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11 फरवरी (सोमवार) की प्रात: रोमन कैथोलिक चर्च के 265वें पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने अनायास लैटिन भाषा में यह घोषणा करके कि, 'मैं इस दायित्व से त्यागपत्र दे रहा हूं और 28 फरवरी को मैं पोप पद से निवृत्त हो जाऊंगा', अपने निकट सहयोगियों एवं विश्व भर में फैले कैथोलिक चर्च के एक अरब बीस लाख अनुयायियों को चौंका दिया। पोप परम्परा में सन् 1415 में ग्रिगोरी बारहवें के 600 वर्ष बाद यह पहला त्यागपत्र था। ग्रिगोरी पोप पद के तीन प्रत्याशियों के झगड़े में फंसे थे। ग्रिगोरी से पहले 1294 में सेलेस्टीन पांचवें ने इस्लामी विस्तारवाद द्वारा उत्पन्न राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से हार मानकर त्यागपत्र दिया था।
पर बेनेडिक्ट सोलहवें के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं थी। अत: उनका त्यागपत्र चौंकाने वाला सिद्ध हुआ। अपने लिखित वक्तव्य में उन्होंने कहा कि 'मैं भली भांति समझता हूं कि महत्वपूर्ण पांथिक प्रवृत्ति के कारण पोप का कार्य केवल शब्दों और पूजा कर्म तक सीमित नहीं है। मैंने कई बार ईश्वर के समक्ष आत्मालोचन करते हुए अनुभव किया कि इस दायित्व को निभाने के लिए जो मानसिक और शारीरिक शक्ति चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। अत: अब मैं इस दायित्व से मुक्त होकर अपना शेष जीवन पूजा अर्चना में व्यतीत करूंगा।'
कौन हैं बेनेडिक्ट सोलहवें?
जर्मन मूल के जोसेफ रतजिंगर को केवल आठ वर्ष पहले 19 अप्रैल, 2005 को पोप चुना गया था। उस समय उनकी आयु 78 वर्ष थी। पोप पद के लिए 1000 वर्षों में चुने गये वे पहले जर्मन थे। 24 वर्ष की आयु में वे पादरी बन गये थे। वे अपनी अध्ययनशील प्रवृत्ति के लिए जाने जाते थे और बेवेरिया विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर थे। उन्हें बिल्ली पालने और प्यानो बजाने का शौक था। पोप चुने जाने के पूर्व 25 वर्ष तक वे पिछले पोप जान पाल द्वितीय के निकट सहयोगी के नाते वेटीकन में ही रह रहे थे और अपनी कट्टर सिद्धांतवादी छवि के लिए चर्चित थे। पर पोप के नाते उनका आठ वर्ष का कार्यकाल अनेक विवादों से घिरा रहा। चर्च में बढ़ रही शिथिलता, नैतिक क्षरण और अनुशासनहीनता को रोकने में वे असफल रहे। चर्च के अनुयायियों की संख्या लगातार घटती गयी। फिर भी, इस समय विश्व में रोमन कैथोलिक ईसाइयों की कुल संख्या एक अरब बीस लाख के आसपास आंकी जाती है, जो विश्व की पूरी जनसंख्या का छठवां भाग कही जा सकती है। पोप के प्रधान कार्यालय वेटीकन को एक स्वायत्त राज्य का दर्जा प्राप्त है इसलिए पोप को राज्यप्रमुख का सम्मान भी दिया जाता है। कुछ वर्ष पहले तक अन्य देशों की कैथोलिक सरकारें वेटीकन के सामने थर-थर कांपती थीं और आंख मूंदकर उसके आदेशों का पालन करती थीं।
पोप बेनेडिक्ट सोलहवे यह विश्वास लेकर मैदान में उतरे कि कैथोलिक चर्च ही सच्चे मार्ग पर चल रहा है, बाकी सब उपासना पद्धतियां अपूर्ण हैं। उनकी धारणा है कि आधुनिक सेकुलर विश्व आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत दुर्बल है। उन्होंने इस्लाम को अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में पहचाना। उनके पोप बनने के बाद वेटीकन ने 29 नवम्बर, 2005 को समलैंगिकों के पादरी बनने पर प्रतिबंध लगा दिया। अगले वर्ष 2006 में सितम्बर 9 से 14 तक उन्होंने