संवैधानिक प्रावधानों का रखें ध्यान
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संवैधानिक प्रावधानों का रखें ध्यान
डा हरबंश दीक्षित
यह बहुत हैरानी की बात है कि मजहबी आरक्षण के दोषों से हमारे मौजूदा शासक कोई सबक नहीं लेना चाहते। न तो आजादी के पहले के अनुभवों से और न ही अदालती निर्णयों से। अब तो उन पर अदालत की डांट-फटकार का भी असर नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने गत 10 जून को जब सरकार से पूछा कि मुसलमानों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव को किस आधार पर तैयार किया गया, तो उसके पास कोई ठोस उत्तर नहीं था। वोट राजनीति के लिए किए मजहबी आरक्षण के मुद्दे पर सरकार को इसके पहले भी न्यायालय के सामने मुंह की खानी पड़ी थी। आंध्र प्रदेश सरकार ने अल्पसंख्यकों को पांच फीसदी आरक्षण दिया। टी. मुरलीधर राव बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में इसे चुनौती दी गयी। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने उसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। सन् 2007 में आंध्र प्रदेश सरकार ने एक बार फिर मुसलमानों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण लागू किया। अर्चना रेड्डी के मामले में इसे चुनौती दी गयी। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने सारी हदें पार करते हुए मुसलमानों को दस फीसदी आरक्षण की घोषणा की। इसे चुनौती दी गयी और मामला उच्च न्यायालय में लम्बित है। उत्तर प्रदेश सहित कुछ अन्य राज्यों के चुनाव से ठीक पहले केन्द्र सरकार ने मुसलमानों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण का आदेश जारी किया जिसे आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित किया।
सावधानी की जरूरत
मुस्लिम आरक्षण पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय ने कई नये सबक दिये हैं और कई मिथकों को तोड़ा है। पहला सबक यह कि सरकार को आरक्षण जैसे संवैधानिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। संविधान में अनुसूचित जातियों/जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, बच्चों, महिलाओं तथा कुछ पिछड़े क्षेत्रों को आरक्षण देने की व्यवस्था है, लेकिन इन सभी के लिए अनुशासनबद्ध तरीका तय किया गया है। यदि उस तरीके का उल्लंघन होता है तो वह संविधान का उल्लंघन है। संविधान के 93वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद-15 में खण्ड-5 जोड़ कर यह व्यवस्था कर दी गयी थी कि कानून बनाकर संस्थाओं में प्रवेश के मामले में आरक्षण दिया जा सकता है। सरकार ने मुस्लिम आरक्षण के मामले में इस संवैधानिक निर्देश का पालन नहीं किया। कानून बनाने की बजाय सरकारी आदेश जारी करके आरक्षण दे दिया गया। अत: यह संविधान में तय की गयी प्रक्रिया का उल्लंघन था।
इन्दिरा साहनी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया था कि पिछड़े वर्गों को आरक्षण देते समय नयी जोड़ी जाने वाली जातियों की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति का अध्ययन होना चाहिए और जब इस तथ्य के प्रमाण मिल जायें कि उनकी परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें उन्हें विशेष आरक्षण दिये जाने की आवश्यकता है तभी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। इसके पहले भी सन् 2005 तथा 2007 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने संविधान की अनदेखी करके दिये गये आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। उच्च न्यायालय ने इन निर्णयों में दो बातों पर विशेष बल दिया था। पहला यह कि, आरक्षण केवल मजहबी आधार पर नहीं होना चाहिए तथा दूसरा यह कि, आरक्षण देते समय पिछड़ा वर्ग आयोग से मशविरा किया जाना चाहिए। अदालत की मंशा यह थी कि आरक्षण केवल राजनीतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि समाज के वंचित तबके को बेहतर बनाने की ईमानदार कोशिश का हिस्सा होना चाहिए।
मजहबी आधार गलत
सरकार ने पिछले दोनों निर्णयों से कोई सबक नहीं लिया। लगता है वह राजनीतिक लाभ पाने की बहुत जल्दी में थी और इस हड़बड़ी में उसके द्वारा किये गये आरक्षण से साफ होता है कि वह केवल मजहब के आधार पर किया गया है जो संविधान के अनुच्छेद-15 और 16 द्वारा प्रतिबंधित है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहीं नहीं कहा कि पिछड़े वर्गों में किसी नये उपवर्ग का सृजन नहीं किया जा सकता। अदालत का यह मत है कि इसे केवल मजहब के आधार पर नहीं अपितु व्यापक शोध तथा सर्वेक्षण के पश्चात वंचित वर्गों के लाभ के लिए किया जाये। इसकाअल्पसंख्यक होना या नहीं होना मायने नहीं रखता। तमिलनाडु के साथ ही आंध्र प्रदेश भी उन राज्यों में शामिल है जहां पिछड़े वर्गों के लिए किये गये आरक्षण के अन्तर्गत एक अलग उपबंध बनाकर उन जातियों को विशेष कोटा दिया गया है जो अन्य पिछड़ी जातियों के साथ स्पर्द्धा नहीं कर पातीं।
सरकार यदि वाकई समाज के वंचित वर्ग को बेहतर सुविधायें देने के प्रति ईमानदार है तो उसका संविधान सम्मत तरीका यह है कि गैर मजहबी आधार पर पूरे वंचित समाज की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति का आकलन किया जाये। अल्पसंख्यक आयोग से इसमें मदद ली जाये और शोधपरक अध्ययन के बाद इस तरह से लाभान्वित होने वाली जातियों को समानुपातिक तथा न्यायपूर्ण आरक्षण दिया जाये। आंध्र प्रदेश सरकार ने इस सिद्धान्त का पालन नहीं किया। अत: वह अदालत को संतुष्ट करने में असफल रही।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने तथा बाद में सर्वोच्च न्यायालय के सामने केन्द्र सरकार की ओर से दलील दी गयी थी कि उसके द्वारा लिया गया आरक्षण का फैसला मजहबी तथा भाषायी अल्पसंख्यक आयोग तथा इसी तरह के अन्य अध्ययनों के आधार पर दिया गया था। इस दलील में कई खामियां हैं। पहली यह कि, भाषायी तथा मजहबी अल्पसंख्यक आयोग का सृजन पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए नहीं किया गया। इसका गठन मूलत: अल्पसंख्यकों के हालात तथा उनके साथ होने वाले भेदभाव पर नजर रखने तथा अपने सुझाव देने के लिए किया गया था। पिछड़े वर्गों के सम्बन्ध में अध्ययन करने और शोधपरक सुझाव देने की जिम्मेदारी पिछड़ा वर्ग आयोग को दी गयी है। अत: पिछड़े वर्ग का लाभ देने के लिए इस आयोग से मशविरा किया जाना आवश्यक है, जो सरकार द्वारा नहीं किया गया।
न्याय का सम्मान हो
आरक्षण जैसे संवेदनशील संवैधानिक मसलों पर अल्पसंख्यक आयोग द्वारा की गयी संस्तुतियों को इसलिए भी आधार नहीं बनाया जा सकता कि कई बार वे शोधपरक होने की बजाय लोकरंजक राजनीतिक बयानबाजी प्रतीत होने लगती हैं। आयोग ने अल्पसंख्यकों को 8.4 प्रतिशत पृथक आरक्षण देने की संस्तुति की थी। तर्क यह दिया गया था कि चूंकि कुल पिछड़े वर्गों की जनसंख्या में 8.4 फीसदी लोग अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं अत: अन्य पिछड़े वर्गों को दिये जाने वाले 27 फीसदी आरक्षण में से 8.4 फीसदी उन्हें मिलना चाहिए। सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के अन्तर्गत आने वाली पिछड़ी जातियों को एक साथ मिलाकर 4.5 फीसदी आरक्षण अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) को दे दिया।
संसदीय लोकतंत्र का गुणसूत्र-दोष यह होता है कि शासक वर्ग कई बार स्वार्थी दबाव समूहों के ईमानदार प्रतिरोध का साहस नहीं जुटा पाता। आक्रामक प्रवृत्ति वाले मुट्ठीभर सांसद अपनी मर्जी से कुछ भी करवा लेने की स्थिति में होते हैं। संविधान और न्याय में भरोसा करने वाला शेष बहुसंख्यक समाज बेचारगी और बेबसी के साथ देखता रहता है। नुकसान का जब अहसास होता है तब बहुत देर हो चुकी होती है। हमें इससे सावधान रहने और इसका प्रतिरोध करने की आवश्यकता है ताकि न्याय तथा न्यायपालिका का सम्मान बचाया जा सके। सरकार के लिए संदेश यह है कि वह संविधान के निर्देशों का पालन करते समय सस्ती लोकप्रियता के बजाय गम्भीर नीयत का परिचय दे।
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