पांखी का संदेश
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डा. तारादत्त 'निर्विरोध'
कुछ दिन रुककर लौट रहे हैं
अपने–अपने देश,
पांखी बनजारे
काले श्वेत और कुछ भूरे,
नीले–पीले या अंगूरे;
एक साथ जो उड़कर आए
रहते पेड़ों के कंगूरे।
अब न रुकेंगे नील झील में–
देते नव संदेश
पांखी रत्नारे।
अक्षर से नभ में लिख जाते;
संग हवा के फिर लहराते;
मिलने को बांहें फैलाते
बरस–बरस में गुनगुन गाते–
जीवन के उपदेश,
पांखी जयकारे!
जाने क्या देते, क्या पाते?
बंधुत्व भाव जो अपनाते;
प्रेम–रंग हर क्षण बरसाते
गगन–मार्ग में फिर फहराते।
मौन–मुखर परिवेश,
पांखी गंधारे।
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