अपने जन्म प्रदेश बेवेरिया का भ्रमण किया। वहां 12 सितम्बर को रेगेनबर्ग विश्वविद्यालय में अपने भाषण में उन्होंने 14वीं शताब्दी के एक बाईजेंटाइन सम्राट के इस कथन को दोहराया कि इस्लाम दुनिया में शैतानी शक्ति बनकर आया है और उसका विस्तार तलवार के बल पर हुआ है। इस भाषण से मुस्लिम जगत में गुस्से की लहर दौड़ गई और पोप पर चारों ओर से हमले शुरू हो गये। इन हमलों का ईसाई जगत में तो स्वागत हुआ पर पोप बेनेडिक्ट घबरा गये। वे क्षमायाचना की मुद्रा में आ गये। उन्होंने कहा, मेरे भाषण को गलत समझा गया है। मुस्लिम आक्रोश को शांत करने के लिए उन्होंने 28 नवम्बर से 1 दिसम्बर, 2006 तक तुकर्ी का दौरा किया और इस्ताम्बूल के मुफ्ती एवं अन्य मुस्लिम उलेमाओं के साथ वहां की नीली मस्जिद में नमाज पढ़ी। हमने उसी समय पाञ्चजन्य में इस लज्जास्पद प्रसंग पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।
पोप बेनेडिक्ट सोलहवें कैथोलिक चर्च में कट्टरवादी एवं उदार पक्षों के बीच करवट बदलते रहे। कट्टरवादियों की मांग पर उन्होंने 7 जुलाई, 2007 को प्राचीन लैटिन प्रार्थना को अपनाने का आदेश दिया। 5 फरवरी, 2008 को गुडफ्राइडे की परम्परागत लैटिन प्रार्थना में से यहूदियों को निकलवा दिया। इंग्लैण्ड के एक कैथोलिक पादरी विलियम्सन ने यहूदियों के सामूहिक नरमेध (होलोकास्ट) की ऐतिहासिक घटना को पूरी तरह नकार दिया, जिस कारण उसे चर्च से निकाल दिया गया। किन्तु पोप ने 2010 में इंग्लैण्ड का दौरा करके विलियम्सन को चर्च में वापस ले लिया। लेकिन इन सब निर्णयों से यहूदी समाज और चर्च के बीच दूरी बढ़ गयी।
पल–पल बदलते पोप
पोप बेनेडिक्ट के सामने कैथोलिक चर्च में बाल यौनाचार की समस्या विकराल रूप धारण कर गयी थी। यह समस्या पोप जान पाल द्वितीय के समय ही प्रकाश में आ गयी थी। अमरीका में कई महत्वपूर्ण पादरियों को इस पाप में लिप्त पाया गया था। उनके विरुद्ध मुकदमे भी दायर हुए थे। किन्तु पोप और उनके सहयोगी जोसेफ रेतजिंगर ने इस पाप के बारे में चुप्पी साधना उचित समझा था। अब जब जोसेफ स्वयं पोप की कुर्सी पर आसीन थे तब उनके सामने समस्या थी कि आयरलैंड, स्पेन, पोलैंड जैसे देशों से बाल यौनाचार की शिकायतों की बाढ़ का सामना कैसे करें। उन्होंने आयरलैंड की शिकायतों की जांच के लिए एक समिति नियुक्त कर दी। आयरिश पार्लियामेंट ने इसे आयरलैंड के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहकर उसकी निंदा की। कुपित होकर वेटीकन ने आयरलैंड से अपने प्रतिनिधि को वापस बुला लिया। 2010 की नवम्बर 6 को पोप स्पेन में दो दिन के दौरे पर गये। वहां अपने भाषणों में उन्होंने भ्रूण हत्या और समलैंगिक विवाहों की भर्त्सना की। स्पेन की कैथोलिक मतावलम्बी सरकार ने इन दोनों कार्यों को कानूनी मान्यता दे दी थी। पोप ने कहा कि स्पेन लौकिकवाद के रास्ते पर तेज गति से दौड़ रहा है। चर्च में यह विवाद भी चल रहा था कि क्या पादरी होने के लिए ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य है? महिलाओं को पादरी बनने की मनाही क्यों है? पोप बेनेडिक्ट का इस प्रश्नों पर सुनिश्चित मत था, पर वे अपने मत का दृढ़ता से पालन नहीं करा पाये।
