मौलाना वहीदुद्दीन का विचार अप्रासंगिक है बाबरी आन्दोलन
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अप्रासंगिक है बाबरी आन्दोलन
दूसरी बाबरी 'मस्जिद' के निर्माण का आन्दोलन कोई अर्थ नहीं रखता है।' यह कहना है विख्यात इस्लामी विचारक मौलाना वहीदुद्दीन का। इसे प्रकाशित किया है दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक नई दुनिया ने। दस दिसम्बर के अंक में मौलाना को उद्धृत करते हुए पत्र लिखता है, 'एक व्यक्ति का कथन है कि… जीवन में कोई अवसर केवल तीन बार आता है, चौथी बार नहीं। बाबरी ढांचे के मामले में उक्त कथन बिल्कुल सही है। बाबरी ढांचे के मामले में मुसलमान तीन अवसर खो चुके हैं। अब चौथा अवसर उन्हें नहीं मिलने वाला है। बाबरी को समस्या बनाने का पहला अवसर तब था जब बाबर के गर्वनर मीर बाकी ने 1528 में अयोध्या में 'ढांचे' का निर्माण करवाया। इस स्थान पर बाबरी ढांचे से पूर्व हिन्दुओं का एक पवित्र स्थान था, जिसको वे राम चबूतरा या राम मन्दिर कहते थे। मीर बाकी ने राम चबूतरे को आंगन से मिलाकर ढांचे का निर्माण करवाया। इस मामले में प्रथम अवसर को खोना था। क्योंकि द्वितीय खलीफा उमर फारुक द्वारा निश्चित किए गए एक नियम के अनुसार दो इबादत स्थलों को (रफीता हुजर) स्टोन्स थ्रो की दूरी पर होना चाहिए। लेकिन मीर बाकी ने इस सिद्धांत को क्रियान्वित न करके पहले दिन से ही बाबरी ढांचे को एक विवादित स्थान बना दिया। इस मामले में दूसरा अवसर वह था जब 1949 में कुछ हिन्दुओं ने बाबरी ढांचे के भीतर तीन बुत (प्रतिमाएं) रख दिए। उस समय मुसलमानों के लिए यह अनिवार्य था कि वे इस मामले को अदालत तक ही मर्यादित रखते। लेकिन मुस्लिम नेता इस मामले को सड़कों पर ले आए। इस प्रकार मुस्लिम नेताओं ने दूसरा अवसर भी खो दिया। क्योंकि सड़क पर आ जाने के बाद समस्या अधिक पेचीदा हो जाती है। उसका समाधान कभी नहीं होगा।
तीसरा अवसर तब आया था जब उत्तर प्रदेश की सरकार ने यह प्रस्ताव रखा कि यदि ढांचे को री लोकेट (अन्यत्र स्थानान्तरित) करने के लिए तैयार हों तो वह मस्जिद के लिए मुसलमानों की पसंद के अनुसार अन्य स्थान देने के लिए तैयार है। लेकिन मुसलमानों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा कर तीसरा अवसर भी खो दिया। उसके पश्चात् 6 दिसम्बर 1992 को ढांचा ढहा दिया गया। अब बाबरी ढांचे के पुनर्निर्माण का आन्दोलन चलाने का अर्थ है चौथा अवसर तलाश करना जो कि सिरे से मिलने वाला ही नहीं।'
दो टूक बात
उपरोक्त विश्लेषण मात्र मौलाना का ही नहीं है। उन्होंने एक बार फिर से अत्यंत सटीक भाषा में मुसलमानों से दो टूक बात कह दी है। लेकिन मुस्लिम नेता और मौलानाओं पर इसका कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। वे तथाकथित नेता और राजनीतिक दल, जो अपने वोट बैंक बनाने की खातिर इस मामले को कभी सुलझाने के पक्ष में रहने वाले नहीं हैं। सरकार और राम मन्दिर निर्माण के विरोधी यदि इस समस्या को हल करना चाहते तो राम सेतु का मामला ही नहीं उठाते। लेकिन राम के विरोधी बनकर जब उन्हें सत्ता मिल सकती है तो इस भाव में उनके लिए क्या बुरा है? किसी मामले को बीच में लटकाना हो अथवा उसे लम्बा खींचना हो तब उसे