भेंट नीति का सहारा
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भेंट नीति का सहारा

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Jun 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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असम के सबसे वीर सैनिक माने जाने वाले लाचित ने कहा था-'गद्दार! मेरे लिए देश से बढ़कर मामा नहीं'

दिंनाक: 16 Jun 2012 15:11:56

शौर्य गाथा

असम के लोग तीन महान व्यक्तियों का बहुत सम्मान करते हैं। प्रथम, श्रीमंत शंकर देव, जो पन्द्रवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के महान प्रवर्त्तक थे। दूसरे, लाचित बरफुकन, जो असम के सबसे वीर सैनिक माने जाते हैं। और तीसरे, लोकप्रिय गोपी नाथ बारदोलोई, जो स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान अग्रणी नेता थे।

औरंगजेब जब दिल्ली का बादशाह बना तो उसने पश्चिम असम पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में कर लिया, और रसीद खां को वहां के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। लेकिन अहोम के राजा चक्रध्वज सिंह (1663-1669) को मुगलों के अधीन रहना स्वीकार नहीं था। चक्रध्वज सिंह ने मुगलों से लड़ने के लिए सेना का पुनर्गठन कर नौ शक्ति को बढ़ाया और अपने मंत्री मोमाई तामुली बरबरूवा के पुत्र लाचित को अपना बरफुकन(सेनापति) बनाया। और पूरी तैयारी के साथ मुगलों पर आक्रमण कर अगस्त 1667 में असमी सेना ने गुवाहाटी में पुन: प्रवेश कर मुगलों को मनाह नदी के पार खदेड़ दिया । उधर मराठा वीर शिवाजी के आगरा दुर्ग से पलायन करने से मुगल बादशाह औरंगजेब परेशान था, इधर असम में हुई मुगलों की हार से वह और तिलमिला गया। उसे सन्देह था कि शिवाजी के पलायन में आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह ने सहायता की है। परन्तु वह उसे प्रत्यक्षरूप से सजा देता तो राजपूत सेना में विद्रोह का भय था, इसलिए उसने रामसिंह को असम जैसे खतरनाक मोर्चे पर भेज दिया। पटना से रामसिंह बंगाल के नवाब और औरंगजेब के मामा शाहस्ता खां से ढाका जाकर मिला और उसकी भी सैन्य सहायता ली। मुगलों की हार को जीत में बदलने के लिए वह धुबरी के रंगामाटी पर अधिकार कर 1669 ई. में गुवाहाटी के उत्तर पार अठियाठरी पहाड़ तक आ पहुंचा।

लाचित और रामसिंह की सेनाएं ब्रह्मपुत्र के दोनों किनारों पर खड़ी थीं। ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी तट पर इटाखुली दुर्ग पर स्वयं लाचित अपने सरदारों और सैनिकों के साथ डटे थे। ब्रह्मपुत्र में नावों का बेड़ा तैयार खड़ा था। लाचित को पता चला कि ब्रह्मपुत्र के उस पार स्थित अमीनगांव के पास एक दुर्ग की प्राचीर कमजोर है। उसकी मरम्मत का काम उन्होंेने अपने मामा को सुपुर्द कर कहा, 'मामा यह काम रात-दिन एक करके किसी भी तरह सुबह तक पूरा हो जाना चाहिए। शत्रु का क्या भरोसा कब अचानक हमला कर दे। यह याद रखना कि दुश्मन की सेना आपसे ज्यादा दूर नहीं है। यह अत्यन्त ही आवश्यक और गुरुतर कार्य है, इसलिए आपके जिम्मे किया है।'

लाचित रात को अचानक काम देखने आये। काम बंद देखकर उनकी आंखों मे लहू उतर आया। सोये हुए मामा को जगाकर लाचित ने पूछा-'मामा! काम कैसे बंद है? शत्रु दहलीज पर खड़ा है, और तुम काम छोड़कर चैन की नींद सो रहे हो?'

'अरे लाचित, तुम! जो काम बाकी रह गया है उसे अभी आरंभ करा देता हूं। मैं बहुत थक गया था, इसलिए आराम करने चला आया। लगता है मेरे पीछे दूसरे लोग भी सो गये। तुम चिंता मत करो, मैं अभी काम शुरू करा देता हूं।'

