कौन बनेगाकांग्रेस का तारनहार?
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कौन बनेगा
कांग्रेस का तारनहार?
कांग्रेस की नैया कांग्रेस डगमगा रही है। उम्मीदें राहुल गांधी पर टिकी हैं। 'युवराज' की ताजपोशी का उपक्रम चल रहा है, लेकिन जनमानस में यक्ष प्रश्न तैर रहा है कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगा पाएंगे? उनके अतीत के कुहासे में इसका उत्तर खो सा जाता है। कांग्रेस भय ग्रस्त है, बेचैन भी कि कौन करेगा कांग्रेस की नैया पार? पार्टी के खिलाफ पूरे देश में लोकलहर है। पार्टी के रूप में उसकी पहचान खो चुकी है। सोनिया गांधी का प्रबंधन नेतृत्व असफल हो चुका है। कांग्रेस उन्हीं पर निर्भर थी, और है। सोनिया गांधी अध्यक्ष बनी थीं 1998 में। वे भारत का मन नहीं जानतीं। भारतीय संस्कृति से उनका जुड़ाव नहीं। 14 बरस हो गये उनकी अध्यक्षी के, लेकिन कांग्रेस उनकी जगह लेने वाला कायदे का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी नहीं खोज पायी। अब कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलने की परम्परा भी नहीं है। कांग्रेस ने सत्ता के लिए संप्रग बनाया। स्वाभाविक ही इसका 'रिमोट कंट्रोल' सोनिया के पास रहा। संप्रग-1 की सरकार में वे 'सुपर पी.एम.' कही जाती थीं। वे पर्दे के पीछे थीं। दूसरी दफा इसकी जरूरत नहीं रही। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने पहले कार्यकाल में ही सिद्ध कर दिया था कि वे सोनिया गांधी द्वारा मनोनीत, सोनिया गांधी के प्रति निष्ठावान और उनके दिशा-निर्देश पर ही चलते हैं। 8 बरस हो गये मनमोहन राज के। प्रधानमंत्री ने अपने प्राधिकार का सदुपयोग कभी नहीं किया। भारत का राजकोष लूट का 'कामनवेल्थ' बना, 'कामनवेल्थ' खेल घोटाला हुआ। प्रधानमंत्री निर्विकार रहे। सरकार और भ्रष्टाचार पर्यायवाची बन गये। देश की सबसे पुरानी पार्टी कायदे का एक प्रधानमंत्री भी नहीं खोज पायी।
जरूरत है नेता की
कांग्रेस को एक नेता चाहिए। भारत के जन को स्वीकार्य, भारत की भाषा-बोली वाला। भीतर-बाहर मन, वचन और कर्म से भारतीय। राष्ट्रवादी और लोकप्रिय। इसी तरह सत्तारूढ़ संप्रग को तेज रफ्तार काम करने वाला आगामी चुनाव तक नतीजा-दिलाऊ प्रधानमंत्री चाहिए। प्रधानमंत्री ऐसा कि राहुल के 'स्टेज' पर आते ही कुर्र्सी छोड़ दे। अर्थशास्त्र के सुयोग्य विद्वान डा. मनमोहन सिंह बाद वाली शर्त ही पूरी करते हैं। वे हटने को तैयार हैं, अभी, यहीं, फौरन। सोनिया जी के संकेत मात्र पर वे 'पूर्व' होने को तत्पर हैं, लेकिन 2014 तक लोक-लुभावन नतीजे देने की क्षमता कहां से लाएं? वे स्वदेशी अर्थशास्त्र के कायल हैं नहीं। उनका अर्थशास्त्र घूमघुमाकर 'प्रत्यक्ष विदेशी निवेश' पर ही टिकता है। उनका अर्थशास्त्र भी प्रत्यक्ष विदेशी है। बावजूद इसके, अमरीका जैसे मनमोहन-मित्र देश के मीडिया ने उन्हें असफल बताया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कांग्रेस का सर्वाधिक प्रिय लोभ है। सो कांग्रेस ने अपनी राष्ट्रीय अध्यक्षी में भी 'प्रत्यक्ष विदेशी निवेश' लागू कर रखा है। टूट कर बिखरते जाना कांग्रेस की नियति है। कांग्रेस 1969 से ही बिखर रही है। तब हरेक टुकड़े ने अपने नाम के बाद कोष्ठक लगाए थे। कांग्रेस संगठन ने कांग्रेस (ओ.), निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाले धड़े ने कांग्रेस (एन) व सत्तारूढ़ कांग्रेस ने कांग्रेस (आर.-रूलिंग) नाम रखे।
