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यह देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता है कि हम लोगों ने अब तक अपने उन परम्परागत महान अधिकारों को हाथ से नहीं जाने दिया, जो हमें अपने गौरवशाली पूर्व पुरुषों से मिले हैं, जिनका गर्व किसी भी राष्ट्र को हो सकता है। इससे मेरे हृदय में आशा का संचार होता है। यही नहीं, जाति (हिन्दू) की भविष्य उन्नति का मुझे दृढ़ विश्वास हो जाता है। यह जो मुझे आनन्द हो रहा है, वह मेरी ओर व्यक्तिगत ध्यान के आकर्षित होने के कारण नहीं, वरन् यह जानकर कि राष्ट्र का हृदय सुरक्षित है और अभी स्वस्थ भी है। भारत अब भी जीवित है। कौन कहता है कि वह मर गया? पश्चिम वाले हमें कर्मशील देखना चाहते हैं, परन्तु यदि वे हमारी कुशलता लड़ाई के मैदान में देखना चाहें तो उनको हताश होना पड़ेगा; क्योंकि वह क्षेत्र हमारे लिए नहीं, जैसे कि अगर तुम हम किसी सिपाही जाति को धर्मक्षेत्र में कर्मशील देखना चाहो तो हताश होगे। वे यहां आएं और देखें, हम भी उनके ही समान कर्मशील हैं; वे देखें, यह जाति कैसे जी रही है और इसमें पहले जैसा ही जीवन अब भी वर्तमान है। हम लोग पहले से हीन हो गए हैं, इस विचार को जितना ही हटाओगे, उतना ही अच्छा है।
कुछ भारतीय लोगों का मानना है कि यूरोप के भौतिकतावाद ने हमको लगभग प्लावित कर दिया है। पर मैं मानता हूं कि सारा दोष यूरोप वालों का नहीं, अधिकांश दोष हमारा ही है। जब हम वेदान्ती हैं तो हमें सभी विषयों का निर्णय भीतरी दृष्टि से, भावात्मक सम्बंधों के आधार पर करना चाहिए। जब हम वेदान्ती हैं, तो यह बात हम नि:सन्देह समझते हैं कि अगर पहले हम ही अपने को हानि न पहुंचाएं तो संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो हमारा नुकसान कर सकें। भारत की पंचमांश जनता मुसलमान हो गयी, जिस प्रकार इससे पहले प्राचीन काल में दो-तिहाई मनुष्य बौद्ध बन गए थे। इस समय पंचमांश जनसमूह मुसलमान है, दस लाख से भी ज्यादा हिन्दू ईसाई हो गए हैं, यह किसका दोष है? प्रश्न है कि जिन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया, उन लोगों के लिए हमने क्या किया? क्यों वे मुसलमान हो गए? यही एक प्रश्न है जो अपनी अन्तरात्मा से हमें पूछना चाहिए।
भौतिकतावाद, इस्लामवाद, ईसाईवाद या संसार का कोई 'वाद' कदापि सफल नहीं हो सकता था, यदि तुम स्वयं उसका प्रवेश द्वार न खोल देते। शरीर में तब तक किसी रोग के जीवाणुओं का आक्रमण नहीं हो सकता, जब तक यह दुराचरण, क्षय, कुखाद्य और असंयम के कारण पहले ही से दुर्बल और हीन नहीं हो जाता। तंदुरुस्त आदमी सब तरह के विषैले जीवाणुओं के भीतर रहकर भी उनसे बचा रहता है। अस्तु, पहले की भूलों को दूर करो, प्रतिकार का समय अब भी है। सर्वप्रथम, पुराने तकर्ों-वितकर्ों को, अर्थहीन विषयों पर छिड़े हुए उन पुराने झगड़ों को त्याग दो, जो अपनी प्रकृति से ही मूर्खतापूर्ण हैं। गत छह-सात सदियों तक के लगातार पतन पर विचार करो- जबकि सैकड़ों समझदार आदमी सिर्फ इस विषय को लेकर वर्षों तक बहस करते रह गए कि लोटा भर पानी दाहिने हाथ से पिया जाए या बांये हाथ से, हाथ चार बार धोया जाए या पांच बार, और कुल्ला पांच दफे करना ठीक है या छह दफे। ऐसे अनावश्यक प्रश्नों के लिए तर्क पर तुले हुए, जिन्दगी की जिन्दगी पार कर देने वाले और इन विषयों पर अत्यन्त