चाणक्य जाग उठो
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डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी की चेतना और चिन्तना में राष्ट्र का निवास है, उसकी हित कामना उनकी श्वास-प्रश्वास का सहज कर्म है और शक्ति भर उसकी प्रसुप्त सार्मथ्य को जगाने का अभियान उनके लिये एक याज्ञिक अनुष्ठान की तरह है। इसी प्रक्रिया में उनकी अनेकानेक पुस्तकें आकार पाती रही हैं। उनके उद्बोधक विचारों की वाहिका अभिनव कृति है 'चाणक्य जाग उठो' (प्रकाशक – अमित प्रकाशन, के. बी. 97 कविनगर, गाजियाबाद – 201002 (उ. प्र.), मूल्य – 250 रु. मात्र)। 'लेखकीय' की प्रस्तुत पंक्तियां इस पुस्तक की सृजन-प्रक्रिया के बीज रूप में विराजमान उस भावोद्वेलन को संकेतित करती हैं जो डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी को बढ़ती उम्र के इस सोपान पर भी निरन्तर क्रियाशील रखता है – 'आज राष्ट्र का भाव लुप्त है। राष्ट्र का विराट पुरुष-जिसे अरविन्द ने पूजा, जिसे बंकिम ने आराधा, जिसके लिये वन्दे मातरम् कह भगत सिंह ने फांसी का फन्दा चूमा, चन्द्रशेखर आजाद ने स्वयं अपना बलिदान दिया- वह विराट कहीं खोजे नहीं मिलता। जिसकी चेतना को सूर और कबीरा ने, जिसकी भावना और धारणा को तुलसी और मीरा ने, जिसकी धड़कन और सिहरन को प्रसाद और निराला ने, जिसकी अस्मिता को द्विवेदी और मैथिली ने गाया, गुनगुनाया, जन-जन में बिठाया उस विराट् को आज की राजनीति ने गहरी नींद सुला दिया।' डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी की मान्यता है कि चाणक्य अर्थात उच्च आदर्शों को समर्पित विचारशील व्यक्तित्वों का समुदाय यदि जागकर आगे बढ़े तो समूचे समाज में जागरण की तीव्र लहर व्याप्त हो जायेगी, उसे दिशाबोध उपलब्ध हो जायेगा और वह राष्ट्र को परम वैभवमय बनाने के पथ पर आगे बढ़ सकेगा।
सिसकती राष्ट्र-अस्मिता, त्वदीयाय कार्याय, भारत की वैश्विक भूमिका, राष्ट्र-चेतना और राष्ट्र-रक्षा आदि उनके विविध निबन्धों के शीर्षक ही अपनी अर्न्तवस्तु को ज्ञापित करते हुए हर विचारशील को उनके अध्ययन के लिये प्रेरित करते हैं। अवस्थी जी की भाषा में एक वेगवती स्रोतस्विनी का प्रवाह है। वह मन-प्राण को आन्दोलित करते हुए हमारे चित्त में स्व-बोध को जगाती है, अपने आप पर गर्व करना सिखाती है। भू-राष्ट्रवाद की अवस्थी जी की अवतारणा अभिनव है और सहज ही ध्यान आकर्षित करती है – 'फूंक एक ही है किन्तु ध्वनि शंख की अलग है, बीन की अलग है और सीटी की अलग है। इसका प्रभाव भी अलग है, इसका गुण भी अलग है। प्रभु की चेतना भी इसी प्रकार सभी भौगोलिक इकाइयों (देशों) में संचरित होती हुई बाहर फूटती है तो अपनी पहचान और अपनी गुणवत्ता ले अलग-अलग देशों के अनुरूप प्रगट होती है।……. सृष्टि में संचारित होती हुई प्रभु-चेतना का दिव्यतम स्वरूप हिन्दुस्थान में प्रकट दिखाई पड़ता है।'
व्यक्ति के कृतित्व का सम्यक् आकलन उसके व्यक्तित्व पर दृष्टि डाले बिना संभव नहीं है। वस्तुत: किसी भी शब्द में शक्ति उसके प्रयोक्ता के अर्न्तव्यक्तित्व से उभर कर सम्प्रेषित होती है। विश्व हिन्दू परिषद के अन्तरराष्ट्रीय संयुक्त महामन्त्री श्री आंेकार भावे ने डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी के प्रेरक व्यक्तित्व को इस प्रकार शब्दायित किया है – 'ब्रह्मदत्त अवस्थी – यह मेरे लिये एक व्यक्ति विशेष का नाम नहीं अपितु एक पवित्र विचार प्रवाह का नाम है। इस प्रवाह की धारा बहुत तेज है, पर इसका अन्तरंग बहुत गहरा और बहुत शान्त है। विद्वत्ता-दृढ़ता, मधुरता और विनम्रता का विलक्षण संगम है उनके जीवन में, परन्तु जीवन-मूल्यों पर कहीं कोई समझौता नहीं।'
