स्वामी विवेकानन्द सार्द्धशती समारोह समितिह्ण द्वारा राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन
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शिक्षा जीवन पद्धति बनने पर ही सार्थक
देश के 125 विश्वविद्यालयों के 238 कुलपतियों ने स्वामी विवेकानंद के शिक्षा संबंधी चिंतन को आत्मसात करने पर बल दिया।
ह्यस्वामी विवेकानन्द और शिक्षा-राष्ट्रीय पुनरुत्थान हेतु दृष्टिह्ण विषय पर 16 नवम्बर को नई दिल्ली कन्वेंशन सेन्टर में दो दिवसीय राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस अवसर पर विशेष बात यह रही कि पहली बार देश के 125 विश्वविद्यालयों से आए 238 कुलाधिपतिऔर शिक्षाविद् एक ही मंच पर उपस्थित रहे।
कार्यक्रम का उद्घाटन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. एमएम पल्लम राजू और सुप्रसिद्घ वैज्ञानिक डा. रघुनाथ माशेलकर (पूर्व महानिदेशक, सीएसआईआर) ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया। इसके बाद स्वामी विवेकानन्द जी पर संस्कृत में मधुर गीत प्रस्तुत किया गया। उद्घाटन के बाद दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त आरएस गुप्ता ने विशिष्ठ अतिथियों का स्वागत किया।
सार्द्धशती समारोह समिति के सचिव डॉ. सुभाष कश्यप द्वारा प्रो. अनिरु द्ध देशपांडे का स्वागत किया गया।
समारोह में डॉ. कश्यप ने आज समाज में बढ़ती हिंसा, अपराध, भष्टाचार पर चिंता व्यक्त करते हुए विवेकानंद जी के शिक्षा संबंधी विचारों को मानवता की सुरक्षा करने में सक्षम बताया। समानता, धार्मिकता, वेदान्तदृष्टि, सामाजिक सहिष्णुता, मानव निर्माण आदि विवेकानन्द जी की शिक्षा द्वारा ही संभव है। ह्यतेन त्यक्तेन भंुजीथाह्ण की भावना समाज में हो, यह तभी संभव हो सकता है, जब समाज शक्तिशाली और विचारवान वनने के साथ त्यागी और परोपकारी भी हो। स्वामी जी शक्ति के उपासक थे और युवा शक्ति को भी शक्तिशाली बनाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने कहा है कि शिक्षा सूचनाओं का संग्रह नहीं है। यदि ऐसा होता तो पुस्तकालय सबसे ज्ञानवान होता। वे शिक्षा को आत्मसात करने में विश्वास करते थे। शिक्षा तभी सार्थक होगी जब उसे जीवन पद्धति बना दिया जाए। उन्होंने कहा था कि जागो और तब तक प्रयास करते रहो तब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो।
इस अवसर पर प्रो. देशपांडे ने सम्मेलन उद्ेश्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि हमारी शिक्षा पद्धति में विवेकानन्द जी की शिक्षा एवं उनके विचारों का समावेश करके उसे मानव निर्माण एवं व्यक्तित्व निर्माण कर्तव्यबोध और उसका निर्वाह करने में उपयोगी बनाना चाहिए। मूल्यपरक शिक्षा द्वारा छात्रों में से भेदभाव, क्रोध, घृणा, स्वार्थ, अहंकार आदि मनोवृत्तियों का विनाश करके सकारात्मक सोच विकसित करनी है जिससे वे राष्ट्रनिर्माण में सहयोगी बनें। इसके बाद डा. अनिल काकोडकर जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमें छात्रों के लिए ऐसे मार्गों का निर्माण करना है जिन पर चलकर वे अपने जीवन निर्माण के साथ नवअनुसंधान द्वारा तकनीकी क्षेत्र में भी प्रगति करें। केवल थोथा ज्ञान नहीं अपितु शोध आधारित ज्ञान के नवीकरण की आवश्यकता है।
समारोह के मुख्य अतिथि व केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री एम. एम. पल्लम राजू ने सभी पूर्व वक्ताओं के विचारों का समर्थन करते हुए उन्हें धन्यवाद किया और विश्वबन्धुत्व का भाव व्यक्त करने वाले स्वामी विवेकानंद के विचारों को शिक्षा नीति में सम्मिलित करना युवाओं के लिए अत्यंत आवश्यक बताया। छात्र शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहकर गुरुओं से श्रद्धापूर्वक ज्ञान अर्जित करें। यह ज्ञान केवल सूचनाओं का संग्रह मात्र न हो अपितु व्यावहारिक और जीवनशैली में ढाल कर प्रदान किया जाए। उन्होंने कहा कि स्वामी जी ने धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया, संस्कृत को भारतीयों के लिए अनिवार्य बताया। सभी के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाकर उनके जीवन को सार्थक, नैतिकतापूर्ण योग्य एवं सफल बनाया जाए जिससे ऐसे युवा न केवल आत्म चरित्र निर्माण करें अपितु देश और विश्व के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें। अंत में उन्होंने इस प्रकार के सम्मेलन की उपयोगिता और प्रासंगिता की चर्चा करते हुए उसकी सफलता की शुभकामनाएं दी। इस मौके पर कन्याकुमारी विवेकानन्द केन्द्र से पधारे श्री भानुदास ने विवेकानंद सार्द्धशती समारोह समिति के सदस्य तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों से पहंुचे कुलपति उपस्थित थे।
सम्मेलन में लिए गए संकल्प
1-मानव में अंतर्निहित संपूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।
2- उस संपूर्णता तक पहुँचने के लिये आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों पक्षों का समग्र विकास और जिज्ञासुवृत्ति का जागरण आवश्यक है।
3-अंतर्निहित संपूर्णता की अभिव्यक्ति मात्र स्वार्थ के लिये नहीं होती। अत: विद्यार्थियों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति समर्पण के भाव का संचार करना आवश्यक है। स्वामी जी कहा करते थे कि जो व्यक्ति उच्च शिक्षा प्राप्त कर उसका उपयोग अपने देश एवं देशवासियों के लिये नहीं करता उसका शिक्षित होना व्यर्थ है।
4-संपूर्णता सर्वव्यापक होती है। जो विद्यार्थी उस संपूर्णता को पहचान लेता है उसमें सहज ही वैश्विक बंधुत्व का भाव उत्पन्न होता है।
5- अपने भीतर की संपूर्णता की अभिव्यक्ति मातृ-भाषा से इतर भाषाओं में हो नहीं सकती। वैश्विक बंधुत्व का भाव रखने वाला विद्यार्थी विश्व की समस्त भाषाओं का सम्मान करता है, अनेक भाषाओं को सीखने का प्रयास करता है। पर उसकी शिक्षा का आधार तो मातृभाषा ही हो सकता है। मातृभाषा के साथ-साथ ही संस्त भाषा जानना अनिवार्य है क्योंकि संस्त भारतीय सभ्यता की अमूल्य निधि तक पहुँचने और उसके संरक्षण एवं संवर्धन का साधन हैं।
6-स्वामीजी के विचारों में महिलाओं की शिक्षा के प्रति विशेष आग्रह है। उनका कहना है कि महिलाएं शिक्षित होंगी तो वे अपने-आप शिक्षा को सुधारने का मार्ग ढ़ूंढ़ लेंगी।
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