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आजकल सर्वत्र आन्दोलन हो रहे हैं। आन्दोलन आक्रोश या गुस्से का परिणाम है । जो हो रहा या जो चल रहा, वह ठीक नही है, इसलिए आक्रोश बढ़ता है, और आन्दोलन शुरू हो जाता है। प्रश्न यह है कि आखिर जनता चाहती क्या है। वह सत्ता परिवर्तन चाहती है या व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। ध्यान से देखने पर लगता है कि सत्ता परिवर्तन की चाहत अब आम जनता के मन में नहीं है। क्योंकि बार-बार सत्ता परिवर्तन कर वह देख चुकी है कि उससे केवल सत्तारूढ़ राजनीतिक दल या व्यक्ति का परिवर्तन होता है। इसलिए जनता के मन मस्तिष्क में अब केवल सत्ता परिवर्तन नही है- वह तो कुछ और चाह रही है, किन्तु उसे व्यक्त नही कर पा रही है।
विगत कुछ वर्षों में अपने देश में जो बड़े आन्दोलन हुए उनके विषय तो स्पष्ट थे किन्तु तरीका, साधन, ध्येय तथा दिशा स्पष्ट नहीं थी। इसलिए अण्णा हजारे का भ्रष्टाचार का आन्दोलन हो बाबा रामदेव का कालाधन विरोधी स्वाभिमान आन्दोलन या बलात्कार के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आक्रोश- ये सफल होते हुए भी परिणामकारी नही हुए। इन आन्दोलनों से एक अच्छी बात यह उभर कर आई कि समाज में जन जागरण या जन जागृति आई है। किन्तु परिणामदायी न होने के कारण उत्साह ठण्डा पड़ने लगा है, क्योंकि इन आन्दोलनों में समस्याओं के समाधान हेतु जो बातें कही गयीं, वे सटीक नही थीं। जैसे अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार जैसी विकराल समस्या के समाधान हेतु 'लोकपाल कानून' की मांग की। लेकिन सिर्फ भ्रष्टाचारी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को जेल भिजवाने से भ्रष्टाचार रुकेगा क्या? क्योंकि अनेक विकसित या विकासशील देशों, उदाहरण के लिए जापान, अमरीका, चीन, पाकिस्तान में ऐसा हुआ कि शीर्षस्थ लोग पकड़े गये, देश निकाला हुआ, जेल भेजे गये, किन्तु भ्रष्टाचार आज भी उन देशों में विद्यमान है। अपने देश में भी घोटाले के अभियोग में कई शीर्षस्थ लोग पकड़े गये हैं, किन्तु घोटाला करने वाले आज भी निर्भय होकर घोटाला कर रहे हैं।
इसी प्रकार बाबा रामदेव ने कालाधन वापस लाने की बात की। मांग सटीक थी, उचित थी, किन्तु समाधान हेतु सटीक सुझाव नही था। उन्होंने कुछ आंकड़े देते हुए कहा कि विदेशों में जमा काला धन वापस लाओ। पर इसके लिए कोई प्रक्रिया नहीं है, इसलिए सरकार ने सुना और फिर दरकिनार कर दिया।
ऐसे ही बलात्कार की बढ़ती समस्या पर भी सोचने की बात है। दिल्ली में एक युवा लड़की से बलात्कार एवं उसकी हत्या से पूरा देश दु:खी हुआ। कई प्रकार के आन्दोलन में आक्रोश का प्रकटीकरण हुआ। सारा देश शोक संतप्त हो गया। किन्तु संसद में जो इस विषय पर चर्चा हुई वह तो और भी दु:खदायी थी। सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों ने आक्रोश व्यक्त किया, किन्तु उनके तर्क में शोक की बात कम, एक-दूसरे के मुंह में काली पोतने की बात