विकेन्द्रित खुदरा बाजार ही भारत का रक्षा कवच
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देवेन्द्र स्वरूप
सोनिया-मनमोहन सरकार कई वर्षों से खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश के लिए बेचैन थी। अब यह स्पष्ट है कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और तृणमूल नेता ममता बनर्जी के विरोध के कारण वह अपने हाथ बंंधे पा रही थी। सोनिया ने बड़ी चालाकी से प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद पर धकेल दिया। उनके हटते ही मनमोहन मंत्रिमंडल ने खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश को हरी झंडी दिखाकर ममता बनर्जी को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से बाहर जाने को मजबूर कर दिया। तृणमूल कांग्रेस के यूपीए से बाहर जाने पर मनमोहन सरकार अल्पमत में पहुंच गयी। लोकतंत्र का तकाजा था कि मनमोहन की अल्पमत सरकार पहले संसद में अपना बहुमत सिद्ध करती और तब कोई दूरगामी निर्णय घोषित करती। पर, लोकतंत्रीय परंपराओं को ताक पर रखकर सोनिया-मनमोहन सरकार ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश की अधिसूचना जारी करके अपनी ओर से बहस का दरवाजा बंद कर दिया। अब एक ही उपाय बचा है कि सोनिया की संप्रग सरकार सत्ता से बाहर जाए और कोई दूसरी सरकार सत्ता में आकर इस राष्ट्रघाती निर्णय को निरस्त करे। भाजपा कार्यसमिति की फरीदाबाद बैठक में अध्यक्ष नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि यदि भाजपा नीत राजग सत्ता में आया तो पहला काम खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश संबंधी निर्णय को निरस्त करना होगा। इसके जवाब में विदेशी कंपनियों की मिजाजपुर्सी में लगे वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने विश्वास जताया है कि एक सरकार द्वारा लिये गये निर्णय को पलटना इतना आसान नहीं होगा।
प्रधानमंत्री पद का पूरा दोहन
दरअसल इस सब राजनीति के पीछे सोनिया की वंशवादी सत्ताकांक्षा काम कर रही है। सोनिया की एकमात्र चिंता केन्द्र की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखना है और इसी के लिए वह सुबह से शाम तक जोड़-तोड़ करती रहती हैं। पहले प्रणव मुखर्जी को रास्ते से हटाया। ममता की बगावत से संप्रग सरकार अल्पमत में आयी तो सीबीआई के हथियार से मुलायम और मायावती को अल्पमत राजग सरकार की वैशाखी बना लिया। कैसी विचित्र स्थिति है कि एक ओर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की राज्य सरकार ने खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश के केन्द्र सरकार की अधिसूचना को क्रियान्वित न करने की दो टूक घोषणा कर दी है और मुलायम सिंह ने लोकसभा में केन्द्र सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की धमकी दी है, दूसरी ओर वे यह भी कह रहे हैं कि वे मनमोहन सरकार को गिरने नहीं देंगे। उधर, द्रमुक ने भी 20 सितम्बर को विपक्ष द्वारा बुलाये गये बंद का निष्क्रिय समर्थन करके संप्रग से नाराजगी का संकेत दे दिया है। पर, सोनिया ने भारतीय राजनीति और मीडिया की दुर्बलता को भली प्रकार समझकर अपनी रणनीति बनायी है। कभी-कभी लगता है कि मनमोहन और सोनिया के बीच भी आंख-मिचौली का खेल चल रहा है। सोनिया राहुल या प्रियंका का रास्ता साफ होने तक मनमोहन के कंधों का इस्तेमाल कर रही हैं और मनमोहन पार्टी या जनता में