सत्ता का लक्ष्य
दरअसल राजनीतिक दल पुष्ट विचार लेकर ही अखिल भारतीय होते हैं। कांग्रेस राष्ट्रवादी होकर ही अखिल भारतीय बनी थी, लेकिन अब राष्ट्रवाद छोड़ चुकी है। जब सत्ता ही इसका लक्ष्य रह गया तो शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली। ममता बनर्जी की संघर्षशील छवि से सोनिया कांग्रेस का मेल नहीं था सो प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बन गयी। सम्प्रति ममता कांग्रेस से खफा हैं। संप्रग के घटक दल धौंसिया रहे हैं। भीतर से समर्थन देने वाले मुंह फुलाए हैं, बाहर से समर्थन देने वाले मोटा 'डेली वेजेज' मेहनताना पा रहे हैं। मुंहमांगी बख्शीश पाने वाले भी तीसरे-चौथे मोर्चे की धमकी दे रहे हैं। कांग्रेस जानती है कि कांग्रेस का अस्तित्व सत्ता से ही जुड़ा हुआ है। सत्ता हाथ से गई तो इस अधमरी कांग्रेस को कौन पूछेगा। सो कांग्रेस के दरबारी हलकान हैं। सत्तावापसी के सबके अपने नुस्खे हैं। चुनाव के पहले कुछ कर दिखाने पर जोर है। मगर नेता का सवाल बड़ा है। कांग्रेस का चेहरा ठीक नहीं है, उस पर कोयला घोटाले की कालिख है, टू.जी. की आकाश छूती तरंगों के साथ भ्रष्टाचार के धब्बे हैं। कांग्रेस नेता लाए कहां से? कांग्रेस में नेहरू परिवार के बाहर का नेता नहीं चलता। लेकिन कांग्रेस बदलाव दिखाना चाहती है।
प्रधानमंत्री ने कैबिनेट में फेरबदल किया। बदलाव दिखाने के लिए। देखो-'हम बदल रहे हैं। सलमान खुर्शीद के पारिवारिक एन.जी.ओ. पर विकलांगों का धन हड़पने के आरोप थे। हम नहीं डरे। निडर हैं। उन्हें विदेश मंत्री बनाया है। पी. चिदम्बरम् पर तमाम आरोप थे। उन्हें वित्त मंत्री बनाया। यही सार्थक बदलाव है।' तय हुआ कि संगठन में भी फेरबदल हो। लेकिन कांग्रेस में पार्टी नहीं प्रापर्टी की तरह 'डील' होती है। कांग्रेस प्रापर्टी में नेहरू परिवार की पूंजी लगी है। इसीलिए कांग्रेस पं. नेहरू के बाद पुत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की प्रापर्टी-पार्टी हो गयी। श्रीमती गांधी की दुखद हत्या के बाद प्रापर्टी स्वाभाविक रूप में पुत्र राजीव गांधी को मिली। उनकी हत्या हो गयी। सोनिया जी ने थोड़े दिन प्रतीक्षा की, फिर बिना कोई चुनाव कराए ही सीताराम केसरी को हटाकर वे अध्यक्ष बनीं। इस प्रापर्टी के असली वारिस राहुल गांधी हैं। वंशानुगत 'प्रोप्राइटरशिप' के चलते कांग्रेस छीजती रही, टूटती और ध्वस्त होती रही। राहुल असली वारिस हैं ही। वे सामने आए। बिहार चुनाव में उन्होंने काफी भागदौड़ की। अनुभवी कांग्रेसियों ने भी राहुल से चमत्कार की उम्मीदें कीं। लेकिन राहुल 'फ्लाप' रहे।
नई व्याख्याएं
कांग्रेसी भाई लोगों ने नई व्याख्या की कि राहुल ने तो करिश्मा दिखाया लेकिन स्थानीय संगठन कमजोर था। यू.पी. में भी राहुल ने काफी मशक्कत की। वे 'वंचितों' के घर गये। निर्दोष गरीबों ने 'अतिथि देवोभव' की भारतीय परम्परा का पालन किया। सत्तारूढ़ मायावती घबरा गईं। राहुल ने रोड शो किये। पुराने कांग्रेसी भी जवान हो गये। युवा आगे-पीछे बताए जाते रहे, लेकिन नतीजा शून्य रहा। मध्य प्रदेश वाली दिग्विजयी रणनीति भी 'फ्लाप' रही। आश्चर्य है कि यह सब जानते हुए भी कांग्रेस राहुल पर ही दांव लगा रही है। कांग्रेस करे तो क्या करे? कांग्रेस सोनिया की। राहुल सोनिया के। राहुल का विकल्प सोचना भी वहां अनुशासनहीनता है। कांग्रेस लाचार है। बेबस, दयनीय और आई.सी.