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यूरोपीय जातियों ने अठाहरवीं शताब्दी में धीरे-धीरे भारत पर कब्जा जमाना शुरू किया और पचास साल में भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करने में सफल हो गये। जाहिर है, इन विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ भारत के लोग संघर्ष करते। 1857 की आजादी की लड़ाई उसी का परिणाम थी। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के उत्तर में अंग्रेजी शासकों ने भारतीय समाज को बांटने के प्रयास प्रारम्भ किये। यूरोपीय विद्वानों का 'आर्य सिद्धान्त' इसी रणनीति से निकला तीर है। इस सिद्धान्त के अनुसार अंग्रेजों ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत में आर्य बाहर से, आक्रमणकारी के रूप में आये थे। उन्होंने यहां के मूल निवासियों को पराजित कर इस देश पर कब्जा कर लिया। मूल निवासियों को दास बना लिया और उन्हें शूद्र का दर्जा दिया। द्रविड़ों को मार कर दक्षिण में धकेल दिया। इस सिद्धान्त में एक और गूढ़ निहितार्थ भी छिपा हुआ था कि भारत के जो लोग अंग्रेजों को यहां से निकल जाने के लिये कह रहे हैं, वे भी उनकी तरह बाहर से ही आये हुए हैं। अन्तर केवल इतना है कि वे कुछ समय पहले भारत में आये और अंग्रेज उनके बाद आये। भारत के मूल निवासी तो दास, शूद्र, द्रविड़ इत्यादि हैं, जिनके साथ आर्य लोग दुर्व्यवहार करते हैं। इस तरह अंग्रेज आर्य शब्द को जाति या प्रजाति के अर्थ में प्रचलित करने का प्रयास कर रहे थे । इसे आश्चर्य ही कहा जायेगा कि भारत में भी बहुत से विद्वानों ने इस सिद्धान्त को अपनाया ही नहीं, बल्कि इसे आगे प्रचारित प्रसारित करना भी शुरू कर दिया और आज तक भी कर रहे हैं। डा. भीमराव अम्बेडकर ने अंग्रेजों के इस सिद्धान्त को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि पुख्ता तकर्ों से उसके खोखलेपन को भी सिद्ध किया। आर्य सिद्धान्त का खोखलापन अम्बेडकर के ग्रन्थ 'शूद्र कौन थे?' से अपने आप प्रकट होता है।
आर्य सिद्धान्त के सूत्र
डा. अम्बेडकर ने अंग्रेजों के आर्य सिद्धान्त को सूत्रबद्ध करते हुए लिखा कि अन्य मुद्दों पर असहमत होते हुये भी पश्चिमी विद्वान निम्न मुद्दों पर एकमत हैं:-
1. आर्य भारत वर्ष में बाहर से आये और उन्होंने भारत पर आक्रमण किया।
2. भारत के मूल निवासी दास और दस्यु थे और वे आर्य जाति से भिन्न थे।
3. आर्य गौर वर्ण के थे और दास–दस्यु श्याम वर्ण के थे।
4. आर्यों ने दास और दस्युओं पर विजय प्राप्त की।
5. दास और दस्युओं के पराजित होने और गुलाम बना लिये जाने पर ही वे शूद्र कहलाये।
6. शारीरिक रंग के पक्षपाती आर्यों ने चातुर्वर्णीय व्यवस्था को जन्म देकर गोरे रंग और काले रंग वाली जातियों को सदा– सर्वदा के लिये अलग कर दिया।
इस यूरोपीय सिद्धान्त को सूत्रवद्ध करने के उपरान्त डा. अम्बेडकर पूछते हैं कि ऐसा कौन-सा साक्ष्य है जिससे पता चले कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहां के मूल निवासियों को अपने अधीन कर लिया? जहां तक ऋग्वेद का सम्बंध है, उसमें तो रंचमात्र भी भारत पर बाहर से आक्रमण के संकेत नहीं हैं। इसके बाद उन्होंने ऋग्वेद के अनेक मंत्र देकर सिद्ध किया है कि आर्यों और दस्युओं के बीच का अन्तर न तो प्रजातीय था और न ही शारीरिक बनावट का, इसीलिए दास और दस्यु भी आर्य हैं। लेकिन डा. अम्बेडकर आश्चर्यचकित थे कि पश्चिमी विद्वान जो अत्यन्त परिश्रमी माने जाते हैं, इस प्रकार के अवैज्ञानिक