साहित्यिकी
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साहित्यिकी
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
इन विषमता के पलों में, स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगाएं, हों सुगन्धित सब दिशाएं
द्वेष की लू के थपेड़ों से सुमन मुरझा रहे हैं
और कोयल, मोर, बुलबुल भी नहीं कुछ गा रहे हैं
इस घुटन की त्रासदी में, दौड़ती जाती सदी में
प्रश्न के उत्तर सुझाएं, प्यार को फिर से बुलाएं
नेह के सरसिज उगाएं
अब घृणा वातावरण में हर तरफ फैली हुई है
श्वेत चादर आपसी सद्भाव की मैली हुई है
जिन्दगी की इस डगर में, मुश्किलों के इस सफर में
सब गिले–शिकवे मिटाएं, दो कदम आगे बढ़ाएं
नेह के सरसिज उगाएं
भूख, बेकारी, अभावों का घना छाया अंधेरा
दूर तक दिखता नहीं कोई व्यवस्था का सवेरा
रात गहरी हो गई है, चांदनी भी खो गई है
दीप आशा के जलाएं, रोशनी से पथ सजाएं
नेह के सरसिज उगाएं
(सरसिज-कमल)
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