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विनोद राय के बाद भारत के नए 'कैग' बने शशिकांत शर्मा की नियुक्ति को लेकर अब तक दो याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। दोनों ने ही इस नियुक्ति में पारदर्शिता की कमी को मुद्दा बनाते हुए सरकार को घेरा है। एक संवैधानिक संस्था होते हुए भी यूपीए सरकार ने 'कैग' को जिस तरह अपनी जेबी संस्था बनाने की मुहिम छेड़ी हुई है उससे इस देश की ऐसी अन्य संस्थाओं की स्वायत्तता पर सवाल खड़े होना लाजमी है।
'कैग' रहते हुए विनोद राय ने राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर कोयला खदान आवंटन पर बेलाग जांच करते हुए मंत्रियों के भ्रष्टाचार को सबके सामने उजागर कर दिया था। सवाल खुद प्रधानमंत्री कार्यालय तक पर उठे थे, क्योंकि 2 जी घोटाले और कोयला आवंटन घोटाले के सूत्र बरास्ता पीएमओ जाते थे। सरकार हरकत में आई और इसके नेताओं और 10, जनपथ के पहरुओं ने 'कैग' की भूमिका, उसके अधिकार क्षेत्र और संवैधानिक दर्जे तक का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया। दूरसंचार और कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने बड़बोली जमात की कमान संभालते हुए 'कैग' पर एक के बाद एक टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। 2 जी आवंटन से पहले राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में जब 'कैग' ने सुरेश कलमाड़ी को सर्वेसर्वा बनाने पर उंगली उठाई थी तक भी सिब्बल ने उसका विरोध किया और फिर 2 जी के संदर्भ में कहा कि 'कैग' को स्पेक्ट्रम आवंटन के मसले में बोलने का कोई अधिकार नहीं है। कहा कि, 'कैग' एयरवेव्स की बिक्री पर कोई मत नहीं रख सकता, क्योंकि ये 'आखिरकार एक लेखाकार' ही है। पहले के 'कैग' विनोद राय पर बरसते हुए सिब्बल बोले कि पद छोड़ने से पहले वे एक के बाद एक गलत बयान देते जा रहे थे।
दिग्विजय सिंह तो अनाप-शनाप बोलने के लिए जाने ही जाते हैं। फरवरी 2013 में उन्होंने विनोद राय के बारे में बहुत हल्की टिप्पणी की। विनोद राय ने कहा था कि 'कैग का एकमात्र काम रपटों को संसद में रखना नहीं होता।' इस पर सिंह ने कहा था, 'क्या राय देश के प्रधानमंत्री बनने की मंशा रखते हैं? अगर राय लेखाकार नहीं बने रह सकते तो क्या प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं।' हालांकि राय ने कैम्ब्रिज में बोलते हुए कहा था कि, 'क्या लोक लेखाकार के नाते हमारी भूमिका संसद में रपट रखने तक सीमित है या उससे आगे जाते हुए ग्रामीण स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, जल प्रदूषण, पर्यावरण, पेयजल आदि पर हमारे लेखा निष्कर्षों पर जन मत को जगाना है?' शायद जनमत को जगाने वाली बात दिग्विजय सिंह को चुभ गई। सरकार वैसे भी 'कैग' की रपटों को यह कहकर हल्के में लेती रही थी कि 'कैग' अपने दायरे से बाहर जा रही है। 2 जी की तरह कोयला घोटाले पर भी 'कैग' के खुलासे पर वित्त मंत्री चिदम्बरम भी संस्था की आलोचना करने से नहीं चूके।
जिस सरकार के नेताओं की आंखों में 'कैग' की यह 'नख-दंतहीन' छवि बसी हो उसके लिए पद पर अपने मनचाहे व्यक्ति को बैठाने से गुरंज क्यों कर होगा? रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा की 'कैग' पद पर नियुक्ति विवाद का विषय बननी थी सो बनी भी। इसके खिलाफ दो जनहित याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। पहली एडवोकेट एम . एल. शर्मा ने दायर की थी जिसमें 'कैग' की नियुक्ति का फैसला सरकार के ही पास होने को चुनौती दी थी। दूसरी याचिका 3 जून को पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी, पूर्व एडमिरल आर. एच. तहलियानी और एल. रामदास सहित 6 अन्य प्रमुख लोगों ने मिलकर दायर की है। याचिका में सर्वोच्च न्यायालय से सरकार से नियुक्ति के लिए एक पारदर्शी प्रक्रिया बनाने को कहने की अपील की गई है, जिसमें एक व्यापक, निष्पक्ष चयन समिति हो। इस मांग के पीछे मकसद यह है कि ऊंचे स्तर पर जारी भ्रष्टाचार और सरकार की उस तरफ से आंख फेर लेने के चलते सरकार के प्रभाव से दूर रहने वाले किसी व्यक्ति को चुने जाने की व्यवस्था हो। दिलचस्प बात यह है कि शर्मा के रक्षा सचिव रहते हुए कई सौदों पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। मसलन, अगस्ता हेलीकॉप्टर सौदा, एडमिरल गोर्शकोव खरीद सौदा, टाट्रा ट्रक सौदा वगैरह ऐसे मामले हैं जिनकी जांच उनके अंतर्गत की जाएगी, जिसके निष्पक्ष रहने को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
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