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भारत की स्वतंत्रता सेनानी कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने राष्ट्र के समक्ष एक प्रश्न रखा था- वीरों का कैसा हो वसंत?
आ रही हिमालय से पुकार, है उदधि गरजता बार–बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार, सब पूछ रहे हैं दिग–दिगंत
वीरों का कैसा हो वसंत
इसी का उत्तर देश के स्वतंत्रता के पथ पर बढ़े असंख्य पथिकों ने अपना जीवन देकर दिया था तथा भारत मां का अभिषेक अपने पावन रक्त से किया था। ज्ञात-अज्ञात हजारों नहीं, लाखों भारतवासियों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिया, खून दिया, पर स्वाभिमान नहीं दिया। फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते लटक गए, पर देश का दुर्भाग्य कि उनका नाम आज कोई नहीं जानता। लेकिन कष्ट तब होता है जब स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं ने गांधी जी के नाम पर यह झूठ बोलना प्रारम्भ कर दिया कि 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल' और इसे 'साबरमती के संत का कमाल' बता दिया। मेरा दृढ़ विश्वास है कि स्वयं गांधी जी भी यह झूठ कभी न सह पाते, पर जब गांधी जी को प्रतिमा बना दिया गया तो उनके नाम के साथ जोड़कर कुछ भी कहने में किसी को संकोच नहीं।
जरा याद करो कुर्बानी
यह कह देना कि रक्त की बूंद बहाए बिना आजादी मिल गई, एकदम अन्याय है, उनके साथ जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रहित में अपना शीश दान किया था। किसी इतिहासकार के पास भी वह संख्या नहीं जितने लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर ही चढ़ा दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने गली-बाजारों में कत्लेआम भी किया। महिलाओं का सम्मान लूटना तो जैसे उनका क्रूर शौक था। 1905 में जो बंगाल के विभाजन के विरुद्ध अनुपम आंदोलन चला, उसमें सफलता भी देश के पवित्र खून ने ही दिलवाई थी। कलकत्ता की गलियों में, ढाका के बाजारों में वंदेमातरम् का सिंहनाद करतीं भारत की संतानों ने रक्त भी दिया, घाव भी सहे और कन्हाई, नरेन्द्र, खुदीराम बोस इत्यादि इसी जनांदोलन में भारत के चरणों में अर्पित हो गए। कितने कलम वालों ने स्वतंत्र चिंतन करते हुए जेलों की मृत्यु सरीखी कष्टदायक यातनाएं सहीं, यह भी स्मरणीय है और गांधी जी निश्चित ही यह सब जानते थे।
हम जलियांवाला बाग की धरती के बलिदानों के भी साक्षी हैं। जब जनरल डायर और उसके संरक्षक माइकल ओडवायर ने संगीनों की छाया में जलियांवाला बाग को घेरा तथा एक शब्द 'फायर' बोलने के बाद जो आग बरसाई उसमें एक हजार से अधिक लोग शहीद दो गए। अन्य अनेक घायल हुए, पर खून तो सबका बहा था। क्या उस रक्त को अनदेखा किया जा सकता है जो स्वतंत्रता का अभिषेक करने के लिए देश के बेटे-बेटियों ने सहर्ष बहा दिया? जलियांवाला बाग की धरती का मौन संदेश यही है कि राष्ट्र के पुत्रों का राष्ट्रहित में बहा वह रक्त व्यर्थ नहीं जाना चाहिए और इसी खून से प्रेरणा लेकर बालक ऊधम सिंह शहादत का घूंट भरकर शहीद ऊधम सिंह बन गया और यहीं की मिट्टी संजो कर भगतसिंह बलिपथ पर चल पड़ा। क्या देश यह भुला सकता है कि लंदन की पैटनविले जेल में अमृतसर के सपूत मदनलाल ढींगरा ने 1909 में अपना रक्तरंजित शीश भारत मां को अर्पित किया और यहीं सन 1940 में ऊधम सिंह भी फांसी के फंदे पर लटके।
खून से हुआ स्वातंत्र्य अभिषेक
'दिल्ली चलो' और 'जयहिंद' का नारा लगाते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज जब बर्मा से मणिपुर के रास्ते भारत की ओर बढ़ रही थी तब भी तो वे खून ही दे रहे थे। हाथ में खड्ग थी, आवाज में विदेशियों के लिए ललकार थी और रक्त अर्पित करता हुआ यह वीर सैनिक भारत की आजादी के लिए बढ़ रहा था। गांधी जी के नाम पर यह कहने वाले कि 'रक्त की एक बूंद न बहाई और आजादी मिल गई', इन सभी बलिदानियों के बलिदान को नकारने का दुस्साहस करते हैं, जिसे कोई भी राष्ट्रभक्त स्वीकार नहीं कर सकता। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, काकोरी कांड के रामप्रसाद बिस्मिल और अश्फाक जैसे शहीद अपना पवित्र रक्त भारत मां के लिए अर्पित करके ही शहीदों की पंक्ति में स्थान पा सके। 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाते हुए जिन देशवासियों ने अपनी छाती पर अंग्रेजों की लाठियां खाईं उन्होंने भी तो खून ही दिया था, तभी भारत मां का स्वातंत्र्य अभिषेक हो सका था। लाला लाजपत राय का बलिदान कैसे भुलाया जा सकता है?
