इतिहास दृष्टि
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इतिहास दृष्टि
गोपनीयता के बढ़ते दायरे
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
यह कहना अनुचित न होगा कि विश्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सरकारी पारदर्शिता जहां संयुक्त राष्ट्र अमरीका में सर्वाधिक दृष्टिगोचर होती है, वहीं चीन व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन तथा गोपनीयता में सबसे आगे है। भारत की भूमिका इन दोनों के बीच है, जो कुछ-कुछ चीन की ओर झुकी हुई है। तभी तो यहां बड़े-बड़े घोटाले तथा काले धन की प्रचुरता के सैकड़ों मामले सामने आ रहे हैं और जांच रहस्यमय तरीके से हो रही है। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बीच सूचना का अधिकार नामक एक महत्वपूर्ण कानून बन गया है।
क्या है सूचना का अधिकार?
भारतीय संविधान के अध्याय तीन के अनुच्छेद (19-1) में मानव अधिकार के अर्न्तगत भारत सरकार के विधि मंत्रालय ने भारत की संसद में 15 जून, 2005 को एक महत्वपूर्ण कानून पारित किया, जो 22 जून, 2005 से लागू भी हो गया। इसमें किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी सार्वजनिक अधिकारी से प्रशासन, उसके निर्णय तथा उसके क्रियान्वयन के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। इसे 'मानव अधिकार' 'प्रजातांत्रिक अधिकार' अथवा 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' कहा गया। अत: यह एक ओर भारतीय नागरिक को अपनी शक्ति का अहसास कराता है, वहीं दूसरी ओर इसका उद्देश्य प्रशासन तथा व्यवस्था में सुधार लाना तथा उसे सुदृढ़ करना भी है। इसकी प्रक्रिया भी बड़ी सरल रखी गई, जिसमें कोई भी नागरिक साधारण आवेदन द्वारा दस रुपए का शुल्क देकर जानकारी प्राप्त कर सकता है। एक मास तक उत्तर न आने पर वह पुन: प्रार्थना कर सकता है, जिसका उत्तर तीन महीने की अवधि में दिया जाना आवश्यक है।
नौकरशाही की बढ़ती परेशानी
इस अधिकार का प्रयोग करके हजारों लोगों ने सरकार के विभिन्न मंत्रालयों व विभागों से महत्वपूर्ण व उपयोगी जानकारी प्राप्त की। राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) ने छात्रों में इस सम्बंध में जाग्रूकता पैदा करने के लिए कक्षा नौ से बारहवीं तक के राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम में 'सूचना के अधिकार' विषय को स्थान भी दिया। परन्तु सूचना के अधिकार कानून के कारण जब लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता आने लगी तब भारत सरकार तथा उसकी नौकरशाही को परेशानी महसूस होने लगी। भारत सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों तथा स्वयं प्रधानमंत्री ने सूचना के अधिकार कानून में संशोधन के संकेत देने प्रारम्भ कर दिए। क्योकि इस नियम के कारण भारत सरकार के मंत्रियों तथा नौकरशाहों को अपने क्रियाकलापों, शासन की कमजोरियों तथा क्रियान्वयन की जानकारी देने में परेशानी होने लगी है। सम्भवत: सरकार का एक वर्ग लोगों को इतना पारदर्शी तंत्र देने के पक्ष में नहीं है। अनेक अधिकारी इस कानून से बचना चाहते हैं। जनता को सूचना न देने या देर से देने या गलत सूचना देने पर उन्हें सजा की आशंका सताती रहती है।
जानकारी का अभाव या छुपाव
इस सन्दर्भ में कुछ उदाहरण देना उपयुक्त होगा। आशीष भट्टाचार्य नामक एक जागरूक नागरिक ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय से भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भूमिका से सम्बंधित उपलब्ध 'रिकार्ड' की जानकारी चाही। इस पर भारत के एक उच्च अधिकारी (उपसचिव) ने टका-सा जवाब भेज दिया-'इस सन्दर्भ में भारत सरकार के पास कोई 'रिकार्ड' नहीं है।' इसी बीच केन्द्रीय सूचना विभाग ने एक अन्य व्यक्ति को भी नेताजी से जुड़े प्रश्न के बारे में कोई जानकारी देने से इंकार कर दिया। विचारणीय है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं है? इसके विपरीत तपन चट्टोपाध्याय नामक एक सेवानिवृत्त आई.पी.एस. अधिकारी, जिन्होंने स्वयं दो दशाब्दियों तक भारत के गुप्तचर विभाग में कार्य किया है, ने बताया कि कैसे सुभाष चन्द्र बोस ने ब्रिटिश शासन को झकझोर दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि मैंने 15 वर्ष तक ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग के दस्तावेजों पर कार्य किया था। अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज की जानकारी पाने के लिए जे.आई.एफ.सी.एस. (जेपनीज इन्पायर्ड फिफ्थ कालमिस्ट स्पाईज) तथा बीऐटीएस (ब्रर्मीज एरिया ट्रेन्ड स्पाईज) आदि कोड नम्बर भी बनाये थे। इससे सम्बंधित दस्तावेज नागालैण्ड (भारत), जर्मनी तथा ब्रिटिश अभिलेखागार में उपलब्ध थे। पर अब भारत के किसी भी विभाग से नेताजी सुभाष के बारे में सहयोग व जानकारी न मिलने पर उन्होंने भी दु:ख जताया।
