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संविधान सभा का विघटन, नए चुनाव की घोषणाफिर संघर्ष के दौर में नेपाल

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Jun 9, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Jun 2012 14:51:32

 

संविधान सभा के विघटन और 22 नवम्बर को नये चुनावों की घोषणा से नेपाल की राजनीति में उबाल आ गया है। राष्ट्रपति रामबरन यादव ने प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई को काम चलाऊ सरकार के रूप में दूसरी सरकार के गठन तक काम करने के लिए कहा है, लेकिन प्रधानमंत्री भट्टराई के पास अब कार्यकारी अधिकार न रहने की बात भी उन्होंने स्पष्ट की है। राष्ट्रपति द्वारा चुनाव की सार्वजनिक घोषणा के बाद नेपाल के राजनीतिक दलों का ध्यान अब भट्टराई को प्रधानमंत्री पद से हटाने और चुनाव तक आम सहमति की सरकार बनाने पर केन्द्रित हो चुका है। नेपाली कांग्रेस और एमाले जैसी पार्टियां कह रही हैं कि जब तक वे आम सहमति की सरकार नहीं बन जाती तब तक चुनाव में भाग नहीं लेंगी। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि आगामी चुनाव संविधान सभा का चुनाव न होकर संसदीय चुनाव हो। जनांदोलन में साथ-साथ काम करने वाली, कल तक सहमति का राग अलापने के साथ ही बंद कमरों की बैठकों में नये संविधान संबंधी विवादित विषयों पर सहमति बनाने का नाटक करने वाली राजनीतिक पाटिर्यां अब दो खेमों में विभाजित होकर अपने-अपने पक्ष में छोटी पार्टियों को लाने के लिए हथकंडे अपना रही है।

एकजुट विपक्ष, अलग–थलग सत्तापक्ष

24-25 मई की आधी रात जैसे ही प्रधानमंत्री भट्टराई ने नये चुनाव की घोषणा की, नेपाली कांग्रेस और एमाले सहित भट्टराई सरकार के विपक्ष में रही व सरकार में सहभागी होने का अवसर तलाशती रही पाटिर्यां चुनाव का विरोध करने में जुट गईं। वहीं सरकार में सहभागी राजनीतिक दल जनता को यह बताने की कोशिश करने में जुटे हैं कि नेपाली कांग्रेस और एमाले की हठ एवं पूर्वाग्रही सोच के कारण संविधान की घोषणा किये बिना ही जनता द्वारा निर्वाचित संस्था (संविधान सभा) का अवसान हुआ और नया जनादेश लेने के लिए चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। उधर चुनाव की घोषणा को असंवैधानिक बताते हुए नेपाली कांग्रेस, एमाले, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, राष्ट्रीय जनशक्ति पार्टी, मधेशी जनाधिकार फोरम नेपाल (उपेन्द्र यादव) और मधेशी जनाधिकार फोरम (लोकतांत्रिक) सहित 15 पार्टियों ने राष्ट्रपति डा. रामबरन यादव से मुलाकात कर प्रधानमंत्री द्वारा घोषित चुनाव तिथि को निरस्त करने की मांग की है। चुनाव की घोषणा का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को आशा थी कि पूर्व प्रधान सेनापति रुक्मांगद कटवाल प्रकरण में राजनीतिक दलों के आग्रह पर जिस तरह राष्ट्रपति डा. रामबरन यादव ने हस्तक्षेप कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड के निर्णय को लागू नहीं होने दिया था, उसी तरह वर्तमान प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई की चुनाव की घोषणा को भी निरस्त कर नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में आम सहमति की सरकार बनने का वातावरण तैयार करने में सहयोग करेंगे। परन्तु राष्ट्रपति डा. यादव द्वारा भट्टराई सरकार को काम चलाऊ सरकार की मान्यता देने से आम सहमति की सरकार बनाने का आग्रह करने वाले दलों को बड़ा झटका लगा है, जो भट्टराई को असंवैधानिक प्रधानमंत्री सिद्ध करना चाह रहे थे। लेकिन प्रधानमंत्री भट्टराई के लिए भी राष्ट्रपति का निर्णय बहुत आनन्ददायक नहीं रहा, क्योंकि राष्ट्रपति ने कहा है कि काम चलाऊ सरकार के प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई के पास कार्यकारी अधिकार नहीं रहेंगे।

