चीन का खतरा
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चीनी आक्रमण की 50वीं वर्षगांठ पर विशेष
प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति और सशक्त सैन्य रणनीति से परास्त होगा
तिब्बत के बाद चीन की गिद्ध दृष्टि पूरे लद्दाख, नेपाल, सिक्किम,
भूटान और कश्मीर पर है। चीन के राजनीतिक दर्शनशास्त्र में सह अस्तित्व, भाईचारा, नैतिकता
और अंतरराष्ट्रीय नियमावली के लिए कोई जगह नहीं है। 1962 में चीन द्वारा किए गए
मित्रघात को भूलने की भूल खतरनाक साबित होगी।
अनुभवहीन/अदूरदर्शी कूटनीति का पर्दाफाश था
स्वदेश चिन्तन
नरेन्द्र सहगल
शांतिदूत की छवि में लिपटे जवाहरलाल नेहरू की नींद तब टूटी जब चीन की तोपें गरज उठीं।
चीन द्वारा श्रीलंका, म्यांमार, बंगलादेश में युद्धपोत तैनाती के बाद पीओके में भी सैन्य
हमारे क्षेत्रों में चीन का हस्तक्षेप कोरी बातचीत से नहीं समयोचित सैन्य प्रतिकार से रुकेगा।हस्तक्षेप
सेनाधिकारियों को अपनी क्षमता पर भरोसा है। जनता के हौसले भी बुलंद हैं। बस, हिम्मत वाली सरकार चाहिए।
भारत पर चीन का हमला
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक भोलेपन और अदूरदर्शी कूटनीति का फायदा उठाकर पड़ोसी साम्यवादी चीन ने 20 अक्तूबर, 1962 को भारत पर सीधा आक्रमण करके उस पंचशील समझौते की धज्जियां उड़ा दी थीं जिस पर चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई एवं नेहरू ने 1954 में राजधानी दिल्ली में हस्ताक्षर किए थे। सारे विश्व में शांति स्थापना के उदारवादी उद्देश्य पर आधारित पंचशील सिद्धांतों में एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन न करने जैसा समझौता भी था। इससे पूर्व चीन ने 1950 में कुटिलतापूर्वक तिब्बत पर यह कहकर अपना सैनिक आधिपत्य जमा लिया था कि यह चीन और तिब्बत की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। इसी तरह 1960 में चीन ने भाई-भाई का भ्रमजाल फैलाकर भारत को सैनिक दृष्टि से कमजोर बने रहने की प्रेरणा दी थी। भारत सरकार तब होश में आयी जब चीन की तोपों ने लद्दाख की सीमा पर गरजना शुरू कर दिया। यह भारत की विदेश नीति, सैन्य रणनीति पर पहली ऐसी चोट थी जिसकी वजह से देश को पराजय का अपमान सहना पड़ा।
32 दिन के उस युद्ध में भारत की 35000 किलोमीटर भूमि पर चीन का कब्जा हो गया। भारतीय सेना के ब्रिगेडियर होशियार सिंह और मेजर शैतान सिंह सहित तीन हजार जवानों को अपनी शहादत देनी पड़ी। भारत के साथ हुए सभी प्रकार के समझौतों, वार्ताओं और आश्वासनों को ठुकरा कर किए गए उस आक्रमण के परिणामस्वरूप चीन द्वारा हथियाए गए भारतीय क्षेत्र की एक इंच जमीन को भी हम आज तक मुक्त नहीं करवा सके। अब तो चीन ने भारत के भीतरी इलाकों पर भी अपनी गिद्ध दृष्टि जमाकर हमारी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति को कमजोर करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं। भारत की सीमा के साथ लगते सभी पड़ोसी देशों को प्रत्येक प्रकार के हथकंडे से अपने साथ जोड़कर चीन ने अपनी भारत विरोधी युद्धक क्षमता को 1962 की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बढ़ा लिया है। सच्चाई तो यह है कि 1962 से ही विस्तारवादी चीन की कुदृष्टि नेपाल, सिक्किम, भूटान, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर जमी हुई है।
आज भी मित्रता की आड़ में चीन फिर कर रहा है
भारत को घेरने की तैयारी