अधिक थी। यदि इसी प्रकार जनाक्रोश की अनदेखी चलती रही तो डर इस बात का है कि एक दिन लोगों का विश्वास ही ऐसे आन्दोलनों से उठ जाएगा। निश्चय ही समाधान आन्दोलनों से ही निकलेगा – जनाक्रोश से ही उत्तर मिलेगा। किन्तु जनाक्रोश को सही दिशा और उर्जा चाहिए, जो ऐसे जनाक्रोश को सही परिणाम निकलने तक जारी रख सके। यदि उपरोक्त तीनों आन्दोलन को बरीकी से विश्लेषण करें तो प्रमुखता से यह बात उभर कर आती है कि ऐसे आक्रोशरूपी आन्दोलनों के पीछे न तो बड़ा संवेदनशील वर्ग था, न सशक्त संगठन था और न ही ठोस मांग थी। इनमें से दो आन्दोलनों पर तो केवल व्यक्तित्व का ही प्रभाव था और तीसरे में केवल भावना की प्रधानता थी।
वस्तुत: दुनिया भर के इतिहास में आन्दोलन के प्रति सबसे सजग व संवेदनशील समाज मजदूर, किसान व छात्र वर्ग को माना जाता। हम सब जानते हैं कि मजदूर बहुत संवेदनशील होते हैं क्योंकि सबसे अधिक गरीबी की मार उन पर ही पड़ती है। साथ ही यह अत्यन्त संवेदनशील व चेतनशील समाज है। यह वर्ग किसी भी बड़े आन्दोलन को खड़ा करने व परिणाम तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। किसी भी देश में दूसरा संवेदनशील समूह किसान वर्ग को माना जाता है किन्तु इनमें भी जो सर्वाधिक संख्या गरीबी की रेखा के नीचे की है, वे भी मजदूर ही माने जाते हैं। दुर्भाग्य से गरीबी के कहर के कारण वे आत्महत्या करते हैं क्योंकि वे संगठित नही हैं। इसे मजदूर वर्ग से अलग मानना भूल होगी। यह भी मजदूर का ही एक भाग है। तीसरा वर्ग छात्रों का है। इनमें जोश है। कोई भी आन्दोलन तुरन्त खड़ा करने की क्षमता है, किन्तु इनमें भावुकता अधिक है। ये आन्दोलन शुरू तो कर सकते हैं, चला भी सकते हैं, किन्तु अकेले कुछ कर गुजरना संभव नही है। आजकल तो इनको भी उकसा कर राजनीतिक दल अपनी रोटी सेकते हैं। फिर भी छात्र वर्ग में आन्दोलन की क्षमता है।
यह तीनों वर्ग कुल जनसंख्या का सर्वाधिक भाग हैं। इनमें आन्दोलन की क्षमता है। इनके संगठन भी हैं। किन्तु राजनीतिक दलों के प्रभाव के कारण इनमें भी भिन्नता है। सारे संगठन एक साथ नही हैं। इसलिए ये समय समय पर आन्दोलन तो करते हैं किन्तु विभाजन के कारण, राजनीति के कारण, परिणाम तक नहीं पहुंच पाते। इस पूरे विश्लेषण के पश्चात विचार करें तो आर्थिक असंतुलन के कारण सर्वाधिक भुक्त-भोगियों की संख्या मजदूरों की है। इसलिए सर्वाधिक संख्या वाले मजदूर के संगठन को सशक्त बनाने की आवश्यकता है। किसानों व छात्रों को भी उन्हीं के साथ जोड़ दें तो जनाक्रोश को एक सही दिशा मिलेगी और वह परिणामकारी भी बन सकता है। चूंकि वर्तमान में भारतीय मजदूर संघ अपने देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है। राष्ट्रभक्ति उसका आधार है और वह दूसरे संगठनों को भी साथ लेकर चलने का सामर्थ्य रखता है। इसलिए हमें अपने भारतीय मजदूर संघ को मजबूत बनाना होगा। इससे जनाक्रोश को भी एक नई दिशा मिल सकेगी।
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