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भारतीय चिन्तन में तत्व की बड़ी चर्चा है। यहां ह्यपरमतत्वह्ण की व्याख्या करने वाले ढेरों प्रवचनकर्ता हैं। कुछेक ह्यआदितत्वह्ण पर बहस करते हैं। कुछ लोग ह्यमूलतत्वह्ण को ही लेकर ज्ञान बेंचते हैं। तत्वदर्शी, तत्वखोजी या तत्वबोध के दावेदार भी कम नहीं हैं। विज्ञान में तत्वों की सूची है। सोना, चांदी, लोहा आदि तत्व बताए गये हैं। वैज्ञानिक और दार्शनिक सृष्टि के मूल तत्व को लेकर बेचैन हैं। सृष्टि सृजन का कोई एक आदि तत्व तो होना चाहिए। तब बाकी तत्व उसी ह्यआदितत्वह्ण का विकास होंगे। उपनिषदों में उस तत्व के सुमधुर गीत हैं वह अणु से भी छोटा है – अणो: अणीयान। वह बड़ों में भी सबसे बड़ा है – महत: महीयान। वह वर्णहीन, रूपहीन होने के बावजूद सृष्टि के आदि काल से अनेक वर्ण रूप धारण करता आया है। यह तत्व विश्वमनीषा का आकर्षण है। ऋषियों का संदेश है कि इसे ही जानना चाहिए। इसे जानने के बाद सारा ज्ञान मिल जाता है। ज्ञान के लिए तत्वचिन्तन ही अपरिहार्य है। मैत्रेयी उपनिषद् के एक खूबसूरत मंत्र में कहते हैं उत्तमा तत्वचिन्तैव, मध्यमा शास्त्रचिन्तनम् – तत्व चिन्तन सर्वश्रेष्ठ है और शास्त्र चिन्तन दोयम दर्जे का। आगे कहते हैं कि तंत्र चिन्तन अधम है और तीर्थो में घूमना और भी अधम। उपनिषद् के ऋषि ने तांत्रिक विद्याओं के माध्यम से सिद्घियां प्राप्त करने को अधम बताया है और तीर्थाटन को अधम से अधम। तीर्थाटन भौगोलिक यात्रा है। एक गांव नगर से दूसरे गांव नगर की। हम अपना शरीर और मन लेकर तीर्थ यात्रा में जाते हैं। श्रद्घा विह्वलता के कारण बुद्घि साथ नहीं होती। हम जाते हैं उत्साह के साथ और लौटते हैं कुछेक भौगोलिक स्मृतियों के साथ क्लांत होकर।
तीर्थ मन-रमण का सुख देते हैं। श्रद्घा हो तो थोड़ा और गहरा सुख। सुख-दुख समय के भीतर हैं और हमारे मन के ही खेल हैं। मन अनुकूल परिस्थिति पाकर समय को संकोची बनाता है। समय छोटा नहीं होता। सिर्फ अनुकूलता में छोटा प्रतीत होता है। हम सुख अनुभव करते हैं। इसी तरह दुख में समय लम्बा होता जान पड़ता है। नरक हजारों बरस का और स्वर्ग अल्प समय का। समय ज्यों का त्यों लेकिन मन के तल पर वह संकोची या विस्तृत जान पड़ता है। तीर्थ-रमण समय संकोच देता है। श्रद्घा का साथ पाकर समय का विस्मरण भी होता है, मन की चंचलता घटती है लेकिन तीर्थाटन आत्मबोध की यात्रा तो है, नहीं। आत्मबोध स्वयं से स्वयं के अन्तर्जगत की यात्रा है। यह स्वयं के दर्शन की ललक है और तीर्थाटन देवदर्शन की। तो भी तीर्थाटन का जीवन में प्रयोग है। सुख मगन होता है। घर आता है। जागृत लोगों को फिर वही सूनापन घेरता है। वे ज्ञान यात्रा में निकल सकते हैं। शास्त्र को मध्यमा कहने के तर्क उचित हैं। शास्त्र