चीन की सरकार ने चीनी पादरियों पर दबाव डाला कि वे वेटीकन से अपना सम्बंध विच्छेद करा लें। वेटीकन ने 18 मई, 2011 को विश्व भर के कैथोलिकों का आह्वान किया कि वे अपने-अपने यहां प्रार्थना करें कि चीन के पादरीगण अपनी सरकार के दबाव में आकर रोम से सम्बंध विच्छेद न करें। पोप ने परिवार नियोजन के एक तरीके के प्रयोग को निषिद्ध ठहराया था जबकि चर्च अनुयायियों में इसकी मांग बढ़ रही थी। अंतत: पोप झुके और एड्स से बचने के नाम पर अनुमति दे दी। संक्षेप में कहना हो तो पोप बेनेडिक्ट कैथोलिक चर्च के नैतिक क्षरण को रोकने में असफल रहे। इस काल में उनके व्यक्तिगत बटलर पर वेटीकन के महत्वपूर्ण गोपनीय दस्तावेजों की चोरी का आरोप लगा, उन्होंने उसे क्षमा कर दिया और मुक्त कर दिया, पर वेटीकन से निर्वासित कर दिया। इस बटलर ने वेटीकन में चल रही गुटबंदी और षड्यंत्रों को सार्वजनिक कर दिया। उसने वेटीकन में व्याप्त भ्रष्टाचार और विलासिता का सार्वजनिक भंडाफोड़ कर दिया।
इस प्रकार पोप बेनेडिक्ट सोलहवें कैथोलिक चर्च के आंतरिक पतन को रोकने में पूरी तरह असफल रहे और यूरोप तथा अमरीका में अनेक वर्षों से घटते आ रहे चर्च के प्रभाव को आगे बढ़ने से नहीं रोक पाये। कैथोलिक चर्च की शक्ति के ह्रास का अनुमान इससे भी लग सकता है कि इंग्लैण्ड और वेल्स में 1960 में चर्च जाने वालों की रविवारीय संख्या 18 लाख थी, जो 2012 में घटकर आधी रह गई। अमरीका में 1960 की तुलना में यह संख्या घटकर एक तिहाई रह गयी है। फ्रांस में केवल 5 प्रतिशत और इटली में केवल 15 प्रतिशत कैथोलिक नियमित रूप से चर्च जाते हैं। पादरियों की औसत आयु 37 वर्ष से बढ़कर 52 वर्ष पहुंच गयी है।
गैरयूरोपियन पोप क्यों नहीं?
यद्यपि विश्व की कुल जनसंख्या का 16.85 प्रतिशत अंश अभी भी कैथोलिक है। किन्तु कैथोलिक जनसंख्या का केवल 25 प्रतिशत भाग यूरोप और अमरीका में है। 42 प्रतिशत भाग लैटिन अमरीका में है। 16 प्रतिशत भाग अफ्रीका में है और 15 प्रतिशत भाग एशिया में है। इस गणित के अनुसार विश्व भर में कैथोलिकों की एक अरब जनसंख्या में से यूरोप व अमरीका में मात्र 22 करोड़ 70 लाख, अफ्रीका में 17 करोड़ 70 लाख, एशिया में 13 करोड़ 70 लाख और लैटिन अमरीका में 48 करोड़ 30 लाख कैथोलिक जनसंख्या है।
इन आंकड़ों के आलोक में क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आज तक एक भी पोप गैरयूरोपियन नहीं चुना जा सका? इसका कारण पोप के चयन की वेटीकन द्वारा निर्धारित विधि है। इस विधि के अनुसार 120 कार्डीनल नये पोप का चयन करते हैं। चयन के लिए मतदान में भाग लेने वाले कार्डीनलों की दो तिहाई संख्या का समर्थन मिलना आवश्यक है। इन कार्डीनलों की नियुक्ति पोप स्वयं करता है। इस अधिकार का उपयोग करते हुए पोप बेनेडिक्ट ने 67 नये कार्डीनलों की नियुक्ति की है, उनमें से कुछ नामों को छोड़कर अधिकांश नाम यूरोप के हैं। मतदान की विधि के अनुसार मतदान बंद कमरे में होता है। यदि बहुमत किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में जाता है तो वेटीकन की चिमनी सफेद धुआं उगलती है, यदि परिणाम अनिर्णीत रहता है तो काला धुआं। मतदान के पश्चात मतपत्र जला दिये जाते हैं यानी उसका कोई प्रमाण शेष नहीं रहता। इस जटिल मतदान विधि और कार्डीनल समूह की रचना के रहते यदि इस बार पोप पद यूरोप के बाहर चला गया तो वह एक सुखद आश्चर्य ही होगा। यद्यपि अफ्रीका, लैटिन अमरीका और यहां तक कि एशिया के भी कुछ नाम उछाले जा रहे हैं। 31 मार्च तक पोप का चयन होना है, ऊंट किस करवट बैठता है, यह चयन विधि के पूरा होने के बाद ही पता चल पाएगा।(15 फरवरी, 2013)
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