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हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के संपन्न नहीं होता। परंपरा से हिन्दू महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिक होती हैं। सच तो यह है कि हिन्दुओं के समस्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज आज भी महिलाओं के ही कारण जीवित हैं। दूसरे के घर से आई लड़की ससुराल के रीति-रिवाज आते ही सीख लेती है और उसके अनुसार जीवन भर आचरण भी करती है। बच्चे के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक, सत्यनारायण-कथा से लेकर रुद्राभिषेक तक, छठ पूजा से लेकर नवरात्र की शक्ति-पूजा तक की सारी विधियां महिलाओं को पता रहती हैं, कण्ठस्थ रहती हैं। धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों का विभाग हिन्दू परिवारों में पूर्ण रूप से महिलाओं के हवाले है। महिलाएं हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत स्तंभ हैं। किन्तु आधुनिकता की आंधी और पश्चिमी संस्कृति ने हमारे इस सबसे मजबूत स्तंभ पर प्रबल आघात किया है।
प्रथम प्रहार महिलाओं के परिधान पर किया गया। साड़ी अब नानी और दादी का पहनावा बनकर रह गई है। माताओं ने जब दुपट्टा गले में लपेटना शुरू कर दिया, तो बेटियों ने इसे हमेशा के लिए फेंक दिया।
दूसरा और सबसे प्रबल प्रहार पश्चिमी आधुनिकता ने हिन्दू महिलाओं के प्रतीक-चिह्न पर किया है। जब भी कोई विवाहिता श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करती है, तो प्रथम आशीर्वाद पाती है – सौभाग्यवती भव। सौभाग्य का प्रतीक सिन्दूर हर हिन्दू महिला अपनी मांग में धारण करती है। इस सिन्दूर के कारण महिलाएं समाज में सम्मान पाती हैं। राह चलते मनचलों की दृष्टि भी जब सिन्दूर पर पड़ जाती है, तो वे भी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते हैं। महिला की मांग का सिन्दूर ही सर्वोच्च मान्यता प्राप्त पवित्र विवाह प्रमाणपत्र होता है। एक बार हनुमान जी ने जिज्ञासावश मां जानकी से पूछा था कि वे मांग में लाल लकीर क्यों लगाती हैं? मां सीता ने उत्तर दिया कि यह लाल लकीर सिन्दूर की रेखा है, जो प्रभु श्रीराम को अत्यन्त प्रिय है और इस सिन्दूर के कारण ही वे प्रभु श्रीराम की प्रिया हैं। फिर क्या था? हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर में सिन्दूर लगा लिया। सिन्दूर की पवित्रता और अखंडता के लिए हिन्दू वीरांगनाओं की तपस्या और आहुतियों की गाथा से भारत का गौरवपूर्ण इतिहास और साहित्य भरा पड़ा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी और विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू नारी ने अपने सौभाग्य के इस प्रतीक चिह्न को कभी अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते ही मांग के सिन्दूर ने ललाट पर कब एक छोटे तिकोने टीके का रूप ले लिया, कुछ पता ही नहीं चला। हिन्दू नारी विवाहिता होने पर गर्व की अनुभूति करती थी किन्तु आज शायद कुछ स्त्रियां इसे छुपाने में गर्व महसूस करती है। हृदय में अशुभ के बैठे डर के कारण वह सिन्दूर का एक छोटा टीका ललाट के दाएं, बाएं या मध्य में लगा तो लेती है, लेकिन बालों को थोड़ा आगे गिराकर उसे छिपाने की चेष्टा भी करती है। मांग तो सूनी ही दिखाई देती है। आधुनिकता और क्या-क्या न कराए?
स्त्री–रत्न
रूपनगढ़ की राजकुमारी
'अपनी कन्या को शाही बेगम बनने के लिए तुरंत दिल्ली भेज दो।' औरंगजेब के इस संदेश के साथ दिल्ली से एक सेना भी रूपनगढ़ के राजा विक्रम सोलंकी के पास पहुंची। अनेक राजपूत नरेशों ने अपनी कन्याएं दिल्ली भेज दी थीं। विरोध करने में केवल सर्वनाश ही था। कोई मार्ग न देखकर राजा प्रस्तुत हो गये। राजकुमारी को भी समाचार मिला। वे इससे अत्यन्त दुखी हो गयीं। राजकुमारी मन-ही-मन चित्तौड़ के राणा राजसिंह की पूजा करती थी। कारण यह था कि एक दिन रूपनगढ़ के जनाना महल में किसी मुसलमान बिसातिन ने रानियों तथा राजकन्याओं को महाराणा प्रताप, अमरसिंह, शाहजहां, अकबर, जहांगीर आदि के चित्र दिखाने के साथ ही राणा राजसिंह का चित्र भी दिखाया था। राजकुमारी का चित्त उस दिव्य चित्र पर लग गया। इतने में बिसातिन ने औरंगजेब का चित्र दिखलाया। सखियां उस चित्र को देखकर हंसने लगीं। हंसी-हंसी में चित्र जमीन पर गिरकर टूट गया। इस पर बिसातिन ने कहा कि 'शहंशाह के चित्र का इतना अपमान किया गया है, यह अच्छा नहीं हुआ। बादशाह को पता लगेगा तो रूपनगढ़ के किले की एक ईंट भी नही बचेगी।' राजकुमारी यह सुनकर तड़क उठी और उसने चित्र का दाम उसकी ओर फेंककर कहा कि 'सब बारी-बारी इस चित्र पर एक-एक लात मारो।' सहेलियों ने आदेश का पालन किया। बिसातिन को यह बहुत बुरा लगा और उसने दिल्ली पहुंचकर ये सारी बातें औरंगजेब के पास पहुंचा दीं। वह तो हिन्दू राज्यों को तहस-नहस करने का बहाना खोजा ही करता था। आगबबूला हो उठा और उसने उसी क्षण रूपनगढ़ के राजा को राजकुमारी को देने के लिए सूचना भेज दी।
एकान्त में राजकुमारी ने पिता से रोते हुए प्रार्थना की, 'पिताजी पवित्र राजपूत कुल में जन्म लेकर मैं मुगलानी बनूंगी। आपको अपनी कन्या यवन को देते लज्जा नहीं प्रतीत होती।'
'पुत्री! आज अपने से बहुत ऊंचे-ऊचे राजघरानों की कन्याएं बादशाह की बेगमें हैं। जोधपुर की कन्या जिस स्थान पर है, वहां मेरी पुत्री पहुंचेगी- यह तो अपमान की बात नहीं है। तू सम्राज्ञी होगी। अपना छोटा सा राज्य है। इतना गौरव अपने को मिल रहा है। तू व्यर्थ क्यों दुखी होती है।' नरेश जानते थे कि वे आत्मवंचना कर रहे हैं।
'मेरे भाग्य में कोई वीर राजपूत न हो तो मैं कुमारी रह लूंगी। आप वीर राजपूत होकर ऐसी बात क्यों कहते हैं?'
'मैं तुम्हारी बात समझता हूं, तुम्हारे कष्ट का भी मुझे पता है, पर मैं विवश हूं। बादशाह के सम्मुख मेरी शक्ति नगण्य है। मैं विरोध भी करूं तो बादशाह बलपूर्वक तुम्हें ले जाएंगे। इस व्यर्थ के सर्वनाश से बचने के लिए मैं ऐसा कर रहा हूं।' नरेश के नेत्र भर आये। अधिक छिपाना वश में नहीं था।
'मुगलों का सामना करने की शक्ति आपमें नहीं है तो अपनी रक्षा कर लेने की शक्ति मुझमें है। आप मुझे यवन-सेना के साथ भेज दें।' राजकुमारी ने निश्चय कर लिया कि वह मार्ग में अपघात करेगी। पिता के पास से लौटकर वह अनेक चिन्ताओं में तल्लीन हो गयी। अन्त में उसके मुख पर आशा की एक रेखा आयी। बड़े उत्साह से उसने एक पत्र लिखा। राजकुमारी का पत्र लेकर एक विश्वस्त घुड़सवार उदयपुर पहुंचा। उसने आदरपूर्वक महाराज राजसिंह को पत्र दिया।
'महाराणा! आप राजपूतों के गौरव हैं। आपके पूर्वजों ने धर्म-रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया है। विपत्ति में पड़ी एक राजपूत-बालिका आपकी शरण में है। धर्म तथा राजपूतों की आन के रक्षक क्या विपत्ति में पड़ी एक बालिका की रक्षा न करेंगे। मेवाड़ के अधिपति के जीवित रहते एक राजपूत कन्या अनिच्छापूर्वक दिल्ली के मुगल की बेगम बनायी जाएगी। सोच लीजिये- बड़ी प्रबल शक्ति से शत्रुता मोल लेनी है। भुजाओं में शक्ति न हो तो रहने दीजिये। दुराचारी यवनों से रक्षा करने में यदि आप कायर हो जाएंगे तो विष मेरे पास है।' राजसिंह ने पत्र पढ़ा। नेत्र अंगारे हो उठे। होठ फड़कने लगे।
'राजकुमारी से कहना, प्रताप के वंशज में अभी उनका रक्त है। वे निश्चिन्त रहें।' राजसिंह ने दूत को उसी समय विदा कर दिया। सेना को सज्जित होने की आज्ञा दी गयी। रूपनगढ़ से दिल्ली के मार्ग में एक पर्वतीय स्थान में राजसिंह ने सेना व्यस्थित की। राजकुमारी यवन-सेना के साथ चली। पालकी में बैठे रहने पर भी उसके नेत्र सदा बाहर किसी का अन्वेषण करते रहते थे। पहाड़ी स्थल पर पहुंचते ही राजसिंह ने अकस्मात् आक्रमण कर दिया। मुगल सैनिक तितर-बितर होकर भाग गए। समाचार पाकर औरंगजेब ने चढ़ाई की। सन् 1680 में औरंगजेब को राजसिंह के द्वारा पराजित होकर लौटना पड़ा। रूपनगढ़ की राजकुमारी मेवाड़ की महारानी हुई।
कच्चे आम का अचार
विधि: सबसे पहले आम को धोकर छाया में सुखा लें। उसके बाद छीलकर छोटे-छोटे टुकड़े कर लें। किसी खुले बर्तन में आम के टुकडे डाल कर उसमें सारी सामग्री डाल दें। फिर अच्छी तरह मिला दें। इसके बाद कांच के जार में रख दीजिए। जार के ऊपर सूती हल्का कपड़ा बांध दें और 4-5 दिन धूप में रखें। बस खटके का अचार तैयार हो गया।
नोट : हींग 5 मिनट पहले हल्का गरम पानी में भिगो दें।
सामग्री
कच्चे आम देशी कड़े- 500 ग्राम, पिसा हुआ गरम मसाला – 20 ग्राम, हींग – 2 ग्राम, नमक – 25 ग्राम (स्वादानुसार), भुना हुआ पिसा जीरा – 20 ग्राम
सुमन सक्सेना
सूचना
आप भी अपनी कोई विशिष्ट रेसीपी भेज सकती हैं, जिसे पढ़कर लगे कि वाह क्या चीज बनाई है!
पता है–
सम्पादक, पाञ्चजन्य, संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग, झण्डेवालां, नई दिल्ली-110055
व्रत–त्योहार
(पाक्षिक)
श्रावण सोमवार व्रत
सोम प्रदोष व्रत
श्राद्ध की अमावस्या 18 जुलाई ,,
अमावस्या 19 जुलाई ,,
वैनायकी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत 22 जुलाई ,,
नाग पंचमी 23 जुलाई ,,
गोस्वामी तुलसीदास जयन्ती 25 जुलाई ,,
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