गवेषणापूर्ण दर्शन लिख डालने वाले पंडितों से और क्या आशा कर सकते हो? हममें से अधिकांश मनुष्य इस समय न तो वेदान्ती हैं, न पौराणिक और न तांत्रिक। हम हैं 'छूत धर्मी' अर्थात् 'हमें न छुओ' इस धर्म के मानने वाले। हमारा धर्म रसोई घर में है। हमारा ईश्वर है 'भात की हांड़ी' और मंत्र है 'हमें न छुओ, हमें न छुओं, हम महापवित्र हैं।' अगर यही भाव एक शताब्दी और चला तो हममें से हर एक की हालत पागलखाने में कैद होने लायक हो जाएगी। मन जब जीवन सम्बन्धी ऊंचे तत्वों पर विचार नहीं कर सकता, तब समझना चाहिए कि मस्तिष्क दुर्बल हो गया। जब मन की शक्ति नष्ट हो जाती है, उसकी क्रियाशीलता, उसकी चिन्तन शक्ति जाती रहती है, तब उसकी सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है। फिर वह छोटी सीमा के भीतर चक्कर लगाता रहता है।
अतएव पहले इस वस्तुस्थिति को बिल्कुल छोड़ देना होगा। फिर हमें खड़ा होगा होगा, कर्मी और वीर बनना होगा। तभी हम अपने उस अशेष घन के जन्मसिद्ध अधिकार को पहचान सकेंगे, जिसे हमारे पूर्व पुरुष छोड़ गए हैं और जिसके लिए आज सारा संसार हाथ बढ़ा रहा है। यदि यह धन वितरित न किया गया तो संसार मर जाएगा। इसको बाहर निकाल लो और मुक्त-हस्त से इसका वितरण करो। व्यास कहते हैं, इस कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है, और सब प्रकार के दानों में अध्यात्म जीवन का दान ही श्रेष्ठ है। इसके बाद है विद्यादान, फिर प्राणदान, और सबसे निकृष्ट है अन्नदान। अन्नदान हम लोगों ने बहुत किया, हमारी जैसी दानशील जाति दूसरी नहीं। अब हमें अन्य दोनों-धर्मदान और विद्यादान के लिए बढ़ना चाहिए। और अगर हम हिम्मत न हारें, हृदय को दृढ़ कर लें, और पूर्ण ईमानदारी के साथ काम में हाथ लगाएं, तो पचीस साल के भीतर सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा और ऐसा कोई विषय न रह जाएगा जिसके लिए लड़ाई की जाए; तब सम्पूर्ण भारतीय समाज फिर एक बार आर्यों के सदृश हो जाएगा।
(मनमदुरा में स्वागत के पश्चात दिए गए भाषण का अंश, विवेकानन्द साहित्य, खण्ड-5, पृष्ठ 63)
स्वामी विवेकानंद के पत्र
(एक अमरीकी महिला को लिखित)
लन्दन,
13 दिसम्बर, 1896
प्रिय महोदया,
नैतिकता का क्रमविन्यास समझ लेने के बाद सब चीजें समझ में आने लगती हैं। त्याग, अप्रतिरोध, अहिंसा के आदर्शों को सांसारिकता, प्रतिरोध और हिंसा की प्रवृत्तियों को निरन्तर कम करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। आदर्श सामने रखो और उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न करो। इस संसार में बिना प्रतिरोध, बिना हिंसा और बिना इच्छा के कोई रह ही नहीं सकता। अभी संसार उस अवस्था में नहीं पहुंचा कि ये आदर्श समाज में प्राप्त किए जा सकें।
जो जिस समय का कर्तव्य है, उसका पालन करना सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। और यदि वह केवल कर्तव्य समझ कर किया जाए तो वह मनुष्य को आसक्त नहीं बनाता। संगीत सर्वोत्तम कला है और जो उसे समझते हैं उनके लिए यह सर्वोत्तम उपासना भी है।
हमें अज्ञान और अशुभ का नाश करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। केवल यह समझ लेना है कि शुभ की वृद्धि से ही अशुभ का नाश होता है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
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