किसी जनाधार के बिना ही 8 साल तक प्रधानमंत्री पद बने रहने का यश भोग रहे हैं। वे जानते हैं कि यह उनके जीवन का अंतिम अवसर है, क्योंकि अगले लोकसभा चुनावों में उनको किनारे करने की रणनीति अंतिम रूप ले चुकी है। यह रणनीति मंगलवार (26 सितम्बर) को उस तमाशे में भी स्पष्ट हो गयी जो सोनिया ने अपने निवास स्थान (10,जनपथ) पर आयोजित किया था और जिसे कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का नाम दिया गया। यह कैसी कार्यसमिति थी जिसमें पार्टी के भावी युवराज और महासचिव राहुल अनुपस्थित थे, दूसरे वाचाल महामंत्री दिग्विजय सिंह भी नहीं थे। पार्टी के अनेक प्रवक्ताओं -मनीष तिवारी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, शकील अहमद, राशिद अल्वी और रसीद मसूद में से कोई नहीं था। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के प्रभावी मंत्रियों-सुशील शिंदे, पी.चिदम्बरम, जयराम रमेश, कपिल सिब्बल के चेहरे भी नहीं थे। तो थे कौन? 84 साल के मोतीलाल वोरा, मोहसिना किदवई, माखन लाल फोतेदार, आर.के.धवन, कर्ण सिंह। मेज के चारों तरफ बैठे इन बुजुर्ग चेहरों के फोटो मीडिया में उछाले गये। प्रचारित किया था कि इस महत्वपूर्ण बैठक में मंत्रिमंडल के पुनर्गठन को अंतिम रूप दिया जायेगा। पर हुआ उलटा, बैठक के अंत में मंत्रिमंडल पुनर्गठन को स्थगित कर दिया गया। तो इस बैठक में हुआ क्या? बैठक की एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है कि सोनिया की इस बुजुर्ग कार्यसमिति ने प्रधानमंत्री के आर्थिक सुधारों पर अगर-मगर के साथ समर्थन की मुहर लगा दी और अपने समर्थन को प्रदर्शित करने के लिए दिल्ली में एक महारैली बुलाने का निर्णय लिया। दिल्ली में महारैली बुलाने का निर्णय बहुत चालाकी भरा है। इस महारैली में भीड़ जुटाने का काम केन्द्र सरकार के समर्थन के नाम पर दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान व उत्तराखंड की कांग्रेस शासित राज्य सरकारों का रहेगा और मंच पर हावी रहेंगे सोनिया व राहुल के चेहरे। वंशवादी राजनीति के लिए मनमोहन के कंधों का शायद यह आखिरी इस्तेमाल होगा।
मनमोहन का अनर्थ–शास्त्र
अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि संप्रग सरकार के पिछले आठ वर्षों के शासनकाल में भ्रष्टाचार के जो अनेक परनाले बहे हैं, उनका स्रोत स्थान सोनिया का राजमहल ही है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला हो या आदर्श सोसायटी घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या कोयला खदान घोटाला- प्रत्येक घोटाला सोनिया पर जाकर रुक जाता है। इन घोटालों से प्राप्त धनराशि का बड़ा हिस्सा सोनिया के चुनाव कोष में भेजा गया लगता है। पर वह बड़ी चतुराई से इन सब घोटालों के केन्द्रीय मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री के खाते में डालकर अपने दामन को कालिख से बचाती रही हैं। भारतीय मीडिया न तो इसकी छानबीन करता है कि सोनिया और राहुल की विदेश यात्राओं की वास्तविकता क्या है? क्यों सोनिया की हाल की रहस्यमय विदेश यात्रा से वापसी के बाद ही घटनाचक्र इतनी तेजी से दौड़ पड़ा? क्यों कार्यसमिति की इस महत्वपूर्ण बैठक के समय राहुल का झारखंड दौरा तय किया गया? क्या उन्हें अलग से प्रचार दिलाने के लिए या इस दौरे का कोयला घोटाले में सुबोधकांत सहाय पर आयी आंच से 10,जनपथ को बचाने की चाल है?
मनमोहन सिंह की एकमात्र चिंता आर्थिक विशेषज्ञ के रूप में अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की रक्षा करना एवं प्रधानमंत्री के नाते अपनी बेदाग छवि को बचाना है। इसीलिए उन्होंने बुजुर्ग लोगों के जमावड़े में कहा कि मैंने पिछले आठ साल में कोई गलती नहीं की है। तथाकथित आर्थिक सुधारों के पक्ष में उन्होंने सफाई दी कि 1991 में प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव के वित्तमंत्री के नाते उन्होंने आर्थिक सुधारों का सिलसिला आरंभ किया था उन्हीं के कारण भारत देश उस मंदी के काल में भी बचा रह गया, जिसने अमरीका और यूरोप के विकसित देशों को भी जड़मूल से हिला दिया था। यह तो सच है कि 2008 से मंदी का जो दौर आया उसने अमरीकी अर्थनीति को भारी झटका दिया। यूरोप में ग्रीस और स्पेन जैसे देशों का आर्थिक जीवन तो लगभग ध्वस्त हो गया। इस आर्थिक संकट का असर उनके जीवन स्तर पर पड़ रहा है। विकास के वर्तमान उपभोक्तावादी मॉडल ने उन्हें जिस जीवन शैली का अभ्यस्त बना दिया था उसमें किंचित मात्र भी कटौती उनके लिए असह्य हो गयी और वहां असंतोष का लावा फूट पड़ा। स्पेन और ग्रीस में जनता के उग्र प्रदर्शनों के लिए मंदी से अधिक विकास का वह मॉडल जिम्मेदार है, जिसे पश्चिम और पश्चिम के अनुकरण पर एशिया अफ्रीका को तथाकथित अविकसित देशों ने अपना लिया है। मनमोहन सिंह विकास के उसी मॉडल के विशेषज्ञ हैं। वे 'स्टाक एक्सचेंज' अर्थरचना में निष्णात हैं न कि प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल दूरगामी, टिकाऊ अर्थनीति के। उनके आर्थिक सुधार शहरीकरण, मशीनीकरण, यूरोप और अमरीका जैसे बड़े-बड़े मॉल, हर हाथ में मोबाइल और कम्प्यूटर, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं का लक्ष्य लेकर चलते हैं। हर हाथ को काम, हर खेत को पानी जैसा जमीनी लक्ष्य लेकर नहीं।
प्राचीन भारतीय बाजार व्यवस्था ही उत्तम
खुदरा बाजार में विदेशी पूंजीनिवेश के समर्थन में उनका सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे किसानों और उपभोक्ताओं के बीच खड़ी बिचौलियों की फौज खत्म हो जाएगी, किसान को अपनी उपज की अधिक कीमत प्राप्त होगी और उपभोक्ता को सस्ती कीमत पर उसकी आवश्यकताएं। ऊपर से देखने पर यह तर्क बहुत वजनी लगता है, क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि किसानों और उपभोक्ताओं के बीच विचौलियों की एक लम्बी श्रृंखला खड़ी दिखायी देती है। किसान अपना माल पास की मंडी में लाता है। मेरे बचपन में हमारा कस्बा एक मंडी था। आसपास के देहातों का उत्पादन वहां बैलगाड़ियों या घोड़ों पर लाद कर लाया जाता था। कस्बे के आढ़तियों के दलाल मंडी में पहुंचकर बोली लगाते थे। सबसे ऊंची बोली लगाने वाला 'माल' को ले जाता था। वे अपने यहां उसका भंडारण करते थे। भंडारण भी विकेन्द्रित था। वे अपना माल शहरों के थोक व्यापारियों तक पहुंचाते थे और वहां से वह बाजार में फुटकर दुकानदारों तक पहुंचता था। इन्हें बिचौलिये कहना अनुचित है। यह वस्तुत: विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का नमूना है। एक उत्पादन से होने वाला लाभ उपभोक्ता तक पहुंचने के पूर्व अनेक