यू. में 'वेंटीलेटर' से आक्सीजन लेती कांग्रेस के पास दूसरा कोई चेहरा है ही नहीं। दिग्विजय सिंह ने बताया कि राहुल को तमाम नई जिम्मेदारियां मिली हैं, अब कांग्रेस की ताकत बढ़ेगी। कहा जा रहा है कि राहुल को नई 'टीम' मिली है, कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौटेगी। लेकिन राहुल ने सूरजकुण्ड में कहा कि आम आदमी राजनीतिक दलों के पास नहीं जाते। क्यों नहीं जाते? राहुल ने यह बात नहीं बताई। कांग्रेस 1885 से काम कर रही है। गांधी-पटेल के समय आम आदमी कांग्रेस में था। कांग्रेस में तब सभी विचारधाराओं के लोग थे। अब सोनिया की कांग्रेस में आम आदमी क्यों जाये? कांग्रेस में आम आदमी की भर्ती किसने रोकी? आम आदमी ने ही कांग्रेस को दीर्घकाल तक सत्ता-सुख दिया। लेकिन कांग्रेस का हाथ आम आदमी पर तमाचे की तरह पड़ा।
आम आदमी दूर
आम आदमी की रसोई पर डाका डाला कांग्रेसी सरकार ने। तेल, रोटी, दाल, नमक महंगा हुआ कांग्रेसीराज में। आम आदमी की दवाई महंगी, बच्चों की पढ़ाई महंगी। उसका जीवन महंगा। कांग्रेस ने किया क्या? आम आदमी और कांग्रेस का क्या रिश्ता? हजारों किसान आत्महत्या करें, आप राजकोष लूटें। सो आम आदमी खार खाए बैठा है कांग्रेस से। उस पर भी खुदरा व्यापार से रोटी-रोजी कमा रहे करोड़ों लोगों की रोजी छीनने का कांग्रेसी कारनामा। कांग्रेस को विदेशी कम्पनियां प्रिय हैं, विदेशी निवेश ही कांग्रेस की जान, शान और पहचान है। आम आदमी लोकसभा चुनाव में खरा जवाब देने को तैयार है- 'मतदान के लिए भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करो। 'आउटसोर्सिंग' करो। वोटर भी बाहर से लाओ।' सोनिया- राहुल को टका सा जवाब देने का काम उ.प्र. में विधानसभा चुनाव के समय ही शुरू हो गया था। राहुल अपनी संसदीय सीट वाली विधानसभा की कई सीटें हार गये, सोनिया के गढ़ रायबरेली में भी कांग्रेस साफ हो गयी। हालिया दौरे में जनता ने तीखे सवाल पूछे। लाजवाब राहुल आम जनता को जवाब नहीं दे पाये।
जनता देगी हिसाब
कांग्रेस में न जनतंत्र और न राष्ट्रीय निष्ठा। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आजीवन हैं। राहुल इस पार्टी के आजीवन 'प्रोप्राइटर' हैं। वे स्वयं राष्ट्रीय अध्यक्ष हो जायें या कार्यसमिति भंग कर संयोजक हो जाएं। वे चुनाव अभियान के प्रमुख बनें या कुछ भी न बनें। राहुल राहुल हैं। राहुल का अर्थ है कांग्रेस का तारनहार। कांग्रेस में राहुल के पद का कोई मतलब नहीं। कद की चर्चा बेकार। वरिष्ठ अनुभवी और सम्मानित कांग्रेसी भी राहुल के कद के सामने 'राग दरबारी' हैं। लेकिन जनता के पास एक-एक दिन का हिसाब है। कांग्रेस के हरेक काले कारनामे, काली कमाई व कालेधन का भी लेखा है। सोनिया सरकार के 8 साल में ईसाई मतान्तरण भी बढ़ा है। मजहबी आरक्षण की मांग को कांग्रेस ने ही कभी सच्चर कमेटी, तो कभी रंगनाथ मिश्र आयोग के जरिए आगे बढ़ाया है। कांग्रेस ने संवैधानिक संस्थाओं को बेइज्जत किया है। 'कैग' की पिटाई जारी है। 'कैग' ने बोफर्स, टूजी व कोयला घोटाला सहित भ्रष्टाचार के तमाम गगनचुम्बी खम्भों की नींव खोद दी है। आम आदमी ने कांग्रेस की नींव हिला दी है। कांग्रेस की विदाई का वक्त है। राहुल के सामने अभी मौका था। वे इसी सरकार में प्रधानमंत्री हो सकते थे। अभी भी हो सकते हैं। आगे खाई है। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। कांग्रेस देर-सबेर पुरातात्विक अभिलेखों में ही मिलेगी। वह भी ईमानदार शोधार्थियों को, सबको नहीं।
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