सम्पादकीय 1. कितना मुन्ना, कितना भाई? 2.छोड़ा तो छापे
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देश की आर्थिक राजधानी पर हमले के षड्यंत्र में साझीदारों को भी रियायत! बीस साल तक दिग्गज अधिवक्ताओं के जरिए दलीलें रखने का मौका! संजू, भाग्यशाली हो तुम…कि तुम भारत में हो।
इस एक फैसले ने मुन्नाभाई के दो रूप, बॉलीवुड और मुम्बई का फर्क सब हमारे सामने रख दिया है।
कोतवाली से शुरू होने वाली जांच किन–किन सीढ़ियों से चढ़कर सबसे बड़ी कचहरी तक पहुंचती है हम जानते हैं। हमें पता है कि इस मामले में पड़ोसी देश की भूमिका को देखने–परखने के बाद शीर्ष न्यायपीठ बुरी तरह क्षुब्ध है। मगर गनीमत मानो इस व्यवस्था की कि तमतमाए चेहरों का गुस्सा फैसलों में नहीं उतरा। फैसला बीस साल बाद आया लेकिन कुछ लोग अब भी मुंह बिसूर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि संजय दत्त को बहुत सख्त सजा मिली है। सवाल 'खलनायक' के उन्हीं पैरोकारों से है।
ढाई सौ से ज्यादा घरों के दीपक जिस एक भभके में बुझ गए, सात सौ से ज्यादा लोगों को जिस थरर्ाहट ने लहूलुहान कर दिया, हजारों परिवारों के सपनों के चिथड़े उड़ा देने वाले उन धमाकों के तार बॉलीवुड नायक के बंगले तक नहीं बिछे थे?
इसे सिर्फ बगैर लाइसेंस हथियार रखना मत कहिए, संजू के पास कोई छोटा–मोटा तमंचा नहीं मिला था, उन्होंने दाऊद के गुर्गों से तीन–तीन स्वचालित एके 56 लीं थीं। मुम्बई को दहलाने वाला विस्फोटक उनके घर में छुपाया गया था। किसी आम आदमी ने यह भूमिका निभाई होती तो क्या किसी तरह की नरमी की उम्मीद थी? क्या इतने के बाद भी टाडा से छूट जाना छोटी बात है?
एक ओर पीड़ित परिवार फैसले में वह पंक्तियां तलाश रहे हैं जो दो दशक से सुलगते आक्रोश को कुछ ठंडा करें। दूसरी तरफ 'स्टार' के लिए रुंधे गले…दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बॉलीवुड के सैकड़ों करोड़ रुपए दांव पर लगे हैं।…इन बातों की बेशर्म जुगाली अब बंद। सैकड़ों बच्चों के सिर से पिता का साया हट गया, हजारों परिवारों का भविष्य दांव पर लग गया इसके बावजूद 'भाई' को 'मुन्ना' कहने वाले लोग देश को बर्दाश्त नहीं होते। मैं विधिवेत्ता नहीं हूं कि बता सकूं इस निर्णय में न्याय कितना है…लेकिन संजू इतना तो दिख ही रहा है कि तुम सस्ते में छूट गए।
छोड़ा तो छापे
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार में श्रीलंकाई गृह युद्ध के दौरान मानवाधिकार हनन से जुड़ा अमरीकी प्रस्ताव। मौका संवेदनशील था। तमिल उत्पीड़न के मुद्दे पर द्रविड मुन्नेत्र कलगम ने दांव खेला मगर सितारों की उलटी चाल….या कुछ और। हड़कंप उसी खेमे में है जहां से ताल ठोकी गई थी। पार्टी के शीर्ष पुरुष, करुणानिधि के पुत्र एम.के. स्टालिन के ठिकानों पर अगले ही दिन सीबीआई का छापा सवाल पैदा करने वाली घटना है। कल का साथी अगले ही दागी कैसे? देश के मानस में यह सवाल घुमड़ रहा है। प्रधानमंत्री बता रहे हैं कि 'इन छापों में सरकार की कोई भूमिका नहीं है'। वैसे, मायावती का ताज गलियारे से जुड़ा मसला हो या मुलायम सिंह की आय से अधिक संपत्ति का सवाल, यूपीए राज में गठबंधन सहयोगियों की रूठने–मनाने और सीबीआई की सक्रियता में संदिग्ध संबंध दिखता तो सबको है। हो सकता है कि अगली लोकसभा के लिए राजनीतिक पालेबंदी के वक्त छोटे राजनीतिक दल बांह मरोड़ने वाले हाथ के मुद्दे पर भी गुणा–भाग करें।
जगजीत सिंह की गूंजती आवाज में संबंधों का सार सुना था।
'हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते'
संयोग है या कुछ और, डा. मनमोहन सिंह के राज में सीबीआई ने सहयोगी दल के नेताओं के लिए नई तरह की परिभाषा गढ़ दी है।
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