और कपोल-कल्पित सिद्धान्त को कैसे ले उड़े? उनके अनुसार यह सारा षड्यंत्र 1835 में डा. बोप की पुस्तक 'तुलनात्मक व्याकरण' से शुरू हुआ। बोप ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यूरोप और एशिया के कुछ देशों की भाषाएं एक ही मूल की हैं। यदि यूरोप में यह आर्य भाषा प्रचलित थी तो जाहिर है कि यह यूरोपीय भाषा ही कहलायेगी। लेकिन तब प्रश्न उत्पन्न हुआ कि फिर यह भारत में कैसे पहुंची? इसका उत्तर फिर यही हो सकता था कि आर्य यूरोप से भारत में गये होंगे। इसी कल्पना को सिद्धान्त का नाम दिया गया। परन्तु उसके बाद अगला प्रश्न पैदा होता है कि यदि मान भी लिया जाये कि भारत और यूरोप में आर्य नाम की एक ही जाति है, तो भारत पर आक्रमण की बात कैसे कही जा सकती है? इसकी व्याख्या भी डा. अम्बेडकर ने की है। जब एक बार यह स्वीकार कर लिया गया कि आर्य यूरोपीय थे और पश्चिमी मानसिकता यह भी स्वीकार करती है कि वह एशिया की जातियों से श्रेष्ठ है, फिर इस श्रेष्ठ जाति के भारत में भी होने का एक ही तर्क हो सकता था कि इस श्रेष्ठ यूरोपीय जाति ने हिन्दुस्थान के लोगों को जीता था। यहीं से आर्यों के आक्रमण की कथा प्रचलित हुई । अम्बेडकर लिखते हैं 'श्रेष्ठता की इस परिकल्पना को यथार्थ सिद्ध करने के लिये भी इस कहानी के गढ़ने की आवश्यकता पड़ी। अब आक्रमण की बात कहने के सिवाय और कोई तरीका नहीं था, इसलिए पश्चिमी लेखकों ने यह कहानी रची कि आर्यों ने आक्रमण करके दासों और दस्युओं को पराजित किया।
रंगभेद भारतीय नहीं,पश्चिमी चिंतन
अब यदि आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त को प्रचारित करना है तो कोई न कोई इस देश के मूल निवासी भी तो ढूंढने होंगे, जिन पर आर्यों ने आक्रमण किया और उन्हें पराजित किया। इसी तलाश में यह कल्पना की गई कि दास और दस्यु इस देश के मूल निवासी थे, जिन्हें पराजित कर आर्यों ने शूद्र बना दिया। यूरोपीय जातियां गोरी होने के कारण एशिया के लोगों से उनके श्याम वर्ण के कारण घृणा करती हैं। अब यदि उन्होंने यह मान लिया है कि भारत के लोग आर्य हैं तो उन्हें अपनी रंगभेद की मानसिकता के लिये भारत में भी कोई आधार चाहिये था। इस आधार की तलाश में उन्होंने वर्ण व्यवस्था में रंग भेद की स्थापना की। यूरोप के आर्य सिद्धान्त में वर्ण व्यवस्था रंग भेद पर आधारित है। लेकिन अम्बेडकर के अनुसार इन परिकल्पनाओं में से कोई भी तथ्यों पर आधारित नहीं है। अम्बेडकर लिखते हैं, 'यह दावा कि आर्य बाहर से आये और भारत पर आक्रमण किया, और यह कल्पना कि दास या दस्यु भारत के मूल निवासी थे, एकदम गलत है। फिर यह कहना कि चातुर्वर्णीय व्यवस्था आर्यों की रंग भेद की नीति पर आधारित है, यथार्थ से बहुत दूर है। यदि जातीय भेदभाव का आधार रंग ही है तो चारों वर्णों के चार रंग होने चाहिये थे, जो चातुर्वर्णीय में शामिल हैं। किसी ने नहीं बताया कि वे चार रंग कौन से हैं और ये चार जातियां कौन सी हैं? यह सिद्धान्त आर्य और दासों की कल्पना पर आधारित है। पहले को श्वेत और दूसरे को कृष्ण मान लिया गया है।' आर्य जाति के अभ्युदय के सिद्धान्त के प्रतिपादक अपने मत की पुष्टि में इतने उत्कंठित हैं कि वे यह भी भूल बैठे कि उनकी परिकल्पना में कितनी विसंगतियां हैं। ये केवल उत्पत्ति को सिद्ध करना चाहते हैं और इसलिये उन्होंने वेदों से जो कुछ अनुकूल लगा, सिद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। अम्बेडकर मानते थे कि वर्ण का अर्थ आस्था से ताल्लुक रखता है, इसका रंग या रूप से कोई सम्बंध नहीं है। अंग्रेजों के आर्य सिद्धान्त का गहन अध्ययन करने के पश्चात और उनकी नीयत को जांच-परख लेने के बाद उन्होंने प्रतिपादित किया-
