चर्चा सत्र
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चर्चा सत्र
दावों और यथार्थ में दूरी न रहे
डा. प्रमोद पाठक
आगामी दिनों में उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर, गोवा एवं उत्तराखंड में विद्यानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। चुनावों को निष्पक्ष सम्पन्न कराना एक महती जिम्मेदारी होती है और देश व राज्य की दृष्टि से ऐसा होना बेहद जरूरी भी है। यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहली मांग है। इस लिहाज से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या इन राज्यों के चुनाव पूरी तरह से निष्पक्ष होंगे? विशेषकर इस बात को देखते हुए कि वर्तमान समय में चुनावों में जो इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें (ईवीएम) इस्तेमाल की जा रही हैं उनकी विश्वसनीयता पर पिछले कुछ समय से प्रश्नचिन्ह लगाये जाते रहे हैं। यह ठीक है कि बदले हुए परिवेश में जो परंपरागत मतदान पत्र के जरिए चुनाव कराए जाते थे, उस पद्धति से अब चुनाव कराना परेशानी भरा और महंगा साबित होगा। कागज का खर्च तो है ही, सबसे ज्यादा बूथ कब्जे का खतरा रहता है। इसलिए यह तो ठीक है कि ईवीएम के जरिए चुनाव कराना अधिक सरल और सुलभ है। लेकिन यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि चुनाव पूरी तरह निष्पक्ष संपन्न होंगे।
सबसे बड़ा लोकतंत्र
दुनिया भर में भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारे लोकतंत्र को दुनिया में सम्मान की नजर से देखा जाता है। लेकिन इस लोकतंत्र की कुछ खामियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, बल्कि उन खामियों के चलते कई बार भारतीय लोकतंत्र में अनेक व्याधियां भी देखने में आती रही हैं। विशेषकर चुने हुए प्रतिनिधियों के चरित्र को लेकर। फिर बहुधा नतीजों में लोकप्रिय भावना का न झलकना और बूथ कब्जे की शिकायतें जैसी कमियां भी परिलक्षित होती रही हैं।
दरअसल इन्हीं खामियों को दूर करने के लिए ईवीएम का चलन शुरू हुआ और यह संभावना व्यक्त की जाने लगी कि मतदाता पत्र प्रणाली की कमजोरियों पर इन ईवीएम के जरिये काबू पा लिया जाएगा। किंतु कालांतर में ऐसा प्रतीत होता गया कि ईवीएम के इस्तेमाल के जरिए जिस स्तर की निष्पक्षता की उम्मीद थी वह अभी भी अपेक्षित ही है। समय-समय पर तत्कालीन चुनाव आयोगों ने यह दावा जरूर किया कि चुनाव पूरी तरह निष्पक्ष रहे और इनमें लोकप्रिय भावना प्रबलता से झलकी है। लेकिन ये दावे विवाद के घेरे में ही रहे। भले ही कुछ हद तक बूथ लूटने की घटनाएं सुनने में नहीं आयीं। साथ ही चुनाव परिणाम भी शीघ्रता से घोषित होने लगे। ईवीएम का सबसे बड़ा योगदान यही रहा, अन्यथा चुनाव परिणामों के लिए बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।
निष्पक्षता बड़ी चुनौती
इसलिए आने वाले पांच राज्यों में चुनावों की निष्पक्षता चुनाव आयोग के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। पिछले कुछ चुनावों में यह आशंका जाहिर की जाती रही है कि ईवीएम में कुछ हद तक छेड़छाड़ की गुंजाइश रहती है और तकनीकी जोड़-तोड़ के जरिए मशीनों में ऐसी व्यवस्था बनायी जा सकती है कि परिणाम प्रभावित किये जा सकें। यह आशंका उठना लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। मुख्य रूप से ईवीएम के इस्तेमाल के पीछे जो तर्क रहे हैं उनमें बुनियादी बात एक ही रही कि इनके जरिये चुनाव पूर्णरूपेण निष्पक्ष कराये जा सकते हैं, क्योंकि ये मशीनें उत्कृष्टतम तकनीक से निर्मित, व्यवहार के दृष्टिकोण से सुलभ एवं किसी भी किस्म की इलेक्ट्रानिक छेड़छाड़ की संभावना से परे हैं। हमारे देश में इनके इस्तेमाल की