लोक-लुभावन नारा देकर चुनाव जीतना और जनता को छलना, कांग्रेस का पुराना शगल है। '70 के दशक में इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' का नारा देकर वोट बटोरे और देश को छला, क्योंकि गरीबी तो और बढ़ती गई। इसी तरह 'मनरेगा', जिसे ग्रामीण विकास का मंत्र बताया गया, वह भ्रष्टाचार का केन्द्र बन गई और गलत आंकड़ों के सहारे देश को सुहानी तस्वीर दिखाने का उपक्रम किया गया। सरकारी वादों का खोखलापन खूब उजागर हुआ जब गांवों में 100 दिन के रोजगार की गारंटी केवल छलावा साबित हुई, उल्टे झूठे मस्टर रोल बनाकर लोग अपनी जेबें भरने लगे। लेकिन जनता क्या हर बार छलावे की शिकार होगी? 'आपका पैसा, आपके हाथ' का नारा देकर सरकार जरूरतमंदों तक सरकारी सब्सिडी सीधे पहुंचाने की बात कहकर भ्रष्टाचार खत्म करने का दावा कर रही है, लेकिन जिस तंत्र के द्वारा यह सब क्रियान्वित होना है, वह तो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। सीधे खातों में पैसा स्थानांतरित किया जाना कैसे संभव होगा, जब न तो बड़ी संख्या में लोगों के बैंक खाते हैं और न उस स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाएं? फिर इस योजना को लेकर लोगों की यह आशंका भी सही है कि नगदी हस्तांतरण करके सरकार गरीबों को बाजार के हवाले छोड़ देगी, जहां वे लगातार बढ़ती महंगाई से त्रस्त होते रहेंगे क्योंकि सार्वजनिक वितरण केन्द्रों यानी राशन की दुकानों से तो वे निर्धारित सस्ती दर पर ही खाद्य सामग्री खरीदते हैं, जबकि खुले बाजार में तो कीमतें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हैं, और सरकारी आर्थिक सहायता तो तयशुदा ही मिलेगी, क्या सरकार उसमें बढ़ती मुद्रास्फीति दर के अनुसार निरंतर संशोधन करती रहेगी? नहीं, तो उस बढ़े अनुपात की राशि गरीब कहां से लाएगा? उसके हाथ से तो राशन की दुकान भी गई और ऊपर से महंगाई की मार अलग। सबसे वाजिब चिंता गृहणियों की है कि नगद पैसा हाथ में आने के बाद उसे इधर-उधर उड़ाने की गुंजाइश बढ़ जाएगी और घर की जरूरतें जस की तस बनी रहेंगी। ऐसी स्थिति में यह योजना गरीबों की चिंता कम, चुनावी नुस्खा ही ज्यादा लगती है। लेकिन कांग्रेस को भ्रम है कि जनता कुछ नहीं समझती, जब उसे पटखनी लगेगी तब जनता की समझ का उसे अहसास होगा।
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