1. वेदों में आर्य शब्द का जाति सूचक कोई संकेत नहीं है।
2. भारत पर आर्य प्रजाति के आक्रमण का वेदों में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। न ही यह साक्ष्य मिलता है कि आर्यों ने भारत के आदि निवासी समझे जाने वाले दास या दस्युओं को पराजित किया।
3. कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि आर्यों, दासों या दस्युओं में प्रजातीय भेद है।
4. वेदों से यह प्रमाणित नहीं होता आर्यों और दास दस्युओं के रंग में कोई अन्तर है।
शूद्र क्षत्रिय ही थे
परन्तु एक प्रश्न फिर भी अनुत्तरित ही रह जाता है कि आखिर शूद्र कौन हैं? अम्बेडकर इसका भी उत्तर देते हैं। उनके अनुसार, 'शूद्र मूलत: क्षत्रिय ही हैं, जो कालान्तर में उपनयन संस्कार से वंचित हो जाने से शूद्र कहलाये। लेकिन यदि शूद्र क्षत्रिय ही हैं तो फिर चातुर्वर्णीय का सिद्धान्त कहां से आया? अम्बेडकर का मानना है कि ऋग्वेद में प्रथम तीन वर्णों का नाम ही आता है । शूद्र का उल्लेख केवल पुरुष सूक्त में मिलता है जिसके बारे में अधिकांश विद्वान सहमत हैं कि वह बाद की रचना है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों को उद्धृत करने के बाद वे लिखते हैं, 'मुझे ऐसा समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि आर्यों में केवल तीन वर्ण थे और शूद्र क्षत्रिय वर्ण से ही थे।' शूद्रों को अनार्य बताने वाले सिद्धान्त से अम्बेडकर पहले ही असहमत थे। उनको अनार्य बताने वालों से वे प्रतिप्रश्न करते हैं:-
1 यह कहा जाता है कि शूद्र अनार्य थे और आर्यों के विरोधी थे। आर्यों ने उन्हें पराजित किया और अपना गुलाम बना लिया। यदि यह सत्य है तो क्या कारण था कि यजुर्वेद और अथर्ववेद के सृष्टा ऋषियों ने शूद्रों का यशोगान किया? वे शूद्रों के कृपा पात्र क्यों बनना चाहते थे?
2 यह भी कहा जाता है कि शूद्रों को विद्याध्ययन और वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था। उस स्थिति में शूद्र सुदास ने ऋग्वेद के मंत्रों की रचना कैसे की?
3 बताया जाता है कि शूद्र यज्ञ नहीं कर सकते थे, क्योंकि वे इसके पात्र नहीं थे। तब सुदास ने अश्वमेध यज्ञ कैसे किया? यदि ऐसा था भी तो शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ करने वाले शूद्र को सम्बोधित करने की विधि का वर्णन क्यों है?
4 शूद्रों का धर्म तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए? सायणाचार्य ने सुदास तथा अन्य अनेक शूद्र राजाओं का वर्णन कैसे किया है?
डा. अम्बेडकर के ये प्रश्न पाश्चात्य विद्वानों के आर्य सिद्धान्त का मुंह चिढ़ाते हैं। उनके तर्क आर्यों के बाहरी होने और आक्रमण की कल्पना का पर्दाफाश करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय विश्वविद्यालयों और पाठशालाओं में आज भी अंग्रेजों के उसी आर्य सिद्धान्त को पढ़ाया जाता है जिसकी डा. अम्बेडकर ने अपने पैने तकर्ों से धज्जियां उड़ा दी थीं। आज पश्चिमी देशों के विद्वानों ने कुछ सीमा तक डा. अम्बेडकर के तकर्ों से सहमत होना शुरू कर दिया है और उनके निष्कर्षों से सहमत होना शुरू कर दिया है। लेकिन भारत में यदि कोई डा. अम्बेडकर के इन निष्कर्षों की बात करता है तो उसे साम्प्रदायिक करार दिया जाता है।
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