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सऊदी अरब को ऐसा महसूस हो रहा है कि कई मामलों में अमरीका उसका साथ दिल खोलकर नहीं दे रहा है। इसलिए बदला लेने के लिए उसने सुरक्षा परिषद् की मिलने वाली अस्थायी सदस्यता को ठुकरा दिया है। उक्त घटनाक्रम के पश्चात् अनेक मामले ऐसे देखने में आए हैं कि सऊदी को अमरीका पर भरोसा नहीं रहा है। इसलिए यदि भविष्य में शिया देशों का नेतृत्व करने वाला ईरान उस पर चढ़ाई कर दे तो कि फिर उससे निपटना आसान नहीं होगा। इसलिए सऊदी अरब अब स्वयं को शक्तिशाली बनाने के लिए अन्य देशों की ओर देख रहा है। सऊदी यह सोचने लगा है कि पाकिस्तान से परमाणु बम प्राप्त कर वह अपने प्रतिस्पर्धी ईरान को धूल चटा सकता है।
सऊदी भले ही यह कहता रहे कि परमाणु बम बनाने के मामले में उसने पाकिस्तान को आर्थिक सहायता नहीं दी है लेकिन इसमें शंका नहीं है कि पाकिस्तान अपने सभी स्रोतों को जुटाकर परमाणु बम बनाने में सफल हो गया है। ईरान तो बहुत पहले ही अपने आपको परमाणु शक्ति घोषित कर चुका है। इसलिए सऊदी अरब को भी अपनी रक्षा के लिए इसे प्राप्त करना अनिवार्य हो गया है। ह्यइस्लामी बमह्ण का नारा पाकि स्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने दिया था। पाकिस्तान के इसे क्रियान्वित कर दिखाया है। इसलिए अनेक छोटे और अविकसित देश इसके खरीदार बन रहे हैं। सऊदी अब तो तेलिया राजाओं का देश है इसलिए उसके लिए परमाणु बम खरीदना कोई बड़ी बात नहीं है। जबसे ईरान ने परमाणु बम बनाने की कार्यवाही शुरू की थी तबसे अमरीका और इस्रायल दोनों उससे नाराज हो गए थे, क्योंकि यह तो उनके लिए प्रतिस्पर्धी की एक बहुत बड़ी चुनौती थी। अब तक तो ईरान के परमाणु बम से इस्रायल और अमरीका ही चिंतित थे। लेकिन अब तो वे सभी देश भयभीत हैं जो ईरान विरोधी हैं। यदि दुनिया की मंडी में कोरिया परमाणु बम बनाकर बेच सकता है तो फिर ईरान और पाकिस्तान क्यों नहीं? पाकिस्तान परमाणु बम की दलाली करता है तो फिर अमरीका अपने प्रभाव से उन देशों को कैसे रोक सकता है जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने पास परमाणु बम आवश्यक समझते हैं? ईरान के ह्यइस्लामी बमह्ण का सबसे बड़ा भय सऊदी को उसके शिया पंथी होने का है। इस्लामी देशों में सुन्नी-शिया का टकराव सबसे अधिक भयानक है। सऊदी यदि येन-केन प्रकारेण बम बनाता है तो उसके लिए अधिक खतरनाक होता इसलिए रेडीमेड बम खरीद कर उसने इस खतरे को टाल देना ठीक समझा है। वास्तव में देखा जाए तो सऊदी सरकार में न तो इतना कौशल्य था और न ही वह इसे बनाने की प्रक्रिया पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता था। इसलिए अच्छा यही था कि वह तैयार बम खरीद लेता इसलिए अपनी आवश्यकता को देखते हुए उसने परमाणु बम सीधे-सीधे पाकिस्तान से खरीद लिया। पाठक इस बात को भूले नहीं होंगे कि पाकिस्तान के परमाणु बम के निर्माता डाक्टर कादिर खान तकनीक बेचने और उसकी सामग्री की पूर्ति करने के मामले में बड़े बदनाम हुए हैं। उन्हें अनेक वषोंर् तक नजरबंद रखा गया। आज भी अमरीकी दबाव में पाकिस्तान को उन पर कड़ी नजर रखनी पड़ती है। लेकिन इसके उपरांत भी पाकिस्तान परमाणु बम की दलाली के लिए एक जाना माना देश बन गया है। अमरीका इसलिए सख्त नाराज है और उसके वैज्ञानिकों पर कड़ी नजर रखता है। सऊदी का मानना है कि इस्रायल के परमाणु कार्यक्रम की तुलना में उसे अधिक भय ईरान से है। क्योंकि ईरान शिया देश होने के कारण उसका पारम्परिक रूप से अव्वल नम्बर का दुश्मन रहा है। इस्लामी जगत का कड़वा सच तो यह है कि उसके यहां परमाणु बम से अधिक ख्रतरनाक शिया सुन्नी विवाद नामक परमाणु बम है। अमरीका अब इस खोज में है कि पाकिस्तान और सऊदी में यह समझौता किस प्रकार हुआ। पाकिस्तान, जो अमरीकी सैनिक गुट का देश है, वह उसी गुट के देश सऊदी को इसकी पूर्ति बिना उससे पूछे किस प्रकार कर सकता है? वह भी इतना चुपचाप कि दुनिया को इसका पता ही नहीं चले।
अमरीका की संधि से जुड़े ये दोनों मुस्लिम राष्ट्र अपना-अपना काम कर गए और अमरीका को इसका पता भी नहीं लगा, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सऊदी अरब इस्रायल के परमाणु कार्यक्रम से भी अधिक गम्भीर समझता है। इसका तो अर्थ यह हुआ कि सऊदी अरब के लिए अमरीका और इस्रायल पहला ख्रतरा नहीं है, बल्कि उसके लिए जीवन और मौत का सवाल ईरान से जुड़ा हुआ है। विश्लेषकों का यह कहना है कि पाकिस्तान ने एक बड़ा कदम उठा लिया है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। शायद अरब ने इस स्थिति में पाकिस्तान की सहायता करने का आश्वासन दिया हो। अमरीका की सैनिक सहायता और विश्व बैंक के कर्ज पर रोक की स्थिति में सऊदी अरब का पेट्रो डॉलर पाकिस्तान की जेब गर्म करेगा। पाकिस्तान ने नाटो इंटेलीजिंस की इस रपट को बेबुनियाद बताया है। सऊदी अरब परमाणु संधि पर अटल रहेगा जैसा उसने वादा किया है। लेकिन इंटेलीजेंस रपट बार-बार इशारा कर रही है कि दाल में काला है। वैसे तो 2003 के बाद ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने सऊदी अरब की नींद उड़ा दी थी। इराक युद्ध के पश्चात् सऊदी ने इस ओर कदम बढ़ाना शुरू कर दिया था। यद्यपि लोग यह स्वीकर करते हैं कि सद्दाम हुसैन के पतन में भी सऊदी का हाथ था। लेकिन सद्दाम के पश्चात् पंथ आधारित राजनीति उसके लिए सर दर्द बन गई। जिसने सऊदी को लीक से हटकर सोचने पर मजबूर कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ है कि सऊदी ने रेडीमेड परमाणु बम खरीद लेना ही अपनी सुरक्षा के लिए अनिवार्य समझा। इस बात को पिछले माह इस्रायली इंटेलीजेंस के अध्यक्ष उमूस येलजन ने स्वीडन में स्वीकार किया है। इस बीच अनेक बार सऊदी अरब के शाह अमरीका को यह बताते रहे हैं कि ईरान ने खतरे का निशान पार कर लिया है। इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि ईरान ने यदि बम बना लिया है तो अब सऊदी चुप नहीं बैठ सकता है। जब अमरीका ने उसकी एक नहीं सुनी तो उसे अपनी रक्षा के लिए कुछ करना ही था। इसलिए उसने विकल्प चुन लिया और पाकिस्तान से परमाणु बम खरीद लिया। लेकिन मध्य पूर्व की राजनीति के जानकारों का कहना है कि नवें दशक में सऊदी अरब ने चीन से इस मामले में अपनी पींगे बढ़ाई थीं। इस समय उसने चीन से सीएसएस दो ब्लास्टिक मिसाइल प्राप्त किए थे। उन दिनों सुरक्षा से सम्बंधित जैन नाम पत्रिका ने इस सहस्य का उद्घाटन किया था कि सऊदी अरब ने एक नया मिसाइल तैयार करवाया है जो इस्रायल के खतरे के समय में उसकी रक्षा करेगा। इस में दो राय नहीं कि सऊदी ने पाकिस्तान के सुरक्षा कार्यक्रमों में भरपूर पैसा लगाया है। इसे नहीं भूलना चाहिए कि 1999 में सऊदी रक्षा मंत्री प्रिंस सुलतान बिन अब्दुल अजीज अलसऊद ने पाकिस्तान के परमाणु केन्द्र का दौरा किया था। 2002 में उन्होंने स्वीकार किया था कि सऊदी और पाक सरकार में सुरक्षा से सम्बंधित अनेक अनुबंध हुए हैं। पाकिस्तान को चीन ने परमाणु तकनीक दी थी। इसका लाभ पाकिस्तान ने अपने प्रतिस्पर्धी भारत और सऊदी ने ईरान के मामले में उठाया था। उन दिनों कादिर खान पर कालाबाजारी का आरोप लगाया गया था। यह आरोप नहीं सच था। अब्दुल कादिर खान ने अनेक देशों को उक्त तकनीक की कालाबाजारी कर करोड़ों डॉलर कमाए थे। जिस पर पाकिस्तान में विवाद उठा था। इसी कारण उन्हें कई वषोंर् तक नजरबंदी में रखा गया था। अब पश्चिमी राष्ट्रों का कहना है कि अब्दुल कादिर खान ने चीन की तकनीक को सऊदी अरब और उत्तरी कोरिया को बेचा है। पाकिस्तान में यह सारे रहस्य खुल जाने से वहां की राजनीति में भूचाल आ सकता है। मुजफ्फर हुसैन
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