सूचना के अधिकार के अर्न्तगत मांगी गई दूसरी जानकारी समूचे राष्ट्र को चौंकाने वाली थी, जब बताया गया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तथा तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के बीच आपातकालीन पत्र व्यवहार के सभी दस्तावेज प्रधानमंत्री कार्यालय से गायब हैं। मुख्य सूचना आयुक्त ने भी इसे 'आश्चर्यजनक' कहा। वस्तुत: ऐसी महत्वपूर्ण फाइलों का गायब होना या चोरी होना या गायब कर दिया जाना राष्ट्रघातक हो सकता है। व्यक्तिगत तथा पार्टी हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में ऐसे कुकृत्यों की जांच होनी चाहिए। सूचना के अधिकार के माध्यम से यदि जानकारी नहीं मांगी गई होती तो गृह मंत्रालय भी इससे बेखबर ही रहता।
'राष्ट्रपिता' का सवाल
तीसरा उदाहरण गत अप्रैल मास का है, जब एक दस वर्षीय बालिका ऐश्वर्या पराशर ने सूचना के अधिकार का प्रयोग करते हुए सहज भाव से पूछ लिया कि महात्मा गांधी को सबसे पहले 'राष्ट्रपिता' कब कहा गया? समाचार पत्रों से यह ज्ञात हुआ कि इससे न केवल गृह विभाग में हड़कम्प मच गया बल्कि भारी भरकम 'बापू कलेक्शन' का संग्रह रखने वाला राष्ट्रीय अभिलेखागार भी कोई उत्तर नहीं दे सका। सतोषजनक उत्तर न मिलने पर उस बच्ची को कहना पड़ा- 'मुझे क्या पता था कि यह प्रश्न इतना कठिन है।' हालांकि इस प्रश्न का उत्तर बड़ा सरल तथा सहज है। मैंने 3 फरवरी, 2008 के पाञ्चजन्य साप्ताहिक में अपने एक लेख (राष्ट्रीय नेताओं की उपाधियां) में इसका उत्तर दिया है। वस्तुत: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई, 1944 को यंगून (तब रंगून) में भूमिगत रेडियो स्टेशन से प्रसारित अपने सन्देश में गांधी जी को 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था। तत्पश्चात 28 अप्रैल, 1947 को दिल्ली से आयोजित एशियन रिलेशन कांफ्रेंस, जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी कर रहे थे, में जब वे मंच पर आ रहे थे, तब सरोजिनी नायडू ने जोर से कहा था, 'राष्ट्रपिता आ रहे हैं।' उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपिता शब्द का सबसे पहला विरोध भी गांधी जी के पुत्र देवदास ने किया था। (देखें एम. मथाई, रेमीनेन्शैन्स आफ द नेहरू ऐज, 1978, पृ. 36)
बढ़ती गोपनीयता
स्पष्ट है कि जहां सूचना के अधिकार कानून ने कई मंत्रालयों तथा सरकारी अधिकारियों को असहज स्थिति में ला दिया है, वहीं इसके सक्रिय कार्यकर्ताओं को कष्ट तथा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े होने वाले सूचना अधिकार के हितैषी विरार (मुम्बई) के प्रेमनाथ को गोली का शिकार होना पड़ा। सूचना के अधिकार के अन्तर्गत रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) को भी लाने की अपील की जा रही है, ताकि रक्षा सौदों में व्याप्त भ्रष्टाचार की जानकारी सामने लायी जा सके।
यह अत्यंत गंभीर तथा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि भारत सरकार ने अनेक गुप्त दस्तावेजों को अभी तक सार्वजनिक क्यों नहीं किया है? विश्व में यह परम्परा है कि किसी भी गुप्त दस्तावेज को 20 वर्ष तक या अधिक से अधिक तीस वर्ष तक जनता से दूर रखा जा सकता है। परन्तु भारत में कुछ दस्तावेज भारत की आजादी के बाद से अर्थात् पिछले 65 वर्षों से गुप्त ही हैं और भारतीय इतिहास की वस्तुस्थिति जानने में बाधक बने हुए हैं। सूचना के अधिकार के अर्न्तगत ही मिली जानकारी से ज्ञात होता है कि अभी 28,295 दस्तावेज या फाइलें ऐसी हैं जिन पर गुप्त लिखा है, परन्तु जिनका अभी वर्गीकरण नहीं हुआ है।
अभिलेखागार का सदुपयोग
राष्ट्रीय अभिलेखागार के महानिदेशक प्रो. मुशीरूल हसन का यह कथन सही है कि इस अभिलेखागार का उपयोग एक सरकारी विभाग की बजाय एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में होना चाहिए। सम्भव है तब सूचना के अधिकार के अर्न्तगत मांगी गई जानकारी के उत्तर अधिक स्पष्ट व उपयोगी होंगे। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय अभिलेखागार (दिल्ली) ने गुप्त दस्तावेजों को चार भागों में बांट रखा है। अत्यंत महत्वपूर्ण गुप्त दस्तावेज 'पालिटिकल ए श्रेणी' में रखे जाते हैं, जिसमें सरकारी निर्णयों से सम्बधित फाइलें होती हैं। अंग्रेजों ने भारत से जाते समय या तो अनेक फाइलें नष्ट कर दीं थीं या आज वे बहुत कम उपलब्ध हैं। जबकि 1947 से लेकर 1993 तक, अर्थात पिछले 20 वर्षों को छोड़कर सभी फाइलें भारतीय विद्वानों तथा प्रबुद्ध वर्ग के लिए उपलब्ध करा दी जानी चाहिए। केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने भी सूचना के अधिकार को और सशक्त बनाने को कहा है। इससे सरकार तथा नागरिकों में सहभागिता बढ़ेगी। इससे भारतीय प्रजातन्त्र तथा संविधान के प्रति लोगों को आस्था, आत्मविश्वास तथा आत्मगौरव बढ़ेगा। सूचना के अधिकार के सशक्तीकरण से पारदर्शिता आएगी, लोकशक्ति तथा राष्ट्रशक्ति सुदृढ़ होगी।
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