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कोलम्बो से अल्मोड़ा तक के भ्रमण के क्रम में स्वामी विवेकानंद 15 जनवरी, 1897 को कोलम्बो पहुंचे। उसके बाद पाम्बन। जिस घाट पर स्वामी जी की नाव आकर लगी थी, वहां औपचारिक स्वागत के लिए बड़ी तैयारियां की गई थीं तथा सुरुचि के साथ सज्जित मण्डप के नीचे उनके स्वागत का आयोजन किया गया था। उस अवसर पर स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए व्याख्यान के संपादित अंश यहां प्रस्तुत है।
हमारा पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्य-भूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं तथा ऋषियों का जन्म हुआ है, यह संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं, केवल यहीं, आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श का द्वार खुला हुआ है।
प्रत्येक राष्ट्र और प्रत्येक जाति का एक न एक विशिष्ट आदर्श अवश्य होता है- राष्ट्र के समस्त जीवन में संचार करने वाला एक महत्वपूर्ण आदर्श कह सकते हैं कि वह आदर्श राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ होती है। परन्तु भारत का मेरुदण्ड राजनीति नहीं है, सैन्य-शक्ति भी नहीं है, व्यावसायिक आधिपत्य भी नहीं है और न यांत्रिक शक्ति ही है वरन है धर्म- केवल धर्म ही हमारा सर्वस्व है और उसी को हमें रखना भी है। आध्यात्मिकता ही सदैव से भारत की निधि रही है। इसमें कोई शक नहीं कि शारीरिक शक्ति द्वारा अनेक महान कार्य सम्पन्न होते हैं और इसी प्रकार मस्तिष्क की अभिव्यक्ति भी अद्भुत है, जिससे विज्ञान के सहारे तरह-तरह के यंत्रों तथा मशीनों का निर्माण होता है, फिर भी जितना जबरदस्त प्रभाव आत्मा का विश्व पर पड़ता है उतना किसी का नहीं।
आज हमें बहुत से लोग जिन्हें और अधिक जानकारी होनी चाहिए, यह सिखा रहे हैं कि हिन्दू जाति सदेव से भीरु तथा निष्क्रिय रही है और यह बात विदेशियों में एक प्रकार से कहावत के रूप में प्रचलित हो गई है। मैं इस विचार को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता कि भारतवर्ष कभी निष्क्रिय रहा है। सत्य तो यह है कि जितनी कर्मण्यता हमारे इस पुण्यक्षेत्र भारत वर्ष में रही है उतनी शायद ही कहीं रही हो और इस कर्मण्यता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि हमारी यह चिर प्राचीन एवं महान हिन्दू जाति आज भी ज्यों की त्यों जीवित है- और इतना ही नहीं बल्कि अपने उज्ज्वलतम जीवन के प्रत्येक युग में मानो अविनाशी और अक्षय नवयौवन प्राप्त करती है। यह कर्मण्यता हमारे यहां धर्म में प्रकट होती है।
आज तो समस्त संसार आध्यात्मिक खाद्य के लिए भारतभूमि की ओर ताक रहा है, और भारत को ही यह प्रत्येक राष्ट्र को देना होगा। केवल भारत में ही मनुष्य जाति का सर्वोच्च आदर्श प्राप्य है और आज कितने ही पाश्चात्य पंडित हमारे इस आदर्श को, जो हमारे संस्कृत साहित्य तथा दर्शन-शास्त्रों में निहित हैं, समझने की चेष्टा कर रहे हैं। सदियों से यही आदर्श भारत की एक विशेषता रही है।
जब से इतिहास का आरम्भ हुआ है, कोई भी प्रचारक भारत के बाहर हिन्दू सिद्धान्तों और मतों का प्रचार करने के लिए नहीं गया, परन्तु अब हममें एक आश्चर्यजनक परिवर्तन आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, 'जब जब धर्म की हानि होती है तथा अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब साधुओं के परित्राण, दुष्कर्मों के नाश तथा धर्म-संस्थापन के लिए मैं जन्म लेता हूं। धार्मिक अन्वेषणों द्वारा हमें इस सत्य का पता चलता है कि उत्तम आचरण-शास्त्र से युक्त कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसने उसका कुछ न कुछ अंश हमसे न लिया हो, तथा कोई भी ऐसा मत-पंथ नहीं है जिसमें आत्मा के अमरत्व का ज्ञान विद्यमान है और उसने भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वह हमसे ही ग्रहण नहीं किया है। प्रत्येक व्यक्ति को यह भली भांति समझ लेना चाहिए कि जब तक हम अपनी वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक हमारी किसी प्रकार मुक्ति संभव नहीं, जो मनुष्य प्रकृति का दास है, वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। यह महान सत्य आज संसार की सब जातियां धीरे-धीरे समझने लगी हैं तथा उसका आदर करने लगी हैं। जब शिष्य इस सत्य की धारणा के योग्य बन जाता है तभी उस पर गुरु की कृपा होती है। ईश्वर अपने बच्चों की फिर कृपापूर्वक असीम सहायता करता है जो सभी मत–पंथों से सदा प्रवाहित रहती है। हमारे प्रभु सब मत-पंथों के ईश्वर हैं। यह उदार भाव केवल भारतवर्ष में ही विद्यमान है और मैं इस बात की चुनौती देकर कहता हूं कि ऐसा उदार भाव संसार के अन्यायन्य धर्मशास्त्रों में कोई दिखाये तो सही।
ईश्वर के विधान से आज हम हिन्दू बहुत कठिन तथा दायित्वपूर्ण स्थिति में हैं। आज कितनी ही पाश्चात्य जातियां हमारे पास आध्यात्मिक सहायता के लिए आ रही हैं। आज भारत की सन्तान के ऊपर यह महान नैतिक दायित्व है कि वे मानवीय अस्तित्व की समस्या के विषय में संसार के पथ-प्रदर्शन के लिए अपने को पूरी तरह तैयार कर लें। एक बात यहां पर ध्यान में रखने योग्य है- जिस प्रकार अन्य देशों के अच्छे और बड़े-बड़े आदमी भी स्वयं इस बात का गर्व करते हैं कि उनके पूर्वज किसी एक बड़े डाकुओं के गिरोह के सरदार थे जो समय-समय पर अपनी पहाड़ी गुफाओं से निकलकर बटोहियों पर छापा मारा करते थे, इधर हम हिन्दू इस बात पर गर्व करते हैं कि हम उन ऋषि तथा महात्माओं के वंशज हैं जो वन के फल-फूल के आहार पर पहाड़ों की कन्दराओं में रहते थे तथा ब्रह्मचिन्तन में मग्न रहते थे। भले ही आज हम अध:पतित और पदभ्रष्ट हो गए हों और चाहे जितने भी पदभ्रष्ट होकर क्यों न गिर गये हों, परन्तु यह निश्चित है कि आज यदि हम अपने धर्म के लिए तत्परता से कार्य-संलग्न हो जायें तो हम अपना गौरव अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। (साभार: विवेकानन्द साहित्य खण्ड 5, पृष्ठ 35)
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