नई दिल्ली-110055 बहादुर राम सिंह
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नई दिल्ली-110055 बहादुर राम सिंह

by
Jun 16, 2012, 12:00 am IST
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बहादुर राम सिंह

दिंनाक: 16 Jun 2012 15:25:49

चुन्नू–मुन्नू का कोना

प्रशान्त भास्कर

कक्षा : सातवीं

शैलेन्द्र फोटो स्टूडियो, विश्नावास लोहावट,

तहसील–फलोदी,

जि. जोधपुर-342302 (राजस्थान)

'चुन्नू–मुन्नू का कोना' स्तम्भ के लिए अपने बनाये रंगीन चित्र, जिनमें कोई संदेश हो, आप भी भेज सकते हैं।

प्रकाशित चित्र पर पुरस्कार भी मिलेगा।

पता : बाल मन, द्वारा सम्पादक, पाञ्चजन्य

संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग झण्डेवाला,

राठौर वीर अमर सिंह अपनी तेजस्विता के लिए प्रसिद्ध थे। वे बादशाह शाहजहां के दरबार में एक ऊंचे पद पर थे। एक दिन बादशाह के साले सलावत खां ने उनका अपमान कर दिया। भरे दरबार में अमर सिंह ने सलावत खां का सिर काट फेंका। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि अमर सिंह को रोके या उनसे कुछ कहे। मुसलमान दरबारी जान लेकर इधर-उधर भागने लगे। अमर सिंह अपने घर लौट आये।

अमर सिंह के साले का नाम था अर्जुन गौड़। वह बहुत लोभी और नीच स्वभाव का था। बादशाह ने उसे लालच दिया। उसने अमर सिंह को बहुत समझाया-बुझाया और धोखा देकर बादशाह के महल में ले गया। वहां जब अमर सिंह एक छोटे दरवाजे से होकर भीतर जा रहे थे, अर्जुन गौड़ ने पीछे से वार करके उन्हें मार दिया। बादशाह शाहजहां इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अमर सिंह की लाश को किले की बुर्ज पर डलवा दिया। एक विख्यात वीर की लाश इस प्रकार चील-कौवों को खाने के लिए डाल दी गयी।

अमर सिंह की रानी ने समाचार सुना तो सती होने का निश्चय कर लिया, लेकिन पति की लाश के बिना वह सती कैसे होती। महल में जो थोड़े-बहुत राजपूत सैनिक थे, उनको उसने अपने पति की लाश लेने भेजा, किन्तु बादशाह की सेना के आगे वे थोड़े से वीर क्या कर सकते थे। रानी ने बहुत से सरदारों से प्रार्थना की, परन्तु कोई भी बादशाह से शत्रुता लेने का साहस नहीं कर सकता था। अन्त में रानी ने तलवार मंगायी और स्वयं अपने पति का शव लाने को तैयार हो गयी।

इसी समय अमर सिंह का भतीजा राम सिंह नंगी तलवार लिये वहां आया। उसने कहा- 'चाची! तुम अभी रुको। मैं जाता हूं या तो चाचा की लाश लेकर आऊंगा या मेरी लाश भी वहीं गिरेगी।'

राम सिंह अमर सिंह के बड़े भाई जसवन्त सिंह का पुत्र था। वह अभी नवयुवक ही था। सती रानी ने उसे आशीर्वाद दिया। पन्द्रह वर्ष का वह राजपूत वीर घोड़े पर सवार हुआ और घोड़ा दौड़ाता सीधे बादशाह के महल में पहुंच गया। महल का फाटक खुला था द्वारपाल राम सिंह को पहचान भी नहीं पाये कि वह भीतर चला गया, लेकिन बुर्ज के नीचे पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों मुसलमान सैनिकों ने उसे घेर लिया। राम सिंह को अपने मरने-जीने की चिन्ता नहीं थी। उसने मुख में घोड़े की लगाम पकड़ रखी थी। दोनों हाथों से तलवार चला रहा था। उसका  पूरा शरीर खून से लथपथ हो रहा था। सैकड़ों नहीं, हजारों मुसलमान सैनिक थे। उनकी लाशें गिरती थीं और उन लाशों पर से राम सिंह आगे बढ़ता जा रहा था। वह मुर्दों की छाती पर होता बुर्ज पर चढ़ गया। अमर सिंह की लाश उठाकर उसने कंधे पर रखी और एक हाथ से तलवार चलाता नीचे उतर आया। घोड़े पर लाश को रखकर वह बैठ गया। बुर्ज के नीचे मुसलमानों की और सेना आने के पहले ही राम सिंह का घोड़ा किले के फाटक के बाहर पहुंच चुका था।

रानी अपने भतीजे का रास्ता देखती खड़ी थीं। पति की लाश पाकर उन्होंने चिता बनायी। चिता पर बैठी। सती ने राम सिंह को आशीर्वाद दिया- 'बेटा! गो, ब्राह्मण, धर्म और सती स्त्री की रक्षा के लिए जो संकट उठाता है, भगवान उस पर प्रसन्न होते हैं। तूने आज मेरी प्रतिष्ठा रखी है। तेरा यश संसार में सदा अमर रहेगा।'

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भारतीय जीवन बीमा निगम योगक्षेमं वहाम्यहम्