'तुम जैसे लोगों की वजह से ही देश परतंत्र होता है। मौत और दुश्मन कभी पूछ कर नहीं आते हैं? गद्दार ! मेरे लिए देश से बढ़कर मामा नहीं।' इतना कहकर तलवार के एक आघात से मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह दु:साहस देखकर सभी के सभी अवाक्‌ रह गये। सैनिकों के कौतुहल को शांत करते हुए लाचित ने आज्ञा दी-'अपना समय और नष्ट किये बिना काम को पूरा करो और जल्द से जल्द इस गद्दार की लाश को मेरे सामने से हटाओ।' अब तक काम फिर शुरू हो चुका था, और सूर्योदय के पहले दुर्ग की अभेद्य प्राचीर की मरम्मत पूरी हो गयी। वह दुर्ग 'मोमाइकारा गढ़' कहलाने लगा।

लाचित ने मुगल सेना से लड़ने के लिए कूटनीति अपना रखी थी। संकट दिखे तो कछुए की तरह अपने खोल में सिमट जाओ, और अवसर देखकर शत्रु पर आक्रमण कर उसे नुकसान पहुंचाओ। राम सिंह और उसकी सेना इस लुका-छिपी के खेल से तंग आने लगी। सन् 1669-70 दो सालों तक छुटपुट लड़ाइयां चलती रहीं। आखिर में हताश होकर रामसिंह ने भेंट नीति का सहारा लिया। लाचित के नाम एक पत्र लिखकर उनके सहयोगी सरदार मिरि सन्दिकै फूकन के हाथों में चालाकी से उसे पहुंचाया।

पत्र में लिखा था,

'लाचित बरफुकन, कल ही तो तुमने हमसे एक लाख रुपये लेकर मान्य किया था कि युद्ध नहीं करूंगा। विश्वास है कि मुगल सेना से केवल युद्ध का दिखावा मात्र करते हुए अपने वचन का पालन करोगे।'

तुम्हारा शुभचिन्तक

राजा राम सिंह

मिरि ने वह पत्र स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के पास गढ़गांव भेज दिया। राजा के संदेह को अतन बुढागोहॉई ने समझाकर दूर किया लेकिन फिर भी राजा ने मुगल सेना से तत्काल मैदानी युद्ध करने का फरमान भेज दिया।

प्रजा के प्रति निष्ठा

लाचित शुरू से ही जानते थे कि खुले मैदान में मुगल सेना को मात देना मुश्किल है, लेकिन गढ़गांव से मिले आदेश पर उन्हें आक्रमण करना पड़ा। लड़ाई में दस हजार सैनिक मारे गये, इससे लाचित शोकमग्न हो गये, और उनकी आंखों में आंसू आ गये। अपनी जान बचाने के लिए रामसिंह ने लाचित को फिर एक संदेश भेजा-'मैं सब लोगों को मुंह मांगा धन दूंगा। केवल गुवाहाटी मुझे सौंप दो। मैं संधि कर वापस लौट जाऊंगा।'

इसका लाचित बरफुकन ने उत्तर दिया- 'हमारे स्वर्गदेव उदयगिरि पूर्व के राजा और तुम्हारे बादशाह औरंगजेब अस्त गिरि (पश्चिम) के राजा। तुम और हम तो सेवक हैं। हम सेवकों के बीच संधि नहीं हो सकती।' इस बीच चक्रध्वज की मृत्यु हो गई, और उनका भाई उदय सिंह राजा बना। उदय सिंह में चक्रध्वज जैसी योग्यता नहीं थी। वह चापलूसों से घिरा था, प्रजा के कष्ट बढ़ गये थे। बड़े-बड़े सरदारों और मंत्रियों के परिवार उसके द्वारा लांछित हो रहे थे। इन समाचारों को सुनकर लाचित बड़े व्यथित हुए और उनका मन एक बार गढ़गांव जाने को हुआ, लेकिन उन्होंने गुवाहाटी का मोर्चा नहीं छोड़ा। उन्होंने मन में निर्णय किया-'उनकी निष्ठा किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, राज्य व प्रजा के प्रति है। अगर इस समय गुवाहाटी छोड़कर चला जाऊंगा तो सारे बलिदान व्यर्थ चले जायेंगे।'

रामसिंह की समझ में आ गया कि जल युद्ध किए बिना गुवाहाटी को नहीं जीता जा सकता, इसलिए वर्षा काल समाप्त होते ही उसने आक्रमण करने की ठान ली। इसी बीच गुप्तचर ने रामसिंह को बताया-'इस समय लाचित बरफुकन आखोईफूटा ज्वर से पीड़ित होकर मूच्छर्ा की स्थिति में पड़ा है, उस पर आक्रमण करने का यह अच्छा अवसर है।' यह जानकर रामसिंह ने हमला करने का आदेश दे दिया। मुगल नौकाएं, बन्दूक और तोपों से मार करती हुईं शराईघाट की ओर बढ़ने लगीं।   