आम सहमति पर असहमति

चुनावों की घोषणा के साथ ही माओवादी नेता प्रचण्ड और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला ने अपने-अपने पार्टी कार्यकर्ताओं तथा पूर्व सभासदों को गांव-गांव जाकर काम करने का आग्रह करना शुरू कर दिया है। फिर भी आम सहमति की सरकार का गठन होने पर ही चुनाव हों, यह मांग भी जोर-शोर से की जा रही है। सत्ता से बाहर रही नेपाली कांग्रेस और एमाले सहित अघोषित मोर्चे से संबद्ध दलों की कोशिश है कि माओवादियों को सताच्युत कर नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में आम सहमति की सरकार बने। इसके विपरीत माओवादी तथा संयुक्त मधेशी मोर्चा सहित सतापक्ष का मोर्चा इस कोशिश में है कि भट्टराई के नेतृत्व वाली सरकार ही चुनाव होने तक काम करती रहे। इसके लिए माओवादी दल भी अन्य छोटी-छोटी पार्टियों के साथ बैठक कर रहे हैं। दोनों पक्षों का उद्देश्य विघटित संविधान सभा में प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों में से अधिक से अधिक पार्टियों को अपने साथ जुटाना है। इसी का परिणाम है कि जो छोटी पार्टियां नेपाली कांग्रेस और एमाले के साथ राष्ट्रपति को ज्ञापन देने गयी थीं, वही पार्टियां माओवादी सरकार के साथ भी वार्ता करने पहुंचीं थीं। संविधान सभा का विघटन हो जाने के कारण अब सभासद का पद जाने का डर किसी में नहीं रहा, इस कारण नेता पार्टी के निर्देशों को ताक पर रखकर काम कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि पार्टी आलाकमान अधिक से अधिक उनसे स्पष्टीकरण मांगेगा या पार्टी से निष्कासित करेगा, जिसकी उन्हें तनिक भी परवाह नहीं।

नया संविधान जारी न कर पाने में संविधान सभा और संविधान सभा में प्रतिनिधित्व करने वाले दलों की असफलता तो है ही, इससे कहीं अधिक निराश है नेपाली जनता, जिसका संविधान पाने का सपना, सपना ही रह गया। जिन दलों ने चार वर्षों तक काम करने वाली संविधान सभा द्वारा नया संविधान जारी नहीं होने दिया, वे पार्टियां संविधान सभा का चुनाव होने देंगी, संघीय संविधान बनने देंगी, इस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? संविधान सभा के अन्तिम क्षणों में देश के विभिन्न भागों में विरोध और टकराव का जो माहौल बना था, जातिवादी व साम्प्रदायिक दंगों में देश को धकेलने की जो चाल चली जा रही थी, उसके आधार पर यह कहना अनुचित न होगा कि संविधान सभा का विघटन होने से देश तत्काल रूप से जातीय विद्वेष से बचने में सफल रहा है।

विभाजन की राजनीति

संघीयता, विशेषकर प्रदेश निर्धारण के कारण से नेपाल की जातीय सद्भाव समाप्त हो रही थी तथा एक जाति दूसरी जाति की दुश्मन मान बैठी थी। मधेशी मोर्चा मधेश में दो प्रदेश बनाने के पक्ष में था, वहीं जनजातीय दल जातिगत आधार पर प्रदेश बनवाने के लिए आन्दोलित थे। इस कारण जातीय विद्वेष चरम पर पहुंच गया था। माओवादी सरकार जातीय पहचान के आधार पर प्रदेश निर्धारण करना चाह रही थी तो नेपाली कांग्रेस और एमाले बहुपहचान के आधार पर। प्रदेश के नामकरण एवं सीमा निर्धारण जैसे विषयों को लेकर भी नेपाल बंद का आयोजन हो रहा था। कहीं जातीय पहचान के आधार पर प्रदेश का निर्धारण करवाने के लिए बंद, जुलूस व प्रदर्शन हो रहा था तो कहीं जातीय आधार पर प्रदेश का निर्धारण न हो, इसके लिए बंद आयोजित किए जा रहे थे। बंद समर्थकों और बाजार खुलवाने वालों के बीच भी संघर्ष हो रहा था। राजधानी को नेवार राज्य बनाने के प्रयास के विरोध में काठमाण्डु में रहने वाले गैरनेवार, विशेषकर पहाड़ से आकर काठमाण्डु में रहने वाली ब्राह्मण, क्षत्रीय, ठकुरी आदि जातियों ने मोर्चा खोल दिया था। संविधान सभा का विघटन होते ही स्थिति चमत्कारिक रूप से सामान्य हो गई है। जाति के नाम पर, समुदाय के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर और धर्म के नाम पर आन्दोलन करने वाले अपने-अपने घरों में जा बैठे हैं। अगर संविधान जारी हुआ होता तो नेपाल में जातीय दंगो को शायद ही कोई रोक पाता। एक प्रकार से नेपाल बारूद के ढेर पर खड़ा हो चुका था, कहीं से भी जलती एक चिंगारी उसमें विस्फोट कर सकती थी।