भारत के पड़ोस में स्थित सभी छोटे-बड़े देशों को आर्थिक एवं सैन्य सहायता देकर अपने पक्ष में एक बड़ी सैन्य शक्ति खड़ी करने में चीन जुटा है। इसी रणनीति के अंतर्गत चीन पाकिस्तान को परमाणु ताकत में प्रवीण कर रहा है। चीन की मदद से पाकिस्तान की मिसाइल क्षमता बढ़ती जा रही है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन का सैनिक हस्तक्षेप और इस सारे क्षेत्र को अपनी सीमा तक जोड़ने के लिए सड़कों का जाल बिछाकर चीन की पहुंच सीधे इस्लामाबाद तक हो गई है। इसी साजिश के तहत चीन ने श्रीलंका, म्यांमार तथा बंगलादेश इत्यादि भारत के पड़ोसी देशों के बंदरगाहों तक अपने युद्धपोत तैनात कर दिए हैं। भारत-पाकिस्तान को अस्थाई रूप से बांटने वाली नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में, जहां पाकिस्तान की सेना का भारी जमावड़ा है, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 11 हजार से ज्यादा जवान तैनात हैं। भारतीय जम्मू-कश्मीर के अभिन्न भाग गिलगित-बाल्टिस्तान में चीन की सैनिक टुकड़ियों की मौजूदगी 1962 जैसे किसी बड़े हमले की संभावना का स्पष्ट संकेत दे रही है।
चीन की भारत विरोधी कुटिल चालें यहीं पर समाप्त नहीं होतीं। नेपाल को भारत से जोड़ने वाली हिन्दुत्वनिष्ठ ताकतों को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए चीन वहां अपने एजेंट माओवादियों को प्रत्येक प्रकार की सहायता दे रहा है। धीरे-धीरे भारत का यह पड़ोसी देश साम्यवादी चीन के प्रभाव में जा रहा है। अत: भारत समेत सभी हिमालयी क्षेत्रों की रक्षा के लिए नेपाल को चीन के विस्तारवादी मंसूबों से बचाकर रखना जरूरी है। वास्तव में तो भारत को चीन के संदर्भ में अपनी विदेश नीति को इसी एक मुख्य बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहिए था। भारत के सैन्य एवं सुरक्षा विशेषज्ञों की इस चेतावनी पर भी सरकार को ध्यान देना होगा कि अमरीका के साथ पाकिस्तान की क्षीण होती दोस्ती की वजह से अब चीन-पाकिस्तान का सैनिक गठजोड़ पहले से भी कहीं ज्यादा खतरनाक रूप में सामने आ सकता है। प्राप्त समाचारों के अनुसार, पाकिस्तान के प्रथम संचार उपग्रह 'पाक सेट-1 आर' के प्रक्षेपण की जिम्मेदारी चीन ने ली है। इससे पाक युद्धक प्रणाली में भारी इजाफा होगा।
अपनी सुरक्षा के मद्देनजर शीघ्र समझने होंगे
चीन के विस्तारवादी इरादे
भारतीय क्षेत्रों में पाकिस्तान और चीन के सैन्य हस्तक्षेप को रोकने के लिए हमारी सरकार ने कभी भी प्रभावशाली पग उठाने की कोशिश नहीं की। उल्टा, भारत के ही सैनिकों को बार-बार घुटने टेकने के लिए मजबूर किया गया है। सन् 2009 में भारत द्वारा लद्दाख के दमचोक में बनाई जा रही एक सड़क पर जब चीन ने आपत्ति जताई तो हमारी सरकार ने वह निर्माण रुकवा दिया। इसी तरह चीन-भारत को बांटने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित दो भारतीय गांवों को जोड़ने वाली सड़क बनाने का काम चीन के दबाव में रोक दिया गया। जब 31 जुलाई 2009 को चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा में लगभग दो किलोमीटर अंदर घुसकर पहाड़ी चट्टानों पर 'चाईना-9' अंकित कर दिया तो हमारी सरकार ने चुप रहना ही ठीक समझा। इसी तरह चीनी सैनिकों ने भारत के ग्रामीण पहाड़ी क्षेत्रों में लाल निशान बनाकर अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन किया। पीओके के रास्ते अरब सागर तक अपनी पहुंच बनाने के लिए चीन ने इस इलाके में 80 अरब डालर का निवेश भारत को घेरने के लिए किया है।