जापानी क्रूरता
काले पानी की जेल अर्थात मृत्यु की कालकोठरी में भी तो भारत के एक हजार से ज्यादा पुत्र साधना करते रहे। कुछ मारे गए, कुछ यातनाओं की पीड़ा सहकर संसार से विदा हो गए और जो आज सबसे याद रखने वाली घटना है वह तो 30 जनवरी की ही है, जिसे अंदमान के लोगों को छोड़कर शायद कोई नहीं जानता। गांधी जी के बलिदान से पहले, 30 जनवरी 1944 को वसंत पंचमी के दिन इसी सैलूलर जेल में जापानियों ने क्रूरता का नंगा नाच किया था। अंग्रेजों से जापानियों ने अंदमान मुक्त करवा लिया और जिन भारतीयों पर उनको यह संदेह था कि वे अंग्रेजों के लिए जासूसी करते हैं, उन्हें पकड़-पकड़ कर इन्हीं काल-कोठरियों में डाल दिया तथा जुल्म करने में अंग्रेजों से भी आगे निकल गए। वसंत पंचमी की सुबह सभी कैदियों के रिश्तेदार और नगर निवासी सपरिवार जेल के दरवाजे पर बुलाए गए। भारी संख्या में सशस्त्र सेना वहां आई। 44 कैदी जेल के दरवाजे पर लाकर पीटे गए और फिर ट्रकों पर चढ़ा लिए गए। वातावरण चीखों और सिसकियों से गूंज उठा। सख्त पहरे में अंग्रेज इन्हें ले गए। सभी कैदी 'वंदेमातरम्' तथा 'भारत माता की जय' का घोष करते हुए कहते रहे कि वे निर्दोष हैं, पर उन्हें मारने के लिए ले जाया जा रहा था। कुछ ही देर में नगर से कुछ दूरी पर ले जाकर इन्हें गोलियों से भून-भून कर पहले ही तैयार किए गड्ढों में डाल दिया गया। जब अंग्रेजों ने पुन: इस द्वीप पर कब्जा किया तब यह जानकारी मिली कि हम्फ्रीगंज में वह कत्लेआम हुआ था। आज वहां बलिदान वेदी है जहां उन शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।
मैं पूछना चाहती हूं कि जब हम गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर भारत के ज्ञात-अज्ञात शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं तो फिर हम्फ्रीगंज के शहीदों को देश याद क्यों नहीं करता? क्या उनका खून खून नहीं था? क्या वे भारत की संतान नहीं थे? क्या उनका बलिदान भारत की स्वतंत्रता के लिए नहीं था? भारत के शिक्षा शास्त्रियों, इतिहासविद् और जागरूक नागरिकों को अपने देश को यह याद दिलाना होगा कि यद्यपि महात्मा गांधी का राष्ट्र को नेतृत्व सबके लिए आदरणीय और स्मरणीय है, पर यह कहना कि 'रक्त की एक बूंद बहाए बिना देश को स्वतंत्रता मिल गई', भारत की संतानों द्वारा अर्पित किए रक्त का अपमान होगा।
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