लाचित की बीमारी की बात सैनिकों में दावानल की तरह फैल गयी। सैनिक हताश होकर अपनी नावों में उल्टे भागने लगे। यह स्थिति देखकर ब्रह्मपुत्र के उत्तर पार अश्वक्लान्त पहाड़ी पर डरी हुई, असमिया सेना में भी खलबली मच गयी। भीषण बुखार में भी लाचित बरफुकन अपने इटाखुली दुर्ग से मुगलों का आक्रमण देख रहे थे। सारी स्थिति को भांपकर वे युद्ध में जाने को तैयार हुए। वैद्य ने लाचित को समझाकर रोकने का प्रयास किया और राज ज्योतिषी ने वैद्य की बात का समर्थन करते हुए कहा कि 'मैं आपको युद्ध मैं जाने की सलाह नहीं दूंगा। मेरी गणना के अनुसार इस समय आपका युद्ध में जाना हानिकारक हो सकता है।'

लाचित ने दृढ़तापूर्वक कहा-'इससे बढ़कर क्या हानि हो सकती है कि शत्रु हमारी भूमि को हड़प ले और हम मुंह देखते रह जाएं। यहां बिस्तर पर मरने से तो अच्छा है कि मैं युद्ध करते हुए मरूं। मुझे युद्ध में जाने से कोई नहीं रोक सकता।' बिस्तर से उठने की भी लाचित बरफुकन की अवस्था न थी फिर भी उन्होंेने एक सैनिक का सहारा लेकर उठते हुए अपने सहयोगियों से कहा-'तुम मेरा पलंग उठाकर नौका में रखो। इस वक्त एक-एक पल हमारे लिए भारी है,जरा सी भी चूक हुई तो सारी सेना का विनाश निश्चित है। सामने देखो, मुगल सेना की नौकएं तेज गति से आगे उमानन्द द्वीप तक पहुंच रही हैं।'

एक ओर ब्रह्मपुत्र में पूर्व की ओर बढ़ती मुगलांे की सैकड़ों नौकाएं, दूर भागती असमिया सेना की नावें और दूसरी ओर जलधारा के साथ बहती हुई, एकमात्र नौका पर क्रोध से उन्मन्त अपना खड्ग हाथ में लिए हुए वीर लाचित बरफुकन। बीमार होते हुए भी वे अकेले दुश्मनों पर टूट पड़े। अपने सेनापति को देखकर अहोम सेना में तीव्र आवेश पैदा हुआ। नौकाओं के मुंह फेर दिए गये। नाव से नाव भिड़ गयी। घमासान युद्ध छिड़ गया। लाचित ने अपने सैनिकों को ललकारा 'वीरोे! मुगलों को इस बार ऐसा सबक सिखाओ कि फिर कभी भविष्य में असम की ओर रुख करने का ये साहस न कर सकें। यह आखरी और निर्णायक युद्ध होना चाहिए। इस अवसर पर चूक गये तो असम की माटी तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी।' ……….बरफुकन की इस वाणी ने असमिया वीरों मे नई स्फूर्ति भर दी और वे दुगुने जोश के साथ जी-जान की बाजी लगाकर लड़ने लगे। असमिया नौवाहिनी के गोताखोरों ने ब्रह्मपुत्र की अतिप्रवाहमान धारा में गोते लगाकर मुगलों की अनेक नावों में छिद्र कर-कर उन्हें डुबो दिया।

इस प्रबल आक्रमण से मुगल सेना के पैर उखड़ने लगे। अपने सिपहसालार रहीम खां को असमिया सेना द्वारा मारा गया देखकर वे और हताश हो गये। स्वयं रामसिंह भी इस प्रबल आक्रमण के सामने नहीं टिक पाया। वह समझ गया कि असमिया सेना के साथ जल युद्ध में और जूझना आत्मघात के समान होगा। आखिर उसके सामने शराईघाट छोड़कर पीछे हटने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा।…..लाचित की सेना ने भागती मुगल सेना की नौकाओं और शस्त्रों को लूटने की लाचित से अनुमति मांगी, परन्तु लाचित ने कहा-इन भगोड़ों को लूटकर मैं स्वर्गदेव और अपने मंत्रियों की प्रतिष्ठा पर दाग नहीं लगाना चाहता। जाओ, शत्रु को असम की सीमा के बाहर मनाह नदी के पार तक खदेड़कर आओ।

मुगल सेना की भारी पराजय हुई। फिर भी वहां से लौटते हुए रामसिंह ने लाचित बरफुकन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। लाचित ने युद्ध तो जीत लिया पर अपनी बीमारी को मात नहीं दे सके। आखिर सन् 1672 में उनका देहांत हो गया। भारतीय इतिहास लिखने वालों ने इस वीर की भले ही उपेक्षा की हो, पर असम के इतिहास और लोकगीतों में यह चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है।

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