यहां स्मरणीय है कि जब डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी के अमृत महोत्सव के 'चेतना के चरण' नामक ग्रन्थ का लोकार्पण करने के लिए श्री कुप्. सी. सुदर्शन पधारे थे, उन्होंने बहुत भाव गद्गद् होकर उनके व्यक्तित्व का अभिनंदन और कृतित्व का वंदन किया था। अविराम लोकार्चन, अम्लान चिंतन और अकुंठ सृजन से संयुक्त ऐसा व्यक्तित्व ही जागरण के मन्त्रों का दृष्टा और उद्गाता हो सकता है।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
अधर पर गीत हो तो ये दिशाएं गुनगुनायेंगी
अगर हो मुस्कराहट तो हवाएं मुस्करायेंगी,
अगर दिग्मूढ़ हो जाओ तो बचपन याद कर लेना
तुम्हें मां की दुआएं फिर तुम्हारा पथ दिखायेंगी।
– डा. रामसनेही लाल शर्मा
बाग में फूल से करो बातें
राह में धूल से करो बातें,
लक्ष्य यदि जिन्दगी में पाना है
की गई भूल से करो बातें।
–घमंडीलाल अग्रवाल
इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं,
जब तक घर भरता है अपना हम खाली हो जाते हैं।
– हस्तीमल हस्ती
शब्द–प्रवाह के मुक्तक
सन्दीप सृजन के सम्पादन में उज्जयिनी से प्रकाशित हो रही सुरुचिपूर्ण साहित्यिक त्रैमासिकी का मुक्तक विशेषांक (अतिथि सम्पादक-श्री यशवन्त दीक्षित) समकालीन साहित्य की इस विधा के प्रति एक आश्वस्ति-भाव उत्पन्न करता है। यह पत्रिका (ए-99, व्ही. डी. मार्केट, उज्जैन, म. प्र. – 456006, वार्षिक सहयोग – 200 रु.) अपने प्रकाशन के चतुर्थ वर्ष में है और इस अल्प अवधि में ही साहित्यानुरागियों तथा शब्द-साधकों के मध्य अपनी एक सकारात्मक पहचान बना सकी है। अंक के प्रारम्भिक पृष्ठ पर दी गई इकबाल बाहर साहब की पंक्तियां अंक के भीतर की समृद्धि का परिचय देने में सक्षम हैं –
नीर को रक्त करना सीख लिया
शब्द को सख्त करना सीख लिया,
झूठ का दर्प तोड़कर हमने
सत्य अभिव्यक्त करना सीख लिया।
'अपनी बात' के अन्तर्गत सन्दीप सृजन द्वारा उद्धृत लघु-कथा भी ध्यान आकृष्ट करती है और उनकी चिन्तन-सरणि भी। उन्होंने सम्यक् प्रतिपादन किया है कि कविता गद्य का संक्षिप्तीकरण है, गद्य का संकुचन है। कविता विस्तार का नाम नहीं है, सूक्ष्मता का नाम है। भारतीय छन्द-शास्त्र में इस सूक्ष्मता के विभिन्न स्वरूप हैं जो विभिन्न छन्दों के रूप में बंटे हुए हैं। उनके इस कथन से भी असहमत नहीं हुआ जा सकता कि आज हर कोई लिखने और छपने की होड़ में लगा हुआ है। दूसरों का लिखा पढ़ने और समझने को कोई तैयार नहीं है! …………….
उनका उपर्युक्त कथन आत्ममुग्ध रचनाकारों के बारे में सच है किन्तु सहृदय साहित्य-भावकों के साथ ऐसी बात नहीं है। वे हर क्षितिज पर जगमगाती प्रतिभा का स्वागत करते हैं और इसी कारण स्थापित तथा नवोदित हस्ताक्षरों के कलात्मक अवदान को एक जगह समाहित करने के सन्दीप जी तथा यशवन्त जी के प्रयासों को साधुवाद देते हैं।
अद्भुत प्रतिभा के धनी युवा समीक्षक जितेन्द्र जौहर का आलेख 'मुक्तक-कुछ विचार, कुछ प्रकार' इस अंक को एक विशिष्ट-श्री देता है। वरिष्ठ और कनिष्ठ रचनाकारों के इस संयोजन में से उद्धृत कुछ मुक्तक इसकी समृद्धि की बानगी दे सकेंगे –
बीच में अपने भले ही फासले चलते रहें
मिलने–जुलने के मगर ये सिलसिले चलते रहें,
खैरियत से सब रहें बिछुड़े न कोई रूठकर
लोग मिलजुल कर रहें शिवके–गिले चलते रहें।
–आचार्य भगवत दुबे
तथा
मेज पर बात तो हो सकती है
इक मुलाकात तो हो सकती है,
दोस्त हम हों न मगर होने की
इक शुरूआत तो हो सकती है।
–चन्द्रसेन विराट
एवं
आज के बदले हुए परिवेश में
राहजन हैं रहबरों के वेष में,
भाज्य–भाजक–भागफल को भूलकर
अब सभी उलझे हुए हैं द्वेष में।
–अनिल द्विवेदी तपन
समकालीन कविता में छन्दोबद्ध रचनाओं की उपेक्षा का दौर बीत गया। आज लगभग हर महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका गीत-नवगीत-गज़ल-दोहों को स्थान दे रही है, अब मुक्तकों के लिये भी विशेषांक अंक निकल रहे हैं – यह परिदृश्य शुभ है, शोभन है।
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