संविधान पीछे, राजनीति आगे

पिछले 4 वर्ष के कार्यकाल में करीब 9 अरब रुपए संविधान सभा के संचालन, सभासदों के वेतन और भत्तों, यातायात, घर का किराया आदि मद में खर्च हुए, लेकिन संविधान सभा की बैठकें कार्यक्रमानुसार नहीं हो सकीं। संविधान सभा में प्रतिनिधित्व करने वाली बड़ी पार्टियों के नेता संविधान सभा के स्थान पर बाहर बैठकें कर सहमति बनाया करते थे। संविधान सभा की अन्तिम समय में भी राजनीतिक दल सरकार बदलने और सरकार बचाने की नीयत से ही कार्य करते रहे। नेपाली कांग्रेस और एमाले प्रधानमंत्री डा. बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व वाली सरकार को गिराने पर तुले थे और बार-बार मांग कर रहे थे कि भट्टराई प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दें। जबकि माओवादी अध्यक्ष प्रचण्ड और प्रधानमंत्री भट्टराई का कहना था कि संविधान का मसौदा तैयार होते ही त्यागपत्र दे दिया जाएगा। इसी बहस और बहानेवाजी में जब संविधान बनने की संभावना नहीं रही और संविधान सभा का समय भी समाप्त होने को था, तब सत्ता पक्ष संविधान सभा का समय फिर से बढ़ाने या वैकल्पिक उपाय खोजने की कोशिश करने लगा। संविधान सभा का समय बढ़ाने संबंधी प्रस्ताव भी संसद में प्रस्तुत किया गया और उसे प्रस्तुत करने वाले नेपाली कांग्रेस की ओर से सरकार में सहभागी उपप्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद सिटौला ही थे। लेकिन वह प्रस्ताव प्रस्तुत होते ही नेपाली कांग्रेस ने उसका विरोध किया और सिटौला ने प्रस्ताव वापस लेने के साथ ही सरकार से बाहर आने का ऐलान कर दिया। इस प्रकरण ने माओवादी और नेपाली कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ाने का काम किया। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने 24 मई को अपना फैसला सुना दिया कि संविधान बने या न बने, 27 मई के बाद संविधान सभा का समय आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

इसके बाद सुबह से लेकर रात्रि के करीब 10 बजे तक राजनीतिक दलों के नेताओं की द्विपक्षीय-बहुपक्षीय वार्ता होती रही। जैसे-जैसे समय बीतता गया, सहमति बनने के बदले विवाद ही गहराता चला गया। नेपाली कांग्रेस और एमाले न तो आपातकाल लगाकर संविधान सभा का समय बढ़ाने के लिए तैयार हुए और न ही संघीयता अर्थात प्रदेश निर्धारण के मुद्दे पर सहमति बन पाई। माओवादी भी बाबूराम भट्टराई के त्यागपत्र या नेपाली कांग्रेस और एमाले की मांग के अनुसार संघीयता को अलग रखकर अधूरा संविधान जारी करने के लिए तैयार नहीं हुए, फलस्वरूप संविधान सभा का विघटन हुआ। संविधान सभा के गठन से लेकर विघटन तक के घटनाक्रम के आधार पर यह कहना सर्वथा उचित होगा कि संघीयतावादी और संघीयताविरोधी के झगड़े ने नेपाली जनता को नये संविधान से वंचित रखा। नेपाल की तीनों बड़ी पार्टियों (माओवादी, नेपाली कांग्रेस और एमाले) की सहमति के बिना संविधान बनना संभव न था और तीनों पार्टियां सहमति बनाने के लिए तैयार न थीं। शायद नेपाल विश्व का पहला ऐसा देश होगा जहां संविधान सभा के गठन के बावजूद नया संविधान जारी न हो सका।

संविधान सभा का विघटन देश के इतिहास की अत्यन्त दु:खद घटना है।

–प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई

यथास्थितिवादी और परम्परावादी सोच रखने वाली पार्टियों ने संविधान सभा को सफल नहीं होने दिया।

–पुष्प कमल दहल, माओवादी अध्यक्ष

संविधान सभा का विघटन करना स्वेच्छाचारिता की पराकाष्ठा है।

–झलनाथ खनाल, एमाले अध्यक्ष

आम सहमति की सरकार के गठन के लिए प्रधानमंत्री भट्टराई त्यागपत्र दें।

-रामचन्द्र पौंडेल, उपाध्यक्ष (नेपाली कांग्रेस)

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