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पिछले कई वर्षों से संप्रग की दूसरी पारी की सरकार लगातार यह प्रयास कर रही थी कि 'मल्टी ब्रांड' खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दे दी जाए। मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई का मतलब है वालमार्ट, टेस्को, कैरेफॉर इत्यादि कंपनियों को भारत में अपने 'स्टोर' खोलने की अनुमति देना। हमारे देश में साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली अनेकानेक पार्टियां मुस्लिम हितों के संरक्षण की बात करती रहती हैं। बाबरी ढांचे के ध्वस्त होने से 'मुस्लिमों की पीड़ा' उनके बयानों से अक्सर झलकती रहती है। चाहे सच्चर समिति द्वारा मुस्लिमों को छात्रवृत्तियां, शिक्षा में प्राथमिकता और अन्यान्य प्रकार की आर्थिक सहायता के रूप में तरह-तरह की सुविधाओं की वकालत करने वाले ये नेता ऊपरी तौर पर मुस्लिम हितों के सबसे बड़े समर्थक दिखने का प्रयास करते हैं। गौरतलब है कि एक बार तो तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यहां तक कह दिया कि, देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। विभिन्न स्तरों पर न्यायालयों से फटकार खाने के बाद भी हमारे ये सेकुलर राजनेता मुस्लिमों को रिझाने के लिए लगातार इस जुगत में रहते हैं कि वंचितों की तर्ज पर मुस्लिमों को भी आरक्षण की सुविधा मिल जाए।
दोगलापन साफ झलका
लेकिन खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मुद्दे पर जब संसद में बहस चल रही थी और मतदान द्वारा फैसला हो रहा था, तो इन राजनीतिक दलों और राजनेताओं के मुस्लिम समर्थन की पोल खुल रही थी। इन राजनेताओं का कहना था कि यदि इस मुद्दे पर संप्रग सरकार के इस फैसले के विरोध में मतदान किया जाता है तो इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा और साम्प्रदायिक शक्तियां मजबूत हो जायेंगी। इसका मतलब यह है कि एफडीआई का समर्थन 'पंथनिरपेक्षता' का समर्थन होगा? वामदल हालांकि भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक करार देते हैं, लेकिन उन्होंने एफडीआई के मुद्दे पर सरकार के विरोध में मत दिया।
देश में यूं तो 48 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि संसद में छोटी-बड़ी संख्या में मौजूद हैं, उनमें से मात्र तीन दल ऐसे हैं, जो स्पष्ट रूप से एफडीआई का समर्थन कर रहे हैं। वे हैं कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेन्स। इसके अलावा शेष सभी दल एफडीआई का विरोध कर रहे थे। समाजवादी पार्टी ने तो इस मुद्दे पर भारत बंद का समर्थन भी किया था और यही नहीं, उसके प्रमुख मुलायम सिंह ने यह घोषणा भी कर दी थी कि यदि विदेशी कंपनियों के 'स्टोर' देश में खुलेंगे तो वे सबसे पहले व्यक्ति होंगे, जो उनको आग लगा देंगे। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि खुदरा क्षेत्र में लगे 4 करोड़ लोगों और बड़ी तादाद में लघु उद्योगों, ट्रांसपोर्टरों, मजदूरों और किसानों की आजीविका पर चोट करने वाली एफडीआई की नीति का अब वे स्वयं ही समर्थन करने लगे हैं।
मुस्लिम और वंचित विरोधी
भारत में खुदरा क्षेत्र में तरह-तरह से कार्य का संचालन होता है। कहीं तो बड़े-बड़े 'स्टोर' खुदरा सामान की बिक्री करते हैं, तो कहीं 10 फुट की दुकान से लेकर 500 फुट की बड़ी दुकानें चलती हैं। लेकिन इन दुकानों की तुलना में कहीं बड़ी तादाद में रेहड़ी, पटरी, खोमचा लगाने वाले लोग हैं, जो कहीं फुटपाथ पर तो कहीं सड़कों पर तो कहीं तहबाजारी (साप्ताहिक बाजार) में काम करते हैं। इन रेहड़ी, पटरी, खोमचे और तहबाजारी में देश का गरीब जन बड़ी संख्या में संलग्न है। हमारे देश में सभी लोगों का शिक्षा का स्तर एक समान नहीं है। आज भी देश में 18 प्रतिशत पुरुष और 34.5 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर हैं। साक्षर होने पर भी बड़ी संख्या में लोग बहुत निम्न स्तर तक शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि जो व्यक्ति कम शिक्षित है, वह इस प्रकार के स्वरोजगार में लग जाता है। सच्चर समिति का यह कहना था कि देश में अन्य वर्गों की तुलना में मुस्लिम कहीं कम शिक्षित हैं और इसलिए गरीब हैं। यही बात वंचितों पर भी लागू होती है।
