खाना और नहाना
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खाना और नहाना
दादी की भाषा मुहावरेदार और कहावत-लोकोक्तियों से भरी होती थी। वे अपनी बात को पुष्ट और प्रभावशाली बनाने के लिए उस क्षेत्र में प्रचलित मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग करते-करते कभी-कभी नई-नई लोकोक्तियां भी गढ़ लेतीं। आंगन में आठ बहुएं थीं। नौकर-चाकर, बेटियों और बहुओं के क्रिया कलापों पर ध्यान रखती हुई ढेर सारी लोकोक्तियां बोलती रहतीं। बहुओं को पता था कि किस परिस्थिति में वे कौन सी लोकोक्ति बोलेंगी। जब कभी कोई बहू देर तक खाती रहती, वे बोल उठतीं- 'औरत का खाना, मर्द का नहाना, कोई देखे, कोई ना देखे।'
बार-बार सुनकर मुझे भी वह लोकोक्ति स्मरण हो गई थी। अर्थ का पता नहीं चला। पूछने पर दादी ने बताया- 'औरत को जल्दी भोजन समाप्त करना चाहिए और मर्द को नहाने में समय नहीं लगाना चाहिए।' इसका अपवाद भी होता था। दादी खाना खाने में स्वयं बहुत देर लगाती थीं। उनका एक और वक्तव्य प्रचलित था-'औरत कहीं खाएगी भात-दाल और तरकारी।' पूछने पर दादी ने ही बताया था- 'घर में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन पुरुषों के लिए ही बनता है। इसलिए पति का एक नाम खनिहार (खाने वाला) भी है। औरत तो कुछ भी खाकर पेट भर लेती है। बचा-खुचा खाना ही औरत के नसीब में है।'
यह बात तो मैं जल्दी समझ गई थी। क्योंकि घर में मर्दों को दूध-दही, दो-तीन सब्जियां, फल सब खिलाए जाते थे। उन्हें पूछ-पूछ कर खिलाने के लिए दो-तीन महिलाएं खड़ी होतीं। उनकी जूठी थाली में ही उनकी पत्नियां खातीं। कभी-कभी तो जान-बूझकर पति कोई स्वादिष्ट पदार्थ अपनी थाली में परोसवा लेता। जूठन छोड़ देता ताकि उसकी पत्नी खा सके। पतियों को मालूम होता था कि जितने स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते थे, उतने उनकी पत्नियों की थालियों को नसीब नहीं होते थे। पर आंगन में जिस किसी बहू के गर्भवती होने की खबर मिलती, दादी उसकी विशेष देखरेख करनी प्रारंभ कर देतीं। उसे भारी वस्तु नहीं उठाने देतीं, रात्रि को बाहर नहीं निकले देतीं, रात्रि को आंगन में नहीं सोने देतीं। ऐसे अनेकानेक निषेध होते थे गर्भवती औरत के लिए। उसके गर्भवती होने पर उसके भोजन की विशेष व्यवस्था होती थी। उससे पूछ-पूछ कर भोजन करवाया जाता था।
दादी पूछतीं-'कुछ विशेष खाने का मन करता है तो बता दे। वरना तुम्हारी इच्छा अतृप्त रहने पर बच्चे की लार टपकेगी।'
किसी बच्चे की लार टपकने पर दादी अकसर उसकी मां को डांटतीं- 'मैंने पूछा था न, क्यों नहीं बतायी अपनी इच्छा। देखो अब तुम्हारा बच्चा मेरे कपड़े भिगोता है।' बच्चे की लार टपकने और उसकी मां की इच्छा अतृप्त रहने में क्या संबंध था, मुझे अबतक समझ में नहीं आया। परंतु दादी की समझ बेसमझ नहीं होती थी। वह पीढ़ियों की संग्रहीत समझ थी।
गर्भवती महिला को पौष्टिक आहार खिलाया जाता था। औषधियां भी। समाज ने एक और व्यवस्था कर रखी थी। रिश्तेदारियों में एक रस्म प्रचलित थी। जिसे 'सधोर' कहा जाता था। किसी महिला के गर्भवती होने पर उसके मायके और अन्य रिश्तेदारों के यहां से 'सधोर' आता था। उसमें खीर, पूरी, पुआ तथा अन्य पकवान और फल होते थे। ढेर सारे भेजे जाते थे। सच बात तो थी कि उस 'सधोर' पर उस गर्भवती औरत का ही हक होता था। पर घर के अन्य लोग भी खाते थे, जो नहीं खाना चाहिए था। आस-पड़ोस के घरों में कोई स्वादिष्ट व्यंजन बनने पर गर्भवती औरत के लिए भेजा जाता था।
