गर्भवती महिला एवं नवजात शिशु की प्राणरक्षा
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गर्भवती महिला
एवं नवजात शिशुकी प्राणरक्षा
स्वास्थ्य
समाज में अपर्याप्त जागरूकता के कारण मातृ मृत्यु तथा नवजात शिशु मृत्यु दर अत्यंत चिन्ताजनक है। यद्यपि महानगरों तथा छोटे शहरों में यह दर कम है परन्तु देश के दूरदराज इलाकों में यह दर अधिक है, क्योंकि पर्याप्त संख्या में अस्पताल न होने तथा सुगमता से अस्पताल तक न पहुंच पाने के कारण गर्भवती महिलायें व नवजात शिशु अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। मातृ मृत्यु का अर्थ है कि गर्भावस्था के दौरान अथवा प्रसव के 42 दिन उपरांत तक के अंदर होने वाली मृत्यु। एक आंकड़े के अनुसार भारत में वर्ष 2010 में प्रति दिन 150 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हुई थी। वर्ष 2010 में भारत में लगभग 57000 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की 'यूनाइटेड नेशन्स मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल्स रिपोर्ट 2012' के अनुसार भारत में हर दसवें मिनट में एक मातृ मृत्यु (मैटरनल डेथ) होती है। वर्तमान में मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख गर्भवती महिला) 212 है जबकि मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल (एम डी जी) वर्ष 2015 के लिए (प्रति एक लाख 109 रखी गयी है। भारत को असम, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि यहां मातृ मृत्यु दर अधिक है।
शिशुओं की मृत्यु दर को घटाने में देश ने संतोषजनक विकास किया है लेकिन फिर भी अभी और प्रयास की जरूरत है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में लगभग 400000 नवजात बच्चों की उनके पैदा होने के वर्ष के 24 घंटे के अंदर मृत्यु हो जाती है जो विश्व में सर्वाधिक है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत की शिशु मृत्यु दर 47 प्रति एक हजार 'लाइव बर्थ' है।
इस लेख में हम गर्भवती महिलाओं तथा नवजात शिशुओं की देखभाल और सुरक्षा पर चर्चा करेंगे।
गर्भवती महिलाओं की सुरक्षा
गर्भावस्था में लिया जाने वाला आहार गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इस दौरान महिलाओं को अधिक से अधिक पौष्टिक आहार लेना चाहिए ताकि उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक बीमारी या तकलीफ न उत्पन्न होने पाये। एक गर्भवती महिला को प्रतिदिन 3000-3200 कैलोरी की आवश्यकता है। प्राचीन मान्यता के विपरीत आधुनिक चिकित्सक यह सलाह देते हैं कि गर्भवती महिलाओं को अधिक वसा नहीं लेना चाहिए लेकिन यह संभव नहीं है कि 3000 कैलोरी भोजन बिना वसा के हो सके। अत: एक गर्भवती महिला को वसायुक्त 1000 कैलोरी की अर्थात 100 ग्राम घी, तेल, मक्खन, दूध क्रीम आदि की जरूरत होती है। एक स्वस्थ गर्भवती महिला का गर्भावस्था के दौरान 12-15 किलोग्राम वजन बढ़ जाता है। गर्भावस्था एवं स्तनपान करा रही महिलाओं को कैल्शियम की अधिक आवश्यकता होती है। इससे ही गर्भ में पल रहे बच्चे की हड्डियों एवं दांत का सही प्रकार से विकास होता है और माता में अधिक मात्रा में दूध बनता है। अत: कैल्यिशयम