साहित्यिकी
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सुपरिचित कवि जगन्नाथ विश्व का 12वां काव्य संग्रह 'सूरज से सीखें जग
रोशन करना' कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनकी अनेक छंदबद्ध व छंदमुक्त गजलें और मुक्तक कविताएं संकलित हैं। मानवीय जीवन की जटिलताओं, समाज की रुग्णताओं के बीच कवि अपनी कविताओं के माध्यम से आत्मजागरण के लिए प्रेरित करता है। श्रमिक वर्ग से सम्बद्ध यह कवि श्रम के महत्व को गहनता से समझता है। उसके मन में मेहनतकश समुदाय के प्रति आदरभाव है। कवि कहता है-
कोई मठ, मन्दिर, मस्जिद में
खोज रहा भगवान है!
मेरा तो आराध्य देवता
मेहनतकश इंसान है!!
इतना ही नहीं, कवि अपने रचना कर्म का प्रमुख कारण इसी 'मजदूर-मन' को मानता है। जब तक इस देश और समाज में श्रमिकों को पूरा सम्मान नहीं मिलेगा, जब तक उन्हें उनके पसीने की पूरी कीमत नहीं मिलेगी, कवि की कलम आग उगलती रहेगी-
अपना वहा पसीना जिसने भरी खोखली नींव,
रोता वह इंसान यहां, हंसते हैं लोभी जीव।
मेरे देश में जब तक भूख-गरीबी का अधिकार,
ज्वालामुखी कलम मेरी यह उगलेगी अंगार।।
कवि की दृष्टि में मेहनतकश इंसान का स्थान देवताओं के समतुल्य है। जो मेहनतकश हाथ खेतों में अनाज उगाते हैं, जो मेहनतकश हाथ सबके रहने का आशियाना बनाते हैं, अपनी सुख-सुविधाओं और जीवन की आहुति देकर दूसरों को सहूलियत भरी जिंदगी प्रदान करतेे हैं, उन्हें देवता मानना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं कहा जा सकता है।
कवि प्रकृति से ऊर्जा प्राप्त कर प्रेरणा लेने की बात कहते हुए लिखता है-
अच्छा नहीं है व्यर्थ वक्त का गुजरना।
प्रखर सूरज से सीखें, जग रोशन करना।
कवि ने भीतर का गजलकार भी अपने शेरों के माध्यम से वक्त की नब्ज पर सीधे हाथ रखने के हुनर में माहिर है-
दु:ख दर्द का उपचार है खुशियां बिखेरना,
सिखलाए प्रीत प्यार वो गजल का रूप है।
उनकी गजलों का मिजाज तल्ख होने के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर व्यंग्यात्मक लहजे में राजनीतिज्ञों की बहुरूपता भी सामने लाता है-
अपनों में फिर प्रसाद आप बांटने लगे,
सुनते हैं अब जनाब की सरकार हो गई।
जगन्नाथ विश्व बहुआयामी प्रतिभा के धनी कवि हैं। चतुष्पदी मुक्तक में भी वह सरलता से गंभीर बातें कह देते हैं। उनकी इस काव्य प्रतिभा का उदाहरण कई मुक्तकों में देखा जा सकता है-
सच्चे संकल्पी ही युगकारी कहलाते हैं
जो नए सृजन का सबको पाठ पढ़ाते हैं
औरों के खातिर जीना जिनका लक्ष्य रहा
दुनिया में वही मनुष्य देव बन जाते हैं।
कहा जा सकता है कि इस काव्य संग्रह के द्वारा कवि ने न केवल जटिल जीवन के दर्शन को सरल ढंग और अर्थों में व्याख्यायित किया है बल्कि पर्यावरण, देश और समाज के प्रति गहन चिंता भी प्रकट की है। कवि ने अपनी भाषा कहीं भी जानबूझकर जटिल नहीं बनाई है। यानी ये कविताएं आम जन के लिए आम जन के बीच रहने वाले कवि ने ही लिखी हैं। सरलता के साथ बोधगम्यता इन कविताओं का प्रमुख लक्षण है। n
पुस्तक – सूरज से सीखें जग रोशन करना
(काव्य संग्रह)
कवि – जगन्नाथ विश्व
प्रकाशक – गरिमा प्रकाशन
मनोबल, 25 एम.आई.जी.