धारणा पर वर्ष 1977 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने पहली बार चर्चा की थी। कई उच्च स्तरीय समितियों ने परंपरागत मतदान पत्र से मतदान और इलेक्ट्रानिक मशीनों से मतदान की प्रक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन एवं विश्लेषण किया। तब जाकर ईवीएम इस्तेमाल की संस्तुति की गई। लेकिन उस वक्त भी कई बुनियादी चुनौतियां थीं। पहली तो थी एक ऐसे उपकरण की, जो वर्तमान चुनाव प्रणाली के लिए उपयुक्त हो अन्यथा उसका उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। फिर यह भी आवश्यक था कि बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिज्ञ एवं मीडिया के लिहाज से यह संतोषजनक हो। इसलिए इन मशीनों का प्रयोग के तौर पर 1980 के आसपास इस्तेमाल शुरू हुआ। उस शुरुआती दौर में भी कुछ बुनियादी प्रश्न उभरे थे। जैसे कि मतदान के बाद उन मशीनों की सुरक्षा। जो मत उस मशीन के माध्यम से दर्ज किए गये हैं उन्हें किस हद तक संरक्षित रखा जा सकता है? फिर यह प्रश्न भी था कि क्या उन्हें किसी तकनीकी विधि से परिवर्तित/संशोधित तो नहीं किया जा सकता? फिर बुनियादी ढांचे का भी प्रश्न था।
तकनीकी दोष से बचें
उन स्थानों पर, जहां बिजली नहीं है, ये मशीनें कैसे प्रयुक्त की जा सकेंगी? अथवा यदि मतदान प्रक्रिया के दौरान बिजली चली जाए तो क्या होगा? साथ ही यह सवाल भी था कि क्या विवाद की स्थिति में मशीन में कैद सूचना को सबूत के लिए लम्बे समय तक संरक्षित रखा जा सकेगा? चुनावी विवाद में न्यायिक प्रक्रिया काफी समय लेती है इसलिए यह एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न था। इन तमाम सवालों को ध्यान में रखकर ईवीएम निर्मित की गईं। अगर उपरोक्त सभी प्रश्नों पर निष्पक्षता से विचार हुआ था तो इन मशीनों की तकनीकी क्षमता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता, लेकिन तकनीक के साथ-साथ मानवीय मनोविज्ञान का प्रश्न भी काफी हद तक महत्वपूर्ण होता है। बल्कि अक्सर तकनीक का दुरुपयोग गलत सोच के परिणामस्वरूप ही होता है। इस लिहाज से यह पक्ष भी अति महत्वपूर्ण है और यदि ईवीएम प्रणाली के जरिये कराये जाने वाले चुनावों की निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं तो इसीलिए कि मानवीय सोच की खामियों पर पूरी तरह से ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया। आज भी चुनावों की निष्पक्षता यदि संदेहों के घेरे में है तो उसके पीछे मुख्य कारण यही है। ईवीएम के जरिए मतदान तो करा लिया जाता है, उसे संरक्षित भी किया जा सकता है, लेकिन क्या किसी भी सूरत में इन मशीनों में दर्ज सूचना को संशोधित करना संभव नहीं है, यह प्रश्न जब मतदान पेटियां थीं तब भी उठता था और आज भी उठता है। फिर बूथ कब्जे की संभावना का प्रश्न भी है। तकनीक के दौर में पारंपरिक बूथ कब्जे की संभावना तो नहीं रहती लेकिन इलेक्ट्रॉनिक तकनीक में छेड़छाड़ की संभावना तो रहती ही है। जैसे बहुत से मतदान केन्द्रों पर बाहुबली उम्मीदवारों के गुर्गे ईवीएम के ईद-गिर्द खड़े होकर गोपनीयता बाधित कर देते हैं और अपने पंसद के उम्मीदवार के पक्ष में बटन दबवाने में सफल हो जाते हैं। कई बार जायज मतदाता के बदले यही गुर्गे बटन दबाकर मतदान कर देते हैं। और भी बहुत से रास्ते हैं जो मतदान की निष्पक्षता प्रभावित कर सकते हैं। इस लिहाज से अभी तकनीकी उत्कृष्टता में और वृद्धि लानी होगी ताकि इस गड़बड़ी की संभावनाएं कम की जा सकें। चुनाव पूरी तरह निष्पक्ष तभी होंगे जब मानवीय मनोविज्ञान पर भी उतना ही ध्यान दिया जाए जितना कि तकनीक पर, वरना दावों और यथार्थ में दूरी बनी रहेगी।द
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