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चुनाव में हार-जीत तो लगी ही रहती है। सामान्यत: हारने वाला हार स्वीकार कर उसकी समीक्षा की बात करता है और जीतने वाला सबका धन्यवाद करता है और उसे सबकी जीत बताता है। पर 'कांग्रेसी कल्चर' अलग है। दूसरे की जीत को पचाना और अपनी हार स्वीकारना इन्हें आता ही नहीं। कांग्रेस प्रवक्ता ने पहले कहा कि हमने भाजपा से एक राज्य (हिमाचल) छीन लिया, जीत हमारी ही हुई है। फिर केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम् बोले, 'गुजरात में जितना भाजपा ने दावा किया, उससे उसे कम सीटें मिलीं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत और सीटें बढ़ी हैं। जीत तो हमारी हुई है।' और कांग्रेस के बड़बोले पूर्व प्रवक्ता मनीष तिवारी, जो अब मैडम की कृपा से केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बन गए हैं, तो कुछ आगे ही चले गए। उनकी सुनिए, 'गुजरात में भाजपा 140 सीट तक जीतने का दावा कर रही थी, पर जीती 115, उसकी तो हार हुई है। और जिन 12-13 सीटों पर श्री राहुल गांधी ने प्रचार किया वे सब सीटें कांग्रेस जीती।' सूचना मंत्री, झूठ का प्रसारण बंद करो। पहली बात तो यह कि भाजपा ने कभी 140 सीट जीतने की बात नहीं कही। सर्वेक्षणों में ये अनुमान लगाए गए। दूसरी बात, जिन 12-13 सीटों पर मतदान से ठीक एक दिन पहले राहुल गांधी प्रचार करने गए, उनमें से मात्र 7 सीटें ही कांग्रेस की झोली में गिरीं। और अगर राहुल गांधी इतने ही जिताऊ नेता हैं तो पहले से ही चुनाव प्रचार करने क्यों नहीं गए? जाते सभी 182 सीटों पर और जीत लेते गुजरात? कौन रोक रहा था उन्हें? मोदी जी तो बुला रहे थे कि आओ राहुल भइया। सच क्यों नहीं बताते कि मियां अहमद पटेल की सलाह पर मतदान से सिर्फ एक दिन पहले राहुल गांधी को उन्हीं चुनाव क्षेत्रों में भेजा गया जिनके बारे में पक्का पता कर लिया गया था कि वहां के कांग्रेसी उम्मीदवार की स्थिति काफी मजबूत है। और कांग्रेस गांधी परिवार के साये में इतनी ही सुरक्षित है तो गुजरात चुनाव में इस बार, हर बार और हर जगह की तरह पोस्टर पर से इंदिरा, राजीव, सोनिया और राहुल के फोटो क्यों गायब रहे? इन कांग्रेसियों से भी कुछ आगे निकल गए मोदी को बदनाम करने के 'सेकुलरी षड्यंत्र' में सहभागी गुजरात के निलंबित और विवादित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट, जिनकी पत्नी को कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मणिनगर से चुनावी मैदान में उतारा था। पत्नी की करारी हार के बाद जनमत का अपमान करते हुए संजीव भट्ट ने कहा 'राजनीति के दिवालिएपन की इससे दु:खदायी झलक नहीं हो सकती। गुजरात के मतदाताओं ने असली की बजाय नकली, प्रकाश के बदले अंधकार और प्यार के बदले नफरत को चुना।'
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