विद्वानों ने लिखे हैं। अनुभूति वाले ऋषि लेखक नहीं वक्ता थे। शास्त्र सुने गये, लिखने वालों ने लिपिबद्घ किया। वे सीधा वार्तालाप नहीं हैं। उन्हें सेकेण्ड हैण्ड इनफारमेशन या किसी अन्य से प्राप्त सूचना कह सकते हैं। सूचना ज्ञान नहीं होती। उपनिषद् और वेद ऋषि वचन हैं। उनका एक-एक शब्द जस का तस है। दुनिया के किसी भी साहित्य में हजारों बरस तक शब्द ध्वनि संरक्षण का भारत जैसा काम नहीं हुआ। वेद-उपनिषद् के मंत्र गाए गये, दोहराए गये। पीढ़ी दर पीढ़ी वाक् संयोजन सुरक्षित रहा। बहुत समय बाद लिपि और छापेखाने का आविष्कार हुआ। तब उन्हें पुस्तक का रूप मिला। लेकिन तत्व लब्धि के लिए उनमें भी कोई ठोस सामग्री नहीं थी।
उपनिषद् के ऋषियों ने स्वयं ही यही बात डंके की चोट पर कही यह आत्म तत्व प्रवचन, मेधा या श्रुतिवचनों से नहीं मिलता। तत्व चिन्तन असल में बुद्घि व्यवसाय नहीं है। वैज्ञानिक सूची वाले तत्वों पर चिन्तन संभव है, उनका और आगे विश्लेषण भी संभव है। लेकिन सृष्टि के मूल तत्व का चिन्तन नहीं हो सकता। ऋषि बता गए हैं कि वह इन्द्रिय बोध की पकड़ में नहीं आता। देखने, सुनने, स्पर्श और संूघने या स्वाद लेने के उपकरणों से उसे नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वह सार्वजनिक बोध का विषय नहीं बन सका। इन्द्रियबोध से प्राप्त जानकारियां दूसरों को भी सिखाई जा सकती हैं लेकिन आत्मबोध अहस्तांतरणीय होता है। शास्त्रों में बेशक उस तत्व की चर्चा है लेकिन शास्त्र शब्द सूचना हैं। वे संकेत मात्र हैं और संकेत की सीमा है।
जीवन में शास्त्रों का भी उपयोग है। शास्त्र प्रेरित करते हैं। शास्त्रकारों ने जीवन-जगत् दोनो का विवेचन किया है। जो कहा जा सकता है, उसे कहने की भरपूर कोशिश की है। उसे काव्य और गीत भी बनाया है। उन्होंने मूल तत्व की ओर संकेत ही किया है। दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। मूलतत्व अव्याख्येय है, उसकी व्याख्या संभव थी ही नहीं। तो भी शास्त्रकारों ने उसका आकर्षण बढ़ाया है। तत्व चिन्तन निस्संदेह श्रेयस्कर और उत्तम है और शास्त्र चिन्तन उसके बाद मध्यम कोटि का। उपनिषद् में शास्त्रों को ही पकड़कर न बैठने का संदेश है। भारत भूमि का सौभाग्य है कि यहां शास्त्रों को ईश्वरीय कथन नहीं कहा गया। गीताकार ने भी धर्म के अतिक्रमण का बोध दिया है। शास्त्रों में मूलतत्व की गंध है, पत्ते और फूल फल हैं। गंध, फूल और पत्तों से मूल रस महत्ता की सूचना मिलती है। लेकिन जो लोग फूल पत्तों में ही अटक जाते हैं, उनके लिए शास्त्र का कोई उपयोग नहीं लेकिन जो लोग फूल देखकर मूलरस के अभीप्सु हो जाते हैं शास्त्र उनके लिए श्रेष्ठ माध्यम हैं। हृदयनारायण दीक्षित
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