श्रम मंत्रालय श्रम एव जयते

लघुकथा

छप्पर का भूत

किसी जमाने में उत्तर भारत में एक जमींदार हुआ करता था। वह बहुत अत्याचारी और निरंकुश था। मजदूरों से बेगार करवाता था और उन्हें मजदूरी के नाम पर कुछ चना और चबेना के अलावा कुछ नहीं देता था। उसके कारिन्दे भी उसकी तरह क्रूर और दुष्ट थे। मजदूरों को सताने और उन्हें मारने-पीटने में उन्हें आनन्द प्राप्त होता था। कभी-कभी बेवजह भी वह मजदूरों को पीट दिया करते थे।

आस-पास के गांवों के मजदूर ही नहीं, जनता भी उस जमींदार के अत्याचारों से तंग आ चुकी थी। परन्तु जमींदार और उसके कारिन्दों से बचने का उनके पास कोई तरीका नहीं था। वह सब नित्य अत्याचार सहने के लिए मजबूर थे। लगभग रोज ही कारिन्दे उन्हें पकड़कर ले जाते और जबरदस्ती जमींदार के खेतों या महल में काम करवाते और शाम को भूखा-प्यासा छोड़ देते।

आषाढ़ का महीना था। जमींदार को अपने जानवरों के बाड़े के लिए छप्पर छवाना था। एक दिन सुबह-सवेरे ही आस-पास के गांवों के कई मजदूर पकड़कर जमींदार की हवेली में लाये गये। वह सब एक-दूसरे को जानते थे और जमींदार को सबक सिखाने के लिए कोई न कोई तरीका सोचते रहते थे। उन मजदूरों में एक बुजुर्ग मजदूर भी था। काम प्रारंभ करने के पहले उस बुजुर्ग मजदूर ने उन सबको अपने पास बुलाया और चुपचाप सबके कानों में कोई मंत्र डाल दिया। सभी मजदूरों के सूखे हुए मुंह प्रसन्नता से खिल उठे।

सभी मजदूर बड़े उत्साह से काम में जुट गए। छप्पर बड़ा लंबा था। सबसे पहले ठाठ बिछाया गया, फिर उसके ऊपर पाती बिछाई गई। मजदूर बड़ी लगन और करीने से सारा काम कर रहे थे। पूरा दिन लग गया, तब कहीं जाकर छप्पर छाने का काम पूरा हो सका। अब उसे उठाकर दीवार के ऊपर रखना था। इसके लिए कुछ और मजदूरों की आवश्यकता थी। कारिन्दे उसी गांव के कुछ और लोग पकड़ ले आए।

अपने-अपने सिरे पर खड़े होकर लोगों ने छप्पर उठाना शुरू किया। जब तक छप्पर सीधा था, सब ठीक-ठाक था, परन्तु जैसे ही उसका एक सिरा उठाकर दीवार पर रखा जाने लगा, उसकी सारी पाती खरखराकर नीचे गिर गई। कुछ बांस भी नीचे गिर पड़े। अब मजदूरों के हाथ में छप्पर का खुला ठाठ था उसमें पाती का नामोनिशान तक न था। जिन मजदूरों ने छप्पर छाने का काम किया था, वह सब एक सुर में चिल्लाने लगे, 'भूत…भूत…भागो… भूत ने छप्पर नोंचकर फेंक दिया। अरे भागकर अपनी जान बचाओ। यहां भूत है, उसने सारा छप्पर खोलकर गिरा दिया, अरे भागो…' और पलक झपकते सारे मजदूर वहां से गायब हो गये।

जमींदार और उसके कारिन्दों की समझ में नहीं आया कि यह क्या हो गया। दअसरल मजदूरों ने सोची-समझी साजिश के तरह पाती को ठाठ के साथ बांधा ही नहीं था। लेकिन यह बात किसी की समझ में नहीं आई थी। बाद में जमींदार ने वह जगह ही त्याग दी, इस डर से कि वहां भूत का वास था। राकेश भ्रमर

कहते और सुनते

कहते और सुनते हम सब,

मेरा भारत बड़ा महान।

लेकिन क्या हम जानते,

क्या है आज इसकी पहचान।।

कहीं इमारतें हर दिन बनतीं,

निरंतर होता यहां विकास।

लेकिन क्या देखा है उनको,

छत भी नहीं है जिनके पास।।

कहीं होता है जल बर्बाद,

कहीं पानी की बूंद नहीं।

कहीं खाने के कई प्रकार,

कहीं फैली है भुखमरी।।

आम आदमी सोचे बस ये,

क्या खरीदें, क्या नहीं।

चारों तरफ महंगाई फैली,

कुछ भी सस्ता यहां नहीं।।

राधिका गुप्ता

कक्षा-सातवीं, म.सं.-176, सेक्टर-2, चिरंजीव विहार

हापुड़, गाजियाबाद-201002 (उ.प्र.)

पढ़ना जरूरी है

पढ़ें–लिखें हम प्यारे बच्चे।

बनें देश के नागरिक सच्चे।

चाहे कितनी हो मजबूरी।

है पढ़ना बहुत जरूरी।

यदि पढ़–लिख लेंगे हम

तो मिलेगा सम्मान हमें।

पढ़े–लिखे न यदि कुछ

तो सहना है अपमान हमें।

सुमेरसिंह राजपुरोहित

ग्रा.पो. व स्वरूपनगर, तहसील-शिव, जिला-बाड़मेर (राजस्थान)

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