व्यंग्य वाण
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व्यंग्य वाण
विजय कुमार
पजामा एक वचन है या बहुवचन, स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग, उर्दू का शब्द है या हिन्दी का, इसका प्रचलन भारत में कब, कहां, कैसे और किसने किया, इस विषय की चर्चा फिर कभी करेंगे। आज तो शर्मा जी के पजामे की चर्चा करना ही ठीक रहेगा।
बात उस समय की है, जब शर्मा जी की नई–नई शादी हुई थी। हर आदमी की तरह उन्होंने भी शादी के समय और शादी के बाद पहनने के लिए बहुत से नये कपड़े बनवाये। सोने जाते समय उन्होंने देखा कि उनका नया पजामा चार–छह इंच लम्बा दिख रहा था। अगले दिन उन्होंने अपनी नयी नवेली पत्नी से उसे छह इंच छोटा कर देने को कहा।
पत्नी ने घूंघट में से ही मुंह बिचका कर कहा – अभी तो मेरे हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटी है। कुछ दिन बाद कर दूंगी।
शर्मा जी को गुस्सा तो बहुत आया, पर उन्हें कुछ अनुभवी लोगों की बात ध्यान आ गयी कि पत्नी से पहले ही दिन झगड़ा करना भावी जीवन के लिए ठीक नहीं है। अत: वे अपना सा मुंह लेकर रह गये।
दोपहर में उन्होंने मां से पजामे को छह इंच छोटा करने को कहा। मां डपट कर बोलीं – देख नहीं रहे, कितना काम सिर पर पड़ा है। मेहमान वापस जा रहे हैं। विदाई में किसे क्या देना है, यह सब मुझे ही देखना है। जा, अपनी भाभी से करा ले।
बेचारे शर्मा जी पजामा लेकर भाभी के पास गये। भाभी उन्हें टरकाते हुए बोली – मैंने बहुत दिन तुम्हारी सेवा कर ली है। अब तुम्हारी अपनी दुल्हन आ गयी है। उससे करा लो।
शर्मा जी की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें ? छोटी बहिन से कहा, तो उसने भी मुंह बना दिया – सेहरे के समय मैंने 501 रु0 मांगे थे, तो तुमने 101 रु0 ही देकर मुझे चुप करा दिया था। अब मुझसे अपने किसी काम के लिए न कहना।
झक मार कर शर्मा जी मोहल्ले के दर्जी के पास गये और उसे बीस रु0 देकर पजामा ठीक करा लिया।
अब कहानी का दूसरा अध्याय शुरू होता है। कुछ दिन बाद शर्मा जी को अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए बाहर जाना पड़ा। तब तक बहिन का गुस्सा कम हो चुका था। उसने सोचा कि 101 रु0 दिये तो क्या हुआ, आखिर हैं तो मेरे भैया ही। सो उसने चुपचाप पजामा उठाया और छह इंच छोटा कर दिया।
इसके बाद भाभी को ध्यान आया कि देवर जी ने कुछ काम कहा था। सो उन्होंने भी सिलाई मशीन निकालकर उसे ठीक कर दिया।
दो दिन बाद मां को फुरसत हुई। उन्होंने पजामे को देखा, तो आश्चर्य हुआ कि यह तो ठीक लगता है। फिर बेटे ने उसे छोटा करने को क्यों कहा था ? लेकिन कहा तो था ही। सो मां ने भी दिमाग पर अधिक जोर दिये बिना उसे छह इंच काट दिया।
शर्मा जी की वापसी वाले दिन पत्नी ने सोचा कि पतिदेव द्वारा बताये गये पहले काम को मना कर उसने ठीक नहीं किया। अत: उसने पजामे को छोटा तो किया ही, कहीं से एक पुराना रंगीन कपड़ा लेकर नीचे पांयचे पर किनारी भी बना दी।
रात को शर्मा जी ने पजामा पहना, तो वह घुटने छू रहा था। उन्होंने अपना माथा पीट लिया। वह इतना छोटा नहीं था कि उसे चड्ढी की तरह पहना जा सके, और पजामा वह अब रहा नहीं था।
पाठक मित्रो, लोकपाल के नाम पर जो तमाशा संसद और सड़क पर हुआ, वह कुछ–कुछ ऐसा ही है। भ्रष्टाचार के कलंक से देश को मुक्त कराने के लिए अण्णा हजारे की ओर से लोकपाल का जो प्रारूप बना कर दिया, उसमें धोखेबाज सरकार के साथ–साथ सपा, बसपा, भाजपा, जनता दल, लालू यादव और न जाने किस–किसने इतनी काट–छांट और जोड़–तोड़ कर दी है कि वह लोकपाल की बजाय सचमुच 'जोकपाल' नजर आने लगा है।
शर्मा जी ने तो समझदारी दिखाते हुए अपने बचे–खुचे पजामे को थोड़ा और कटवा कर चड्ढी बनवा ली, पर लोकपाल के साथ हो रहे मजाक को देखकर लगता है कि जनता को केवल पजामे का नाड़ा ही मिलेगा, और कुछ नहीं।
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