हम देखते हैं कि फल और सब्जी बेचने वाले अधिकतर लोग मुस्लिम तथा वंचित वर्ग से आते हैं। इसी प्रकार रेहड़ी, पटरी, खोमचा और छोटी दुकानें अधिकतर इन्हीं वर्गों द्वारा संचालित होती हैं। यह बात सच्चर समिति की रपट से भी साबित होती है, जिसके अनुसार हमारे देश में मुस्लिम कार्यशील जनसंख्या का 17 प्रतिशत खुदरा क्षेत्र में संलग्न हैं, जबकि अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की कार्यशील जनसंख्या का 10 प्रतिशत खुदरा क्षेत्र में लगा हुआ है। गौरतलब है कि हिन्दू जनसंख्या का मात्र 8 प्रतिशत ही खुदरा क्षेत्र में लगा हुआ है।
खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का दूसरा खामियाजा उद्योग क्षेत्र में लगे मजदूरों को भुगतना पड़ेगा। वैश्विक स्तर पर किए गए अध्ययनों के अनुसार विदेशी कम्पनियों द्वारा संचालित 'स्टोरों' में अधिकतर चीन में बना सामान बेचा जाता है। वालमार्ट चीन से आयात करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। यानी यदि वालमार्ट के 'स्टोर' खुलते हैं, तो खुदरा क्षेत्र में माल की खरीद भारत की बजाय चीन से ज्यादा होने लगेगी। हालांकि सरकार का कहना है कि इन कम्पनियों पर यह शर्त लगाई जाएगी कि वे अपने सामान का कम से कम 30 प्रतिशत भारत के ही लघु एवं मध्यम उद्योगों से खरीदें। लेकिन भारत सरकार के ताजा आदेश के अनुसार इस शर्त को ढीला किया गया है और अब इन कंपनियों को इस प्रकार की खरीद के लिए 5 वर्ष के औसत की छूट दी गई है। यानी ये कंपनियां 4 वर्ष तक भारत के उद्योगों से सामान न भी खरीदें, तो भी इन पर इसके लिए कोई बाध्यता नहीं होगी। 4 वर्ष तक माल न बिकने के कारण भारतीय उद्योग की दुर्दशा की कल्पना आसानी से की जा सकती है। हम जानते हैं कि हमारे देश की कारीगर और मजदूर जनसंख्या में मुस्लिमों का बाहुल्य है। गौरतलब है कि सच्चर समिति के अनुसार मुस्लिम कार्यशील जनसंख्या का 21 प्रतिशत हिस्सा 'मैन्युफैक्चरिंग' क्षेत्र में लगा हुआ है।
इसी प्रकार वंचितों पर भी खुदरा क्षेत्र में एफडीआई खोलने का भारी दुष्प्रभाव पड़ने की पूरी संभावना है। बड़ी संख्या में हमारे कारीगर वंचित समाज से हैं। बुनकर, लुहार, कुम्हार और अनेक प्रकार के अन्य कारीगर, जो हथकरघा उद्योग से जुड़े हैं, खुदरा क्षेत्र में बड़ी कम्पनियों के आने से अपना रोजगार खो देंगे।
पड़ेंगे रोटी के लाले
हालांकि वैश्वीकरण के इस युग में पिछले काफी समय से स्वरोजगार युक्त क्षेत्र पर भारी दुष्प्रभाव पड़ा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 66वें दौर की बैठक की रपट के अनुसार वर्ष 2004-05 और 2009-10 के बीच 5 वर्ष में स्वरोजगार युक्त लोगों की संख्या में 2.5 करोड़ की कमी हुई और इसी दौरान 2.2 करोड़ से भी अधिक लोग दिहाड़ी-श्रमिकों की श्रेणी में आ गए। यानी वे लोग जो अपने किसी काम-धंधे में लगे थे, वे अब दिहाड़ी मजदूर हो गए। सरकार के एफडीआई के निर्णय के बाद लोगों के खुदरा, 'मैन्युफैक्चरिंग', 'ट्रांसपोर्ट' जैसे काम-धंधे तेजी से बंद होंगे और इस प्रकार से और ज्यादा लोग दिहाड़ी मजदूरों की श्रेणी में आ जाएंगे, जिन्हें दो जून की रोटी के लिए भी भारी संघर्ष करना होगा। यूं तो इसका प्रभाव सभी वर्गों पर पड़ेगा, लेकिन मुस्लिम और वंचित इसके कारण कहीं ज्यादा प्रभावित होंगे। ऐसे में मुलायम सिंह, जो मुस्लिमों के हमदर्द होने का दंभ भरते हैं और मायावती, जो वंचितों के उत्थान की दुहाई देती हैं, को एफडीआई का समर्थन करने का जवाब देना होगा। वे किसी भी तर्क से अपनी बात को ठीक नहीं ठहरा पाएंगे, लेकिन उनकी इस ऐतिहासिक भूल का खामियाजा सबको भुगतना पड़ेगा।
(लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। )
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