अदालत में चुनौती देने का सीधा और सरल मार्ग है। इसलिए राम मन्दिर के निर्माण का मामला खटाई में पड़ जाना कोई बड़ी बात नहीं है। अदालत अपना निर्णय देती है तब भी बाबरी के समर्थक तो इस मामले में अपने दृष्टिकोण को बदलने वाले नहीं हैं। मौलाना वहीदुद्दीन एवं स्व. मौलाना इलयासी जैसे लोग उस सम्बंध में लाख प्रयास करें तब भी इसका कोई हल सामने नजर नहीं आता। हर 6 दिसम्बर को इस प्रकार के बेतुके दृश्य देखने को मिलते हैं। अदालत की बात बाबरी समर्थक लोग केवल इसलिए करते हैं कि मामला लम्बा खिंचता चला जाए।
संसद में काले झण्डे
लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद और उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च हैं। बाबरी के पक्षधर अपना विश्वास देश की इस बड़ी अदालत में बताने की घोषणा करते नहीं थकते। लेकिन कोई उनसे पूछे कि इस बार 6 दिसम्बर को लोकसभा में काले झंडे लहराने वाले कौन थे? संसद को काले झंडे दिखाने का अर्थ है सर्वोच्च न्यायालय को काले झंडे दिखाना। बसपा सांसद शफीकुर्रहमान ने बाबरी ढांचा विध्वंश के लिए संसद में काले झंडे दिखाए। इस हरकत से अध्यक्ष मीरा कुमार बेहद नाराज हुईं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे झंडे लहरा कर सदन का अपमान कर रहे हैं। संसद का अपमान क्या उच्चतम न्यायालय का अपमान नहीं है? इन काले झण्डों से बाबरी के पक्षधरों ने यह सिद्ध कर दिया कि उनका उच्चतम न्यायालय में विश्वास नहीं है। इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया कि उन्हें भारत की न्याय प्रणाली में भी विश्वास नहीं है। इसलिए सवाल यह उठता है कि जब बाबरी प्रकरण भारत की सबसे बड़ी अदालत में विचाराधीन है उस समय उस पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया जा रहा है। तब क्या फैसला आ जाने के बाद वे इसे स्वीकार करेंगे? बाबरी के पक्षधर जब संसद और सर्वोच्च न्यायालय में ही विश्वास नहीं रखते हैं तब इस मामले का समाधान किस प्रकार होगा, यह अब सबसे अधिक चिंताजनक मुद्दा है। काले झण्डे दिखाने की जुर्रत इस बात को साबित करती है कि ऐसे लोग इस देश की संसद और न्याय प्रणाली में विश्वास नहीं करते। शायद बाबरी समर्थकों ने यह फैसला कर लिया है कि निर्णय कुछ भी आए वे राम जन्मभूमि पर कब्जा करके बाबरी का निर्माण करने के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ेंगे। न्यायालय में लड़ने वाला एक पक्ष जब फैसला आने से पहले ही अपने पक्ष के फैसले पर प्रतिबद्ध है तो फिर न्यायालय में इस बहस का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है।
राम जन्मभूमि न्यास के लिए यह निर्णायक घड़ी है। उनकी सहनशीलता की परीक्षा सरकार और बाबरी के पक्षधर बार-बार ले रहे हैं। कानून को सम्मान देने का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी की आस्था का अपमान करके जनता, संसद और सर्वोच्च न्यायालय को बारम्बार आतंकित करते रहें? मुस्लिम देशों में मस्जिद को स्थान से हटाए जाने की असंख्य घटनाएं घटित हुए हैं, लेकिन वहां तिनका भी नहीं गिरता है। जो कुछ होता है वह केवल भारत में ही होता है।
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