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मैं यहां से दूर एक गांव में रहता था। वहां हरिदास नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था। हरिदास अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे इतने अधिक निर्धन थे कि अक्सर उन्हें भोजन भी नहीं मिलता था। हरिदास के पास कुछ धार्मिक ग्रंथ थे और उनमें से वह अतीत में हुए महान व्यक्तियों की कहानियां पढ़ा करता था। उन कथाओं को वह ग्रामवासियों को सुनाया करता था जिससे कि वे भी परोपकार और दया का पाठ सीख सकें। ग्रामवासी उसे भेंट में आटा, चावल, साग, फल आदि दिया करते थे। वह उन्हें घर जाकर सावधानी से चार बराबर भागों में बांटता, जिससे परिवार के चारों सदस्यों को समान हिस्सा मिल सके। हरिदास और उसके परिवार का जीवन इसी प्रकार चल रहा था।
कुछ समय बाद गांव में ऐसी स्थिति आई कि ग्रामवासियों के पास अपने लिये भी पर्याप्त भोजन नहीं रहता था। वर्षा न होने के कारण खेतों की सारी फसल सूख कर नष्ट हो गयी थी। तीन वर्ष तक वहां वर्षा नहीं हुई जिससे वहां के सारे कुएं भी सूख गये। दिन-प्रतिदिन दशा बिगड़ती गयी और वहां के लोग भूख-प्यास से व्याकुल रहने लगे। हरिदास और उसके परिवार के सदस्य भी अत्यधिक क्षुधा-पीड़ित रहने लगे। वे दुर्बल होने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे।
एक बार कुछ यात्री उस गांव से गुजर रहे थे और उन्होंने जब गांव की दुर्दशा देखी तो गांव वालों को आटे का एक बड़ा बोरा दिया। गांव वाले आनन्द से भर उठे। परन्तु वे अपने गुरु और मित्र हरिदास को भूले नहीं। उन्होंने उसे भी थोड़ा आटा भिजवाया।
हरिदास प्रसन्नता से अपनी पत्नी को पुकार उठा, 'देखो! देखो! कुछ तो आया खाने के लिए।'
उसकी पत्नी ने आटे को देख कर कहा, 'यह तो चार व्यक्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। मैं आप तीनों के लिए रोटी बना दूंगी।'
'नहीं! नहीं!' हरिदास ने कहा- 'हम सभी तो भूखे हैं। तुम चारों के लिए छोटी-छोटी चार रोटियां बना लो।'
हरिदास की पत्नी और उसकी पुत्रवधू ने चार समान रोटियां बनाईं, तथा पुकार कर हरिदास को कहा-
'आओ जल्दी खा लें क्योंकि हम सब बहुत भूखे हैं।' उसने सबको एक-एक रोटी दी और एक अपने लिए रख ली। ठीक उसी समय बाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया।
'भला इस समय कौन आया है?' ऐसा सोचकर हरिदास ने अपनी रोटी रखी और उठकर दरवाजा खोलने गया। उसने वहां फटे चिथड़े में लिपटे एक भिखारी को खड़ा देखा।
'मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?' हरिदास ने पूछा।
आगन्तुक व्यक्ति ने कहा, 'मैं वाराणसी जा रहा हूं। मैंने रास्ते में बच्चों से एक भले आदमी के घर का ठिकाना पूछा। वे ही मुझे तुम्हारे घर ले आये। मैं भूखा और थका हुआ हूं। महाशय, क्या मैं यहां कुछ देर के लिए विश्राम कर सकता हूं? सचमुच मैं बहुत भूखा हूं।'
हरिदास ने ध्यान से उस व्यक्ति का चेहरा देखा। हां, वह बहुत थका हुआ और दुर्बल दिखाई पड़ रहा था। उसे भोजन की आवश्यकता थी।
हरिदास ने उस अतिथि का स्वागत किया। अतिथि की सेवा करना भगवान की ही सेवा करना है। वह उसे अपने कमरे में ले गया और बैठने के लिए स्थान दिया।
हरिदास कहने लगा, 'हमारे पास अधिक कुछ खाने को नहीं है, पर आज ही हमें कुछ आटा मिला जिससे हमने चार रोटियां बनाई हैं, एक मैं तुम्हारे लिये लाया हूं।' ऐसा कहकर हरिदास ने उसे अपनी रोटी दे दी।
अन्य तीन व्यक्ति उसे देख रहे थे कि किस प्रकार आतुरता से उसने रोटी खा ली। खाकर फिर उसने कहा, 'अहा! कितनी अच्छी थी रोटी- पर भूखे व्यक्ति की भूख तो थोड़ा-सा खा लेने से और भी अधिक बढ़ जाती है। बहुत भूख लग रही है- मेरा पेट जला जा रहा है, कहीं मेरे प्राण ही न निकल जायें।' हरिदास की पत्नी ने देखा और अपनी रोटी उसे दे दी।
हरिदास के प्रतिकार करने पर उसने कोमलता से कहा, 'हम गृहस्थ हैं, और हमारे घर एक भूखा अतिथि आया है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसे खाना दें। आपने अपनी रोटी दे दी और अब आपकी पत्नी होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी रोटी भी उसे दे दूं।'
वह रोटी भी आगन्तुक शीघ्र ही खा गया। हरिदास की पत्नी ने पूछा, 'अब कुछ ठीक लगा?' 'अभी भी भूख बहुत लगी है', आगन्तुक ने कहा।
हरिदास के पुत्र ने कहा- 'पिता के कार्य को पूरा करना पुत्र का धर्म है, अत: मेरी यह रोटी तुम ले लो।' ऐसा कह कर हरिदास के बेटे ने अपनी रोटी उसे दे दी।
उसे भी खाकर जब वह तृप्त नहीं हुआ तब पुत्रवधू ने भी अपनी रोटी उसे दे दी और तब कहीं जाकर उसे शान्ति मिली।
उसने कहा, 'अब मैं ठीक हूं। अब मुझे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ना चाहिए।' खड़े होकर उसने उन लोगों को आशीर्वाद दिया और पुन: यात्रा पर चल पड़ा।
उसी रात भूख से हरिदास, उसकी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू की मृत्यु हो गयी। ('विवेकानन्द की मनोरम कहानियां' से साभार)
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