देते रहते हैं। सच तो यह है कि यहां के आतंकवादी तत्वों के साथ सरकार भी मिल जाती है। इसका उदाहरण यह है कि इस बार 12 नवम्बर को श्रीनगर के शहीद गंज और कर्ण नगर में शिया समाज के परम्परागत कार्यक्रमों को रोकने के लिए कर्फ्यू लगा दिया गया परंतु इसके बावजूद जब शिया समाज के लोग अपने कंधों पर ताजिये रख कर आगे बढ़ने लगे तो पुलिस ने उनके ऊपर आंसू गैस के गोले छोड़े और उन पर बड़ी निर्दयता से लाठीचार्ज किया। जिस लाल चौक पर अलगाववादी और पाकिस्तान समर्थक मुस्लिम नेता खुलेआम भारत की निंदा करते हैं वहां शिया समाज के ताजियों के प्रवेश पर कुफ्र का फतवा जारी कर दिया और बड़ी संख्या में उनके युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। इमाम हुसैन का यह अपमान निंदनीय ही नहीं बल्कि अमानवीय है।
कश्मीर भारत का ही भाग है, जहां हर मत-पंथ और सम्प्रदाय के लोगों को अपनी आस्था के अनुसार अपने त्योहार मनाने का अधिकार है। कश्मीर की सरकार का रवैया तो ऐसा था मानो शिया असामाजिक और देशद्रोही हों। इस जुलूस पर पुलिस अंधाधुंध लाठी चार्ज कर रही थी, उसमें एक टीवी चैनल का संवाददाता भी बुरी तरह से घायल हो गया। ताजिये के जुलूस को रोकने के लिए पुलिस ने श्रीनगर के सभी प्रमुख हिस्सों, लाल चौक, जहांगीर चौक, कोठीबाग, करालखुड, हब्बाकदल, सफाकदल, नवहट्टा चौक, छलबेट और खनियार पर भारी मोर्चाबंदी की थी। इनमें असंख्य शिया घायल हुए और लगभग तीन हजार शियाओं को गिरफ्तार कर लिया। कश्मीर के सुन्नी मुसलमान, जिनसे वहां की सरकार की मिलीभगत है, क्या इसका उत्तर देंगे कि घाटी के गुर्जर, बौद्ध और सिख अल्पसंख्यकों के साथ उनका व्यवहार कैसा है? उनकी सुरक्षा के लिए सरकार कितनी प्रतिबद्ध है? मुस्लिम बहुल प्रदेश मुस्लिम अल्पसंख्यकों को जिस तरह से सता रहा है उससे तो लगता है कि वे एक दिन घाटी में रहने वाले अन्य समाज को भी बाहर निकाल देने पर तत्पर हैं। सुन्नी जनता से साठगांठ करके कश्मीरी पंडितों की तरह इन अल्पसंख्यकों को भी एक दिन घाटी से निकाल बाहर
किया जाएगा। मुजफ्फर हुसैन
टिप्पणियाँ