‘भंवर में दलित ईसाई’
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अब छुपा नहीं रहा चर्च का दोगलf
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से अपनी जीवन शैली को सही मानते हुए पूरे विश्वास के साथ जीवन को जीता है, उसी प्रकार प्रत्येक पंथ भी मनोवैज्ञानिक कारणों से अपनी मान्यताओं और अपने सिद्धांतों को दूसरे पंथों से श्रेष्ठ सिद्ध करने के क्रम में विभिन्न युक्तियां अपनाता है। हिन्दू धर्म में जाति प्रथा का कुप्रचार और ईसाई पंथ का उससे मुक्त होना एक ऐसी ही युक्ति रही, जिसे ईसाई मतावलंबियों द्वारा दूसरे पंथों से ईसाई धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने और अन्य धर्मांवलम्बियों को ईसाइयत की ओर आकृष्ट करने के उद्देश्य से अपनाया जाता रहा है। किंतु विडम्बना यह है कि भारत में धर्मांतरण से ईसाई बनाए गए दलित ‘दलित ईसाई’ के संबोधन के साथ जीने को अभिशप्त हैं। ईसाई बनाने के दौरान उन्हें जो सब्जबाग दिखाए गए थे। वे सब उनके लिए बुरे सपने की तरह सिद्ध हो रहे हैं। जहां एक ओर वे संवैधानिक रूप से मिलने वाले आरक्षण की सुविधा से वे वंचित हो रहे हैं, वहीं वे ईसाइयों के बीच •ाी वे दोयम दर्जे के होकर रह गए हैं। ऐसे ही लोगों की दुविधापूर्ण स्थिति को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने वाली पुस्तक है-‘•ांवर में दलित ईसाई’, जिसे गरीब तबके के ईसाइयों के हितों के लिए काम करने वाले आऱ एल़ फ्रांसिस ने अनुसंधानपरक दृष्टि से लिखा है।
पुस्तक बहुत बारीकी से न केवल धर्मांतरित ईसाईयों के जीवन की कठिनाइयों की पड़ताल करती है, बल्कि व्यापक रूप से ईसाई धर्म के भीतर की विडम्बनाओं को •ाी उजागर करती है। लेखक ‘अपनी बात’ लिखते हुए स्पष्ट करता है कि चर्च द्वारा स्थापित और संचालित स्कूलों, कॉलेजों व अन्य संस्थानों में कोई विशेष ला•ा इन दलित ईसाइयों को नहीं मिल रहा है। वे सदैव उपेक्षित ही रहे हैंं। लेखक चर्च अधिकारियों की अपने को सामाजिक स्तर की दृष्टि से ऊंचा मानने की मानसिकता को दर्शाता है। लेखक स्पष्ट करता है कि ईसाई मतावललंबियों ने ईसाइयत पंथ अपनाने वाले इन लोगों को विकास की उतनी ही सीढ़ियां चढ़ाई जितनी की उनकी सत्ता को बनाए रखने के लिए जÞरूरी थीं।’ इस सारी स्थिति को ठीक करने के लिए लेखक ने भारतीय चर्च में ढांचागत परिवर्तन किए जाने की जरूरत पर बल दिया है। भारतीय चर्च का शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अच्छा वर्चस्व होने के बावजूद भी चर्च का पूरा संचालन कैनन लॉ के तहत होना जैसे विषय लेखकीय चिंता के केंद्र में हैं।
‘अपनी ही मुक्ति की आस में’ शीर्षक पहले अध्याय में लेखक जैसे मानो अपने अनुसंधान को निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखता है कि ‘चर्च को भारत में अपने मिशन को पुन: परिभाषित करना होगा’। पिछले कुछ दशकों के दौरान ईसाई मिशनरियों के कुछ अन्य धर्मावलम्बियों के साथ हुए टकराव के कारणों की गहराई में जाने का आह्वान करते हुए लेखक प्रश्न करता है कि ‘क्या धर्मांतरण ही ईसाइयत का एक मात्र उद्देश्य रह गया है?’ एक ओर ईसाइयत में समानता का ढोंग और दूसरी तरफ दलित ईसाइयों को आरक्षण देने की मांग की चर्च की दोगली नीति को ‘ईसा के अछूत मसीह’ शीर्षक लेख द्वारा बखूबी पाठकों के सामने रखता है। लेखक दो टूक प्रश्न करता है कि यदि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाई बन गए धर्मांतरितों के वंशज आज भी ऐसी स्थिति में हैं कि उन्हें पुन: हिन्दू दलितों की श्रेणी में रखा जाए और इतने वर्षों में भी यदि उन्हें सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से छुटकारा नहीं मिला है, तो आखिर उनके जीवन में चर्च का योगदान ही क्या है? ‘धर्म की दीवार में औरतें’ शीर्षक लेख आज के स्त्री विमर्श के दौर में भी चर्च के दमघोंटू माहौल और धर्म के आडम्बर में जारी दुराचारों को पूरे तथ्यों के साथ प्रस्तुत करता है।
‘ईसा के सिद्धांत और चर्च’ ‘आसान नहीं पोप की राह’ ‘चर्च में दलित पादरी’ ‘धर्मांतरण की पीड़ा – एक सत्यकथा’ ‘लोकतांत्रिक तरीके से नियुक्त हो बिशप’ जैसे शीर्षकों वाले लेख से लेखक अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश करता है। लगभग दो वर्षों के दौरान लिखे गए बत्तीस लेखों
के संग्रह के रूप में यह पुस्तक आज के भारतीय समाज में भारतीय चर्च की विद्रूपताओं और भारतीय ईसाइयों की स्थिति को समग्रता में समझने में मील का पत्थर साबित सकती है।
पुस्तक का नाम : भंवर में दलित ईसाई
लेखक : आऱ एल़ फ्रांसिस
प्रकाशक : जे के एन्टरप्राइसेजÞ,
डब्ल्यू बी-27, भूतल, दिल्ली-110092
मूल्य : रु़ 150/-
पृष्ठ : 167
‘द ब्लैक बुक’
तुर्की में निजाम के दमन की झलक
तुर्की के ओरहान पामुक जाने-माने लेखक हैं। दुनियाभर में उनकी किताबें खूब बिकती हैं। कई भाषाओं में उनका अनुवाद हो चुका है। हाल ही में पेंग्विन बुक्स ने हिन्दी में उनकी किताब ‘द ब्लैक बुक' का अनुवाद प्रकाशित किया। यह एक खास उपन्यास है, जिसने दुनियाभर के लोगों का ध्यान खींचा है। इसके कथ्य, शिल्प, कहानी को आगे बढ़ाने की शैली और कथावस्तु की खासी तारीफ हुई है। एक जमाना था जब ओरहान को तुर्की में उनकी किताबों के लिए न केवल देशद्रोही कहा गया बल्कि मुकदमा तक चलाया गया। अपमानित किया गया। भद्दी बातें कही गईं। बहरहाल अब उनके लिए समय बदल चुका है। ओरहान को 2006 में नोबल पुरस्कार दिया गया। चूंकि उनका लेखन पूरब और पश्चिम के बीच वैचारिक टकरावों के लिए जाना जाता है लिहाजा उनकी किताबों से एक खास वर्ग रुष्ट भी रहता है।
खैर हम पुस्तक ‘द ब्लैक बुक’ की बात करते हैं, जो मूलरूप से जासूसी उपन्यास है। एकदम अलग अंदाज का। इसका नायक गालिब है, जिसकी बीबी है रुइया। एक दिन वह गायब हो जाती है। बस यहीं से उपन्यास की असली कहानी शुरू होती है। गालिब को लगता है कि उसकी बीबी मशहूर कॉलम लेखक जलाल के साथ भाग गई। वह उसकी तलाश में लग जाता है। पूरे इस्तांबुल को छान मारता है। उपन्यास में 1980 के दशक के उस इस्तांबुल की कहानी भी साथ चलती है, जो तुर्की के निजाम के दमन तले दबा था। गालिब की निगाह से पामुक ने ऐतिहासिक शहर की कई परतें खोली हैं। उपन्यास में मुल्क के अहम सम्मानबोध, ताकतवर तबकों के अंतर्विरोधों के साथ आधुनिकता की बातें करने वाले निजाम शासन की असल शैली को उजागर किया गया है। यूं भी ओरहान तुर्की के निजाम पर अपनी टिप्पणियों से खासी चर्चा हासिल कर चुके हैं। इस पुस्तक के जरिेए उन्होंने 19वीं सदी की वास्तविकता को पहली बार ईमानदारी और बेबाकी से छुआ।
अब फिर उपन्यास के केंद्रीय पात्र गालिब की ओर लौटते हैं। गालिब को अपनी बीबी के भाग जाने पर जलाल पर शक तो है लेकिन वह खुद जलाल के हाव-भाव, पसंद-नापसंद, पहनावा सब अपनाता जाता है, यहां तक कि वह उसके नाम से उसी तरह कॉलम लेखन करने लगता है। वह इस्तांबुल में निशानों के जरिए ऐसे समूह के करीब पहुंचता है, जो मार्क्सवादी-सूफी है। कहानी इस्तांबुल की रहस्यात्मकता के इर्द गिर्द घूमती है। गालिब लगातार रहस्यों का पीछा करता है, उनकी तह में जाना चाहता है, उनसे दूसरी कड़ियों को जोड़ने की कोशिश करता है। तभी अचानक उसे मौत की धमकी मिलती है और वह आशंका से सिहर उठता है।
पाठकों को यह किताब इसलिए पढ़नी चाहिए क्योंकि इससे उन्हें कम्युनिस्टों के उस दोगलेपन को समझने में मदद मिलेगी जो तुर्की में कट्टर इस्लामवादियों से टकराते हैं लेकिन यहां भारत में उनके साथ गलबहियां डाले हुए हैं। ओरहान ने कई और प्रसिद्घ उपन्यास भी लिखे हैं, मसलन- ‘माई नेम इज रेड’, ‘इस्तांबुल’, ‘द व्हाइट कैसल’, ‘म्युजिक आफ इनोसेंस’ और ‘स्नो’। सभी किताबें खासी चर्चित हैं। वह किसी प्रतिबद्घता और परिपाटी को नहीं मानने वाले लेखकों में शुमार किये जाते हैं, लेकिन गर्व से मानते हैं कि वह बार्खेज और मार्केज से प्रभावित हैं।
पुस्तक का नाम -द ब्लैक बुक
सम्पादक – ओरहान पामुक
प्रकाशक – पेंग्विन बुक्स इंडिया प्रा. लि.
11, कम्युनिटी सेन्टर
पंचशील पार्क
नई दिल्ली-110017
पृष्ठ – 567, मूल्य -399 रु.
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