समाज व्यवस्था में इन बातों पर बहुत ध्यान दिया जाता था। बच्चे के जन्म पर दादी एक सोहर गाती थीं-
सास-'मचिया बैठली सासू, बालका मुख निरखले
बहू जी कौन–कौने फल खइलू बालक बड़ा सुन्दर।'
बहू– 'आम जे खइली, अमरूदवा, औरो केलवा हे
सासू फल हम खइली अनार, बालक बड़ा सुन्दर हे।'
इस प्रकार से अनपढ़ महिलाएं भी जानती थीं कि गर्भवती औरत को अधिक फल और पौष्टिक भोजन करना चाहिए। औरत को कम और बचाखुचा खाना देने वाली सासें भी विशेष ध्यान देकर उन्हें खिलाती-पिलाती थीं।
बच्चा जन्म लेने के बाद तो जच्चा के भोजन पर विशेष ही ध्यान दिया जाता था। ऐसे पदार्थ खिलाए जाते जिससे प्रसव के समय उसके शरीर के अंदर की टूट-फूट जुड़ कर जख्म भर जाए। उसे विशेष ताकत आए। बच्चे के लिए यथेष्ट दूध हो। इसलिए हल्दी, गुड़, मखान, जीरा, मंगरैला, गोंदे जैसी औषधियों का सेवन करवाया जाता। इन पदार्थों के लड्डू या हलुआ बनाकर दूध के साथ खिलाया जाता। सच बात तो यह थी कि घर के सभी सदस्यों का ध्यान आने वाले बच्चे पर होता था। औरत का शरीर तो माध्यम था। बच्चा स्वस्थ्य होना चाहिए था।
लोकगीतों के माध्यम से गर्भवती औरतों के खान-पान, रहन-सहन, व्रत-त्योहार के बारे में सबको जानकारियां दे दी जाती थीं। एक गीत में सास पूछती है-
सास– 'बहू जी कौन–कौन व्रत कइली,
बालक बड़ा सुन्दर हे।'
बहू– 'कार्तिक मास गंगा नहइली,
सूरज गोरलागली
सासू व्रत कइली एतवार, बालक बड़ा सुन्दर हे।'
अर्थात कार्तिक मास में गंगा नहाई, सूरज को प्रतिदिन प्रणाम किया और रविवार का व्रत (नमक नहीं खाना) किया, इसीलिए बालक सुन्दर है।
गर्भवती के शरीर में सूर्य की रोशनी का भरपूर प्रवेश आवश्यक होता है। उसके शरीर की मालिश भी चाहिए। उसके भोजन में घी का प्रयोग भी अधिक किया जाता है। गरीब से गरीब परिवार अपनी सामर्थानुसार गर्भवती औरत और जच्चा को भी पौष्टिक भोजन कराता है।
बच्चा, मात्र मां की जिम्मेदारी नहीं होता। पूरे परिवार का होता है। इसलिए परिवार और रिश्तेदार मिलकर गर्भवती औरत और बच्चे की देखरेख की परंपरा रही है। किसी वैद्य या चिकित्सक के पास भी जाने की जरूरत नहीं। सभी बड़ी औरतें दवा की जानकार होतीं। जच्चा और बच्चे की छोटी मोटी तकलीफों की दवा भी कंठाग्र होती थीं। मुहल्ले-टोले में एक न एक औरत गर्भवती के भोजन, उसके कुछ शारीरिक कष्ट, बच्चे के रोने की विशेषज्ञ होतीं। विशेष दवा-दारू भी जानती रही हैं। हर छोटी-छोटी समस्या के लिए चिकित्सक के पास नहीं जाना पड़ता। ऐसा तभी संभव होता था, जब गांवों में सामूहिक जीवन होता था। दु:ख-सुख भी साझा होता था, बच्चा भी साझा। आज स्थितियां बदल गईं। समस्याएं बढ़ गईं। गर्भवती औरतें और बच्चे की जिम्मेदारी भी सरकार अपने ऊपर लेने का दावा करती है। परिवार और समाज हाथ पर हाथ धरे बैठा है। अब मेरी दादी जैसी महिलाएं कहां, जो बहुओं को भरपेट भोजन करने से भले ही मनाही करती थीं, पर उसके गर्भवती और जच्चा होने पर विशेष भोजन कराती थीं। उद्देश्य बच्चा ही होता था, पर भला तो औरत का ही होता था। फिर तो थोड़े समय के लिए दादी यह कहना भी भूल जाती थीं- 'औरत का खाना, मर्द का नहाना, कोई देखे, कोई ना देखे।' सच तो यह है कि गर्भवती और प्रसूति बनकर ही औरत को अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति का भान होता है। वह परिवार वालों की केन्द्र बिन्दु बन जाती है।
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