विस्तारवादी चीन की यह एक विशेष प्रकार की षड्यंत्रकारी रणनीति है कि पहले किसी छोटे देश को प्रत्येक प्रकार की मदद दो, फिर उस क्षेत्र में सैनिक घुसपैठ प्रारंभ करो और बाद में उस पर कब्जा कर लो। चीन की इस खतरनाक युद्धनीति को समझे बिना उसकी साजिशों का शिकार होने से बचा नहीं जा सकता। भारत ने 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे का विरोध न करके जो भयंकर भूल की थी उसने चीन के इसी विस्तारवादी मंसूबे को मजबूत किया था। इसी कमजोर विदेश नीति के कारण लद्दाख सहित पूरे जम्मू-कश्मीर को चीन के साम्यवादी जबड़े में धकेलने का खेल खेला गया है। देश भर में फैलता जा रहा माओवादी आतंक भी चीन की रणनीति का हिस्सा है। अब चीन की नजरें भारत के पंजाब, राजस्थान और गुजरात पर भी पड़ चुकी हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के जैसलमेर से लेकर गुजरात में कच्छ के रण तक के लंबे-चौड़े राजस्थानी क्षेत्र में गैस और तेल के भूमिगत भंडार मौजूद हैं। भारत की अनेक कंपनियां इनकी खोज के लिए कार्यरत हैं। इस भारतीय प्राकृतिक सम्पदा को चीन के शिकंजे से बचाना जरूरी है।
अपने सामरिक बल पर विश्वास रखकर घोषणा करें
विजय में बदलेंगे पराजय का इतिहास
वार्ताएं–समझौते चीन की नजर में मात्र शतुरमुर्गी चालें हैं, जिन्हें अपने स्वार्थों के लिए कभी भी ठुकरा देना चीन की साम्यवादी विचारधारा का सिद्धांत है। धर्म, संस्कृति और नैतिकता चीन की नजरों में जहर है। 1962 के युद्ध की 50वीं बरसी पर इसी आधार पर भारत-चीन रिश्तों का मूल्यांकन करना चाहिए। चीन को प्रसन्न रखने के लिए अपनी सैन्य क्षमता को आंच आने देना बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। प्राप्त समाचारों के अनुसार, चीन के साथ रिश्ते सुधारने की ललक में भारत ने 1962 में शहीद हुए अपने जवानों की स्मृति में प्रत्येक वर्ष होने वाले 'सलामी समारोह' का स्थान बदल दिया है। अब यह समारोह लद्दाख के रिजांग ला टीले पर बने एक शहीद स्मारक पर न होकर कोटा में सम्पन्न होगा। 'आखिरी गोली और जान' के नारे के साथ लद्दाख के रिजांग ला इलाके में 114 के मुकाबले 500 से भी ज्यादा चीनी सैनिकों को खेत करने वाली 13 कुमाऊं रेजिमैंट की बहादुरी को सलामी देने के लिए एक अदद कार्यक्रम भी होगा तो कोटा, राजस्थान में (दैनिक जागरण, 29 सितम्बर, 2012)। रक्षा मंत्रालय द्वारा लिया गया यह निर्णय हमारे शहीद सैनिकों का अपमान नहीं तो क्या है?
चीन की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष युद्ध नीतियों की देश की सुरक्षा के मद्देनजर समीक्षा करते हुए भारत को अपना सैनिक सामर्थ्य बढ़ाना होगा। थल सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह के इस बयान पर सभी भारतीयों को गर्व होना चाहिए कि 'हम चीन को अब कदाचित 20 अक्तूबर, 1962 का इतिहास दोहराने नहीं देंगे, हमारे पास पर्याप्त सैनिक क्षमता है, देशवासी विश्वास रखें, हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं, हमारी पूरी तैयारी है।' भारत के सर्वोच्च सेनाधिकारी के इन सशक्त इरादों एवं दृढ़ सैन्य मानसिकता का सर्वत्र स्वागत होना स्वाभाविक है। परंतु दूसरी ओर ढुलमुल राजनीतिक इच्छाशक्ति वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा गत फरवरी 2012 में संसद में दिए गए बयान कि 'चीन भारत पर आक्रमण नहीं करेगा' पर भी गौर करना चाहिए। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने भी 1960 में हिन्दी चीनी-भाई भाई के नारे लगाकर यही कहा था कि 'चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है।' हम भारतवासी पराजय के इस इतिहास को पुन: दोहराने नहीं देंगे, ऐसा निश्चय करना चाहिए। अपनी सामरिक क्षमता को बढ़ाना ही एकमेव रास्ता है।
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