हनुमान नगर, नागदा जंक्शन,
(म.प्र.) 456335
दूरभाष – 07366-241336
मूल्य – 150 रु., पृष्ठ – 180
यथार्थ की काव्यानुभूतियां
आज जब जीवन में से काव्यात्मकता और रागात्मकता का विलोपन लगातार होता जा रहा है, आस-पास के वातावरण और जीवन शैली में तरह-तरह की जटिलताएं निरन्तर आदमी के भीतर के कवि मन पर छाकर रूढ़ता में वृद्धि कर रही हैं, तब जीवन के भीतर और बाहर की कुरूपताओं से प्रभावित हुए बिना मन की सुंदरता को बचाए रखना कितना दुष्कर है, यह कोई संवेदनशील कवि-मना रचनाकार ही अनुभव कर सकता है। उद्भ्रांत ऐसे ही गंभीर, संवेदनशील और घनघोर तिमिर में भी उजाले की कामना करने वाले कवि हैं। 'अभिनव पांडव' और 'राधा माधव' जैसे महाकाव्य और प्रबंध काव्य संग्रहों के साथ ही विगत दिनों उनका एक अन्य वृहद काव्य ग्रंथ 'अस्ति' प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह का आधार इतना विस्तृत और जीवन के अनेक आयामों को अपने में समेटे हुए है कि अगर इसमें संकलित सभी कविताओं की समीक्षा की जाए तो स्वयं एक पुस्तक तैयार हो सकती है। इसकी वजह यह है कि इसमें कवि 'स्व' से 'पर' की 'व्यष्टि' से 'समष्टि' तक की गहन और सुदीर्घ यात्रा करते हुए नजर आता है। इसमें एक ओर जहां कवि अपने घर-परिवार के रिश्तों और संबंधियों से जुड़ी संवेदनाओं को सहजता से शब्दबद्ध करता है वहीं दूसरी ओर सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों के साथ ही मानवीय मूल्यों को भी नवीन दृष्टिकोण से व्याख्यायित करता है।
'बचपन' शीर्षक कविता में कवि ने रवीन्द्रनाथ टैगोर और विलियम वर्ड्सवर्थ, जैसे महान कवियों की बचपन को लेकर की गई अवधारणाओं और उपमाओं की तुलना वर्तमान भारतीय समाज में मौजूद बच्चों के हालात से की है। इस बहाने वे सारे समाज से प्रश्न करते हैं कि- 'आप ही बताएं। इस देश के मौजूदा बचपन के भीतर/कौन सा भविष्य है छुपा हुआ?'
'आत्महत्या' शीर्षक कविता में 'किसान, मजदूर, बेरोजगार, छात्र और गरीब व्यक्ति के समक्ष क्या आत्महत्या के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया है बाजार के अधिनायकवादी युग में' बताते हुए कवि यह सवाल भी पूछते हैं कि 'क्या जीवन एक जिंस है?' उनके इस सवाल के पीछे मानवीय मूल्यों का गहन लेकिन मौन करुण स्वर साफ तौर पर सुना जा सकता है। कवि की सबसे बड़ी चिंता, मनुष्य के भीतर से छीजती जा रही यही मनुष्यता है। हालांकि कवि कुछ कविताओं में आशावादी भी नजर आता है लेकिन अधिकांशत: उनके भीतर की चिंताएं कविता में प्रकट हुई हैं। उनकी आशावादिता का आलम यह है कि अंधेरे में जलती हुई मोमबत्ती की बत्ती में उठती पीली लौ में उन्हें दिखती है एक सूरज की मुस्कान (मोमबत्ती, पृष्ठ-64)। यहां पर याद आती है मुक्तिबोध की पंक्तियां कि हर कविता में कवि करता है, बेहतर जीवन की तलाश।
उद्भ्रांत अपनी कविताओं में केवल मनुष्य और उसकी मनुष्यता के प्रति ही चिंतित नहीं रहते बल्कि वे पर्यावरण और राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों पर भी विचार करते हैं। 'सुनामी लहरें', 'जंगलतंत्र', 'दो बूंद' और 'उसकी प्रकृति' जैसी कई कविताएं कवि के भीतर की प्राकृतिक चेतना को प्रकट करती हैं। 'पेंटिंग' और 'घास पर नंगे पैर' कविता में उद्भ्रांत प्रकृति के साथ अपनी गहन अनुभूति को उत्कृष्ट सौंदर्य बोर्ध के साथ अभिव्यक्त करते हैं। उनकी कविता में 'टार्च', 'माचिस', 'मिर्च, 'नाखून', 'केंचुआ', और यहां तक कि 'तिनका' को भी कविता की विषय वस्तु बनाया गया है। इससे कवि के भीतर की वक्तव्य चैतन्यता प्रमाणित होती है। वह जिस सहजता से सामान्य वस्तुओं में भी काव्य तत्व की रचना कर देते हैं, वह स्वयं में विलक्षण है। विभूश्री
पुस्तक – अस्ति (काव्य संग्रह)
रचनाकार – उद्भ्रांत
प्रकाशक – नेशनल पब्लिशिंग हाउस
2/35, अंसारी रोड,
दरियागंज, दिल्ली-110002
मूल्य – 750 रु. पृष्ठ – 497
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विकास बनाम विनाश
राकेश भ्रमर
धरती और आकाश नाप लो,
सारा तुम ब्रह्माण्ड नाप लो,
भागा-दौड़ी पूरी कर लो
थक जाओगे कहां रुकोगे?
जब गर्मी बेहाल करेगी,
तरुवर की छाया भायेगी,
मरुथल में जब प्यास लगेगी
भाग-दौड़ कर कहां जाओगे?
दूर-दूर तक नीर न होगा,
ढूंढोगे तब कूल नदी का
नीर नदी का अमृत बनकर
जान बनाएगा तब तेरी!!
इतना ऊंचे क्यों उड़ते हो?
तेज बहुत तुम भाग रहे हो।
देखी नहीं सुनामी तुमने?
भूंकपों के तगड़े झटके,
भी तो तुमने यहीं सहे हैं।
क्या तुम इनसे अधिक तेज हो?
इनके आगे भाग सकोगे?
भाग सको तो भाग लो जितना,
दुनिया पर तुम कब्जा कर लो,
चढ़ो सीढ़ियां तुम विकास की
पर विकास ही तो विनाश है,
जो बनता है वही बिगड़ता,
जितना तुम गढ़ लोगे दुनिया
उतनी ही यह अनगढ़ होगी,
कुदरत से लड़ना मुश्किल है
वह अपनी ही रचना करती।
मानव की सारी रचनाएं
क्षणभंगुर हैं, मिट जाती हैं
किन्तु प्रकृति की अनुपम रचना
ही इस जग में रह पाती है।
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