लोगों में वितरित हो जाता था। पटरी पर खोमचा लगाने वाली गरीब महिला, गली-मुहल्लों में ढेला लगाने वाला व्यक्ति, मुहल्ले में अपने घर-द्वार पर रोजाना की जरूरतों का सामान बेचने वाली गृहणी, पटरी बाजार में बैठने वाला दुकानदार- सब इस अर्थव्यवस्था में अपनी अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार व्यापार करते हैं, अपने परिवार का पेट पालते हैं। वे अपने को आजाद अनुभव करते हैं, वे किसी के नौकर या गुलाम नहीं हैं। इस अर्थव्यवस्था में वही वस्तु अलग-अलग भाव पर दुकान, अलग-अलग बाजारों में और अलग अलग भाव पर प्राप्त हो जाती है। भारत में परम्परा से चली आयी यह जो सीढ़ीनुमा विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था है इसे बिचौलियों द्वारा शोषण का नाम देना भारत समाज के प्रति अज्ञान का परिचायक है। इस सीढ़ीनुमा विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था ने ही भारत को पश्चिम से आयी तथाकथित विकास की आंधी में अब तक सुरक्षित रखा है।
भारत की विशाल जनसंख्या की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला यह खुदरा बाजार देशी और विदेशी पूंजीपतियों को ललचा रहा है। उन्हें लगता है यहां पूंजी लगाने में लाभ ही लाभ है, घाटा नहीं है। इसलिए भारत के पूंजीपति चाहे वे अम्बानी हों या बिड़ला, वियानी हो या भारती- सभी इस खुदरा बाजार में घुसना चाहते हैं। उन्हें भारत का विशाल ग्रामीण बाजार ललचा रहा है। किंतु जो नीति निर्माता हों उन्हें देसी या विदेशी खुदरा बाजार में पूंजी निवेश के खतरों को समझना चाहिए। उनके पूंजी निवेश से काम के जिन करोड़ों अवसरों की बात की जा रही है, वे अवसर नहीं, मात्र नौकरियां होंगी। जरा विदेशी व्यापारियों के आंकड़े देखिए-अमरीका के वालमार्ट के एक स्टोर के लिए 50,000 वर्ग फुट भूमि लगती है जबकि इतने क्षेत्रफल में भारत में 1500 से अधिक छोटी दुकानें खुल सकती हैं। वालमार्ट की पूंजी अरबों डालर में जाती है उसके कर्मचारियों की संख्या लाखों में है। यह पूंजी का और दासता का केन्द्रीकरण नहीं तो और क्या है? फ्रांस में ऑकन नामक फर्म के 12 देशों में 3051 हाइपर और सुपर मार्केट हैं, जिनमें 269 लाख वेतनभोगी कर्मचारी काम करते हैं। अमरीका के वेस्ट बाई नामक फर्म के 1100 स्टोर हैं जिनमें 1.8 लाख कर्मचारी वेतन पाते हैं। यह फर्म रिलायंस के साथ मिलकर भारत में प्रवेश की कोशिश कर रही है। इन स्टोरों में ग्राहकों को लुभाने के लिए सुंदर कन्याओं को 'सेल्सगर्ल्स' के नाते खड़ा किया जाता है। भारत में इस सौंदर्य प्रतिस्पर्धा का परिणाम क्या होगा, सहज ही सोचा जा सकता है। हमारे देश में पुराने समय से एक कहावत चली आती है
'उत्तम खेती, मध्यम बान,निकृष्ट नौकरी, भीख निदान।।
कितने दु:ख की बात है कि हमारे नीति निर्माता स्वावलंबी व स्वतंत्र जीवनयापन के बजाय परावलम्बन और नौकरी को विकास का मॉडल बनाना चाहते हैं। यहां पूंजी से अधिक विकास के मॉडल का महत्व है। मुट्ठी भर शहरी नवधनाढ्यों को प्रिय मॉल कल्चर को भारत जैसे विशाल देश की बहुस्तरीय जनसंख्या के लिए विकास का मॉडल कदापि नहीं माना जा सकता।
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