की शरीर में कमी न होने पाये इस पर पूरा ध्यान रखना आवश्यक है। इस दौरान अक्सर आयरन की कमी के कारण खून की कमी उत्पन्न हो जाती है तथा अनेक बार खून की कमी के कारण गर्भवती महिला की मृत्यु भी हो सकती है। भारत में विभिन्न आंकड़ों एवं अध्ययनों के अनुसार 60-87 प्रतिशत तक गर्भवती महिलाओं को खून की कमी रहती है और इसमें से 13 प्रतिशत में यह जानलेवा भी हो जाती है। अत: आयरनयुक्त भोजन का सेवन अत्यंत आवश्यक है। यह स्मरण रखना चाहिए कि अपर्याप्त भोजन के कारण गर्भवती महिला का गर्भावस्था के दौरान आवश्यक वजन नहीं बढ़ पाता है जो गर्भस्थ शिशु के वजन को दुष्प्रभावित करता है।
गर्भावस्था के दौरान सामान्य स्थिति में भी कुछ महिलायें घरेलू छोटे-छोटे कार्यों को करने से परहेज करती हैं अथवा उनके परिजन करने नहीं देते हैं जो उचित नहीं है। इस दौरान पर्याप्त मात्रा में आराम की जरूरत तो होती ही है, परन्तु घरेलू कार्यों को करना चाहिए तथा चिकित्सक के परामर्शानुसार व्यायाम भी करना चाहिए।
गर्भस्थ शिशु को 'टिटनेस' से बचाने का सबसे सुरक्षित माध्यम 'टिटनेस' का टीका है। अत: गर्भवती महिलाओं को यह टीका गर्भावस्था के दौरान जरूर लगवाना चाहिए। यह अत्यंत आवश्यक है कि हर गर्भवती महिला कम से कम दो 'टिटनेस' के टीके लगवाये जो कम से कम दो माह के अंतराल पर हों और गर्भावस्था के चौथे-पांचवें महीने में शुरू हो जायें। अगर 'टिटनेस' का टीका गर्भवती होने से पहले लगा हुआ है तो सातवें-आठवें महीने में पहला टीका लगवायें तथा दूसरा प्रसव से दो सप्ताह पूर्व लगवायें। इसी प्रकार तेजी से फैल रहे 'हिपेटाइटिस' बी के संक्रमण से बच्चे को बचाने तथा जन्म के उपरांत टीका लगवाने हेतु गर्भावस्था के दौरान इस संदर्भ में गर्भवती महिलाओं का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है। अत: आजकल अस्पतालों में चिकित्सक द्वारा इस पर विशेष ध्यान दिया जाता है, इसके बावजूद व्यापक जागरूकता आवश्यक है। 'हिपेटाइटिस' बी का टीका नवजात बच्चे को पैदा होने के तुरन्त बाद अथवा 48 घंटे के अंदर लगना चाहिए।
चूंकि यह आवश्यक है कि हर बच्चे को कम से कम छह माह तक मां का दूध मिलना चाहिए, इसलिए हर मां को इसके लिए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तैयार करना आवश्यक है। हर महिला को अपने बच्चे को दूध पिलाने के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
नशे के दुष्प्रभाव से बचें
अनके गर्भवती महिलाएं जो सिगरेट, तम्बाकू, गुटका, शराब एवं नशीले पदार्थों का सेवन करती हैं, उन्हें इसे तुरन्त त्याग देना चाहिए, अन्यथा इसके दुष्परिणाम अत्यंत भयानक होते हैं तथा इसके दुष्प्रभाव से गर्भस्थ शिशु को भी अनेक प्रकार के कष्ट एवं अंगों की विकलांगता हो सकती है। इसके अतिरिक्त कुछ महिलायें गर्भ धारण के दौरान शरीर में भी छोटी-मोटी परेशानियां होने पर अपने अनुसार दवा का सेवन करती रहती हैं, जो उचित नहीं है। अत: कोई भी दवा बिना चिकित्सकीय परामर्श के सुरक्षित नहीं है और 'गोल्डन रूल' तो यह है कि गर्भावस्था के दौरान कोई भी दवा ना ली जाए और विशेषकर इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि पहले 3-5 महीने में ली गयी दवा बच्चे के शरीर के अंगों के विकास के लिए विशेष घातक हो सकती है। शरीर में किसी भी परेशानी के उत्पन्न होने पर चिकित्सकीय परामर्श आवश्यक है। इस दौरान महिलाओं को चाहिए कि वह प्रसन्नचित्त और तनावरहित रहने का प्रयास करें तथा परिजनों को भी चाहिए कि घर में इस प्रकार का वातावरण न बनायें जिससे गर्भवती महिला को तनाव हो। इससे मां और शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गर्भावस्था के दौरान हर महिला को लगातार अपनी जांच स्त्री रोग विशेषज्ञ से कराते रहना चाहिए ताकि बच्चे अथवा मां से संबंधित किसी भी बीमारी की शुरुआती अवस्था में ही पहचान की जा सके।
नवजात शिशु की सुरक्षा
नवजात शिशु की प्रतिरोधी क्षमता कमजोर होने के कारण अनेक रोगों के संक्रमण की संभावना अधिक होती है, ऐसे में बच्चे की समुचित सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है। वह बीमारियां जो बड़े बच्चों के लिए कुछ दिनों अथवा सप्ताहों में घातक बनती हैं, वे बीमारियां एक नवजात बच्चे के कुछ ही घंटों में प्राण ले सकती हैं। अत: यह महत्वपूर्ण है कि नवजात शिशुओं में बीमारी की पहचान शुरुआती अवस्था में ही की जाए एवं निम्नलिखित संकेत और लक्षण नवजात बच्चों में गंभीर रोग होने की संभावना परिलक्षित करते हैं, जिनके होने पर माता पिता या डॉक्टर को सतर्क होना आवश्यक है।
बच्चे का सुस्त होना
दिए जा रहे दूध आदि को निगलने में असमर्थता
बच्चे को उल्टी होना (लगातार अथवा पित्तग्रस्त) अथवा पेट का फूलना
बच्चे का चिड़चिड़ापन अथवा अधिक चिल्लाना
बुखार या हल्का तापमान रहना
दस्त (डायरिया)
घरघराहट, कराहना, असामान्य अथवा तेज सांस का चलना
लगातार घबराहट/तनाव
जन्म के 24 घंटे के अंदर अथवा 72 घंटे के उपरांत पीलिया की शुरुआत जन्म के पहले 24 घंटे में शौच का न आना अथवा 48 घंटे अंदर पेशाब का न आना
हाथ-पांव को चला पाने में असमर्थता
ऐंठन जो मामूली, असामान्य होती है तथा बहुधा पहचान कर पाने में कठिनाई होती है
नवजात बच्चे में उपरोक्त में से कोई भी एक लक्षण दिखाई दे तो बिना देर किये बच्चों के चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए और ऐसे स्वास्थ्य केन्द्र अथवा अस्पताल पर भेजा जाना चाहिए जहां नवजात बच्चों की समुचित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो। इस प्रकार के नवजात बच्चों को ज्यादातर बीमारियां जैसे 'सेप्टीसीमिया', 'मेनिन्जाइटिस', न्यूमोनिया इत्यादि होती हैं जो कि मिनटों में जानलेवा भी हो सकती हैं। ऐसे में घर में ही रखकर मुंह से अथवा 'इन्ट्रा मस्क्यूलर एंटीबायोटिक्स' आदि की सहायता से स्वयं इलाज खतरनाक हो सकता है।
मां और बच्चे की देखभाल से संबंधित अनेक और पहलुओं पर चर्चा आवश्यक है और यह सुनिश्चित करना भी कि देश में इससे जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा का एक जन आन्दोलन विकसित हो जिसके साथ-साथ संबंधित सुविधायुक्त स्वास्थ्य केन्द्रों का विकास भी होना चाहिए। इस संदर्भ में आगामी लेखों में और चर्चा करने का प्रयास किया जाएगा।
डा. हर्ष वर्धन म.बी.बी.एस